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क्या बेईमानी से ‘शरीफ’ की सरकार बनाने का हो रहा है खेल?

Bharat Ek Soch: बड़ा सवाल- यदि नवाज शरीफ प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ भी जाते हैं तो सरकार कितने दिन चलेगी?

भारत एक सोच
Bharat Ek Soch: पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अक्सर कहा करते थे कि दोस्त बदले जा सकते हैं, पड़ोसी नहीं। भारत ने हमेशा एक खुशहाल, शांतिपूर्ण और समरस पड़ोस चाहा है। उसके लिए पूरी शिद्दत से काम किया है, लेकिन पाकिस्तान में आए चुनावी नतीजों ने भारत की भी चिंता बढ़ा दी है। पाकिस्तान के लोगों ने जिस तरह का जनादेश दिया है। चुनावों में जिस तरह धांधली की बातें सामने आ रही हैं। सड़कों पर जिस तरह से विरोध प्रदर्शन चल रहा है। वैसी स्थिति में अगर पाकिस्तानी आर्मी अपनी पहले से तय स्क्रिप्ट के मुताबिक गठबंधन सरकार बनवा देती है, नवाज शरीफ को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा देती है तो भी बड़ा सवाल यही रहेगा कि सरकार कितने दिन चलेगी? शरीफ सरकार का कंट्रोल किसके हाथों में रहेगा? बिलावल भुट्टो और आसिफ अली जरदारी की भूमिका क्या होगी? इमरान खान के समर्थक अब क्या करेंगे? वहां की आवाम चुनावी नतीजों को किस तरह ले रही है? सवाल ये भी कि मौजूदा हालात में अमेरिका की पाकिस्तान में इतनी दिलचस्पी क्यों है और पड़ोसी मुल्क में अशांति का भारत पर किस तरह असर पड़ सकता है? ऐसे ही सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे- अपने खास कार्यक्रम पाकिस्तान...इधर कुआं, उधर खाई में।

चुनाव में जीत किसकी हुई?

दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में राजनीति के बड़े-बड़े पंडित और कूटनीतिज्ञ पाकिस्तान में हुए चुनाव और उसके नतीजों के मायने निकालने की कोशिश कर रहे हैं। पहला सवाल तो यही है कि चुनाव में जीत किसकी हुई। इमरान खान की, नवाज शरीफ की, बिलावल भुट्टो की या फिर सेना की। इमरान खान जेल में बंद हैं। चुनाव से पहले उनकी पार्टी PTI का इलेक्शन सिंबल जब्त कर लिया गया था। इमरान समर्थक उम्मीदवार निर्दलीय चुनावी अखाड़े में उतरे और सबसे ज्यादा सीटें जीतने में कामयाब रहे। PTI नेताओं का दावा है कि धांधली कर जीत को हार में बदलने का खुला खेल हुआ है, लेकिन निर्दलीय कोई पार्टी नहीं हैं। ऐसे में सबसे बड़ी जीत नवाज शरीफ की पार्टी की मानी जा रही है, जो खुद दो सीटों से चुनावी अखाड़े में उतरे थे, लेकिन सिर्फ एक सीट से ही चुनाव जीत पाए। उसमें भी आरोप लग रहा है कि सेना ने बैलट बदले तब जाकर नवाज शरीफ रेस में आए। इसके बाद बिलावल भुट्टो की पीपीपी का नंबर आता है। इस चुनाव में सबसे खास बात ये रही कि पाकिस्तानी आवाम ने कट्टरपंथियों को पूरी तरह से खारिज कर दिया। आतंकी हाफिज सईद का बेटा तल्हा सईद बुरी तरह से चुनाव हारा तो जमीयत उलेमा के फजल-उर-रहमान भी चुनाव हार गए। अब पाकिस्तान में गठबंधन सरकार बनाने की कोशिश चल रही है। मीटिंग पर मीटिंग हो रही है, जिसमें असली खिलाड़ी सेना और बाकी मोहरे की तरह इस्तेमाल हो रहे हैं। PPP और PML-N यानी आसिफ अली जरदारी और नवाज शरीफ के बीच साझा सरकार बनाने पर सहमति बन चुकी है। ऐसे में सबसे पहले समझते हैं कि पाकिस्तान में कौन सी खिचड़ी पक रही है।

निर्दलीय उम्मीदवारों के पास क्या विकल्प है?

पाकिस्तान में वो हुआ- जो वहां के आर्मी चीफ जनरल आसिम मुनीर ने नहीं सोचा था। पाकिस्तान में वो हुआ- जिसके बारे में नवाज शरीफ ने कल्पना नहीं की थी । पाकिस्तान में वो हुआ – जो बिलावल और जरदारी ने नहीं सोचा था। चुनाव में निर्दलीय इतनी बड़ी ताकत बन जाएंगे, इसका अंदