Anuradha Prasad show on inflation money saving Unemployment: मैं हूं अनुराधा प्रसाद। आपने अक्सर सुना होगा कि पैसा भगवान तो नहीं लेकिन, भगवान से कम भी नहीं। ऐसे में आज कार्यक्रम की शुरुआत एक सवाल से करते हैं? आप हर महीने कितना बचा लेते हैं? आपका बैंक बैलेंस बढ़ रहा है या घट रहा है? कहीं महंगाई की वजह में बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए पिछली बचत से पैसे तो निकालने पड़ रहे हैं ? अगर ऐसी स्थिति है तो आप इकलौते नहीं हैं। आप जैसे करोड़ों लोग इसी तरह की परेशानियों से जूझ रहे हैं। लगातार माथापच्ची कर रहे हैं कि सैलरी बढ़ने के बाद भी महीने के आखिर में कुछ बचता क्यों नहीं? देश में महंगाई ज्यादा है या फिर कमाई कम! ऐसे में आज बात न राजनीति की न महाशक्तियों के बीच शक्ति संतुलन की। न हथियारों के होड़ की न ही एशिया में डिमांड और सप्लाई के लिए बन रहे नए ट्रायंगल की।
आज मैं बात करूंगी आपकी जेब की। समझने की कोशिश करेंगे कि ऐसी क्या वजह है कि लोगों की बचत लगातार घट रही है? जेब खाली, हाथ खाली वाली स्थिति कैसे पैदा हुई? एक देश के तौर पर भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी जीडीपी बन चुका है। लेकिन, बेरोजगारी दर पिछले 40-50 वर्षों में चरम पर है। सेविंग पिछले 47 साल में सबसे निचले स्तर पर है। Private equity investment का ग्राफ भी कम हुआ है। देश की अर्थव्यवस्था की रफ्तार बनाए रखने में अहम भूमिका निभाने वाले कुछ इंजन तेज तो कुछ सुस्त चल रहे है। इनकम टैक्स और GST कलेक्शन के नए रिकॉर्ड के बाद भी सरकार का कर्ज बोझ लगातार क्यों बढ़ रहा है? ऐसे सभी सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे- अपने स्पेशल शो नजर लागी रुपये के मोल को में…
एक रुपए में खरीद लेते एक किलो घी
एक रुपये की क्या वैल्यू हुआ करती थी किसी 75 से 80 साल के बुजुर्ग से पूछिए। आजादी के समय एक रुपये में 8 से 9 किलो चावल मिल जाता था। एक रुपये में एक किलो घी खरीदा जा सकता था। एक रुपये में ही ढाई किलो चीनी भी आ जाती थी। एक रुपये में गाड़ी में चार लीटर पेट्रोल डलवाया जा सकता था। अगर 20 रुपया जेब में हो चमचमाती साइकिल खरीदी जा सकती थी। अगर 90 रुपये जेब में हो तो 10 ग्राम की सोने की चेन की खरीददारी हो जाती थी। दूसरा सच ये भी है कि तब किसी सरकारी कर्मचारी की न्यूनतम सैलरी भी 55 रुपये थी।
जरा सोचिए…एक रूपये की 76 साल पहले इतनी वैल्यू हुआ करती थी। लेकिन, आज की तारीख में 500 रुपये का नोट ढंग की जगह पर दो कप कॉफी में खत्म हो जाता है। बड़े मल्टीप्लेक्स में 500 रुपये में सिनेमा की टिकट और पॉपकॉर्न दोनों आ जाएं तो बहुत है। वक्त के साथ लोगों की कमाई बढ़ी तो खर्च के नए रास्ते भी निकले। मैंने अभी एक रुपये में जिन चीजों के दाम गिनवाए जरा सोचिए अगर उन्हें आज की तारीख में खरीदने जाएंगे तो कितना रुपया खर्च करना पड़ेगा?
शुद्ध बचत घट कर 13.77 लाख करोड़ रुपये पर आई
इसी हफ्ते रिजर्व बैंक की Household Assets and Liabilities पर एक रिपोर्ट आई है। इसमें साफ-साफ बताया गया है कि जीडीपी के हिसाब से देखा जाए तो इस साल शुद्ध बचत घट कर 13.77 लाख करोड़ रुपये पर आ चुकी है। दूसरी तरह से इसे कहें तो नेट हाउसहोल्ड सेविंग घट कर 5.1 फीसदी पर आ गई है, जो पिछले पांच दशकों में सबसे कम है । पिछले साल यानी 2021-22 में यह 7.2 फीसदी थी। इसका सीधा मतलब ये निकलता है कि लोगों की बचत घट रही है।
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की एक रिसर्च रिपोर्ट कहती है कि देश में पिछले वित्त वर्ष में परिवारों पर कर्ज बोझ बढ़ा है और उनके बचत की क्षमता आधी हुई है । इस स्थिति को दूसरी तरह से भी देखा जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में लोगों की कमाई तो बढ़ी है लेकिन, लोग कर्ज लेकर भी अपना शौक पूरा कर रहे हैं, जिससे बचत में कमी आई है। इस स्थिति को अगर देश पर भी लागू कर दें तो भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति दिखाई देगी।
खर्च करने के नए-नए रास्ते भी खुले
अर्थशास्त्रियों की दलील है कि लोगों की कमाई तो बढ़ी है। लेकिन, खर्च करने के नए-नए रास्ते भी खुले हैं। जिसकी वजह से लोगों की जेब में रुपया ठहर ही नहीं रहा है। मैं NCR में रहने वाले एक ऐसे शख्स को करीब से जानती हूं, जिसकी एक लाख रुपये की कमाई में से करीब 30 हजार रुपये होम लोन EMI और सोसाइटी मेंटेनेंस में चले जाते हैं। करीब 15 हजार रुपये गाड़ी की EMI में निकल जाते हैं। महानगरों में गाड़ी लग्जरी नहीं जरूरत है। 10 हजार रुपये पेट्रोल से लेकर मेंटेनेंस तक में निकल जाते हैं। बच्चों की स्कूल फीस में 20 हजार रुपये चले जाते हैं। करीब पांच हजार रुपये दूसरे छोटे-बड़े जरूरी बिल चुकाने में खर्च हो जाते हैं। आखिर में घरेलू खर्च से लेकर बचत तक के लिए सारी गुंजाइश सिर्फ 20 हजार रुपये में टिकी जाती है। महीने के इस बिल को हर आदमी अपने आर्थिक-सामाजिक धरातल के हिसाब से परिभाषित करेगा?
कोई इसे फिजूलखर्ची बताएगा। कोई जरूरी, कोई चार्वाक दर्शन की याद दिलाते हुए कह सकता है कि यावज्जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत। लेकिन, कड़वी सच्चाई ये है कि पिछले कुछ वर्षों में जो हवा चली है उसमें हर इंसान की सोच से लेकर खर्च का तौर-तरीका बदल गया है। इसे कभी बढ़ती महंगाई के लेंस से देखने की कोशिश होती है, कभी लाइफ स्टाइल में आए बदलावों से मापने की। 21वीं शताब्दी में कदम रखने वाला एक बड़ा नौकरीपेशा युवा वर्ग ये बताते हुए फर्क महसूस करता था कि उसकी तनख्वाह 5 डिजिट में है। वो दस हजार भी हो सकती थी और 99 हज़ार 9 सौ 99 रुपये भी। दौर कोई भी रहा हो, ज्यादातर मिडिल क्लास परिवारों का हमेशा से सपना रहता है कि तनख्वाह इतनी पहुंच जाएगी तो ये करेंगे, वो करेंगे। लेकिन, सामान्य मिडिल क्लास परिवार की जितनी कमाई बढ़ती है, उससे ज्यादा महंगाई बढ़ जाती है। ऐसे में कमाई और महंगाई की रेस में सामान्य मिडिल क्लास की स्थिति कुछ तरह पतली होती जा रही है कि वो खुद को मिडिल से लोअर मिडिल क्लास की ओर शिफ्ट होता देख रहा है।
हम दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था
जिस तरह से मिडिल क्लास पर कर्ज बोझ तेजी से बढ़ रहा है। कुछ ऐसी ही स्थिति देश भी है। समय-समय पर जारी आंकड़े इशारा कर रहे हैं कि भारत की GDP में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। कुछ महीने में ही भारत 5 ट्रिलियन इकोनॉमी बन जाएगा। इसमें कोई शक नहीं। ये भी सच है कि हम दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था हैं। हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी GDP बनने के सपने को हकीकत में बदलने के लिए तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन , एक सच ये भी है कि दुनिया की जीडीपी में अमेरिका और चीन की हिस्सेदारी करीब 45 फीसदी है और भारत की करीब तीन फीसदी। ऐसे में भारत की अर्थव्यवस्था समय चक्र के साथ बड़ी तो हो रही है लेकिन, कर्ज बोझ भी लगातार बढ़ रहा है। ऐसे में इनकम टैक्स की वसूली और जीएसटी कलेक्शन के आंकड़े थोड़ा सुकून तो देते हैं पर जिस रफ्तार से सरकार को चाहे-अनचाहे खर्च करना पड़ रहा है, उसमें देश की स्थिति भी एक सामान्य मिडिल क्लास परिवार जैसी ही है। बिजनेस घराने भी लगातार हिसाब लगा रहे हैं कि अगर देश में सब कुछ ठीक चल रहा है तो फिर उनका धंधा मंदा क्यों है? प्राइवेट इक्विटी निवेश का ग्राफ ऊपर की जगह नीचे की ओर क्यों गिरता जा रहा है?
अर्थव्यवस्था को चलाने में अहम हैं चार इंजन
कोई व्यक्ति हो या कंपनी, कोई छोटा राज्य हो या भारत जैसा विशालकाय देश। अर्थव्यवस्था की स्थिति कमोवेश कुम्हार के चाक जैसी होती है। इसमें जब तक चाक चलता रहता है, कुम्हार अपने हुनर के मुताबिक कुछ-न-कुछ गढ़ता रहता है। कुछ उसी तरह से किसी भी मुल्क की अर्थव्यवस्था को चलाने में खासतौर से चार इंजन अहम भूमिका निभाते हैं। पहला, उपभोक्ता यानी लोगों की खरीददारी की क्षमता। दूसरा, निवेशक यानी पूंजी का मौजूद होना और लगाने के लिए माहौल। तीसरा, सरकार की ओर खर्च और चौथा निर्यात। पिछले कुछ वर्षों में भारत जिस रास्ते आगे बढ़ा है। उसमें देश के एक फीसदी सबसे अमीर लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का 40 फीसदी से अधिक हिस्सा है। वहीं 50 फीसदी आबादी के बाद देश की कुल संपत्ति का सिर्फ तीन फीसदी हिस्सा है। इस आर्थिक असमानता की वजह से देश के भीतर निजी खपत और पूंजी निवेश की रफ्तार सुस्त पड़ती जा रही है। देश की अर्थव्यवस्था के चाक को सरकारी योजनाओं की मदद से चलाने की एक अदृश्य कोशिश हो रही है। इसमें किसानों से लेकर महिलाओं तक के खाते में सीधे पहुंचने वाली कैश मदद को भी गिन सकते हैं।
अमेरिका जैसे बड़े देश कर्ज में डूबे
पहले लोग कहा करते थे कि बाप-दादा की संपत्ति संभाल रहे हैं, उसे आगे बढ़ा रहे हैं। ये एक खेत का छोटा टुकड़ा भी हो सकता है, करोड़ों की टर्नओवर वाली कंपनी भी। बाप-दादा ने उसे अपनी बचत से खड़ा किया था लेकिन, शहरी चकाचौंध में रहने वाले सामान्य मिडिल क्लास को अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए ही कर्ज लेना पड़ता है। कुछ की स्थिति तो ऐसी है कि एक कर्ज चुकाने के लिए दूसरा कर्ज लेने की नौबत आ जाती है। इस स्थिति को अगर देश के लिहाज से देखें तो दुनिया में जापान जैसा देश भी है। जिन्होंने कर्ज के दम पर अपने मुल्क की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाया। जापान पर कर्ज उसकी जीडीपी का ढाई सौ फीसदी से ज्यादा है। वहीं, सूडान जैसे देश भी हैं, जो कर्ज बोझ तले त्राहिमाम कर रहे हैं। दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति अमेरिका पर भी कर्ज उसकी जीडीपी की तुलना में 133 फीसदी अधिक है तो भारत पर कर्ज जीडीपी का करीब 90 फीसदी है। हमारे देश में सरकार की ओर से खर्च होने वाले हर एक रुपये में से 20 पैसा कर्ज चुकाने में खर्च होता है, दूसरे जरूरी खर्चे भी कम करना संभव नहीं है। ऐसे में सरकार हो, कंपनी हो या फिर मिडिल क्लास सभी अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए कर्ज लेने में राहत महसूस कर रहे हैं । लेकिन, बचत की जगह बुनियादी जरूरतों के लिए कर्ज खोरी की संस्कृति न किसी व्यक्ति के भविष्य के लिए अच्छी है न किसी कंपनी के लिए न देश के बैंकिंग सेक्टर के लिए न ही किसी देश के भविष्य के लिए। कमाई में भी बहुत असमानता किसी भी सामाजिक ताने-बाने के लिए शुभ संकेत नहीं है।
रिसर्च-स्क्रिप्ट: विजय शंकर
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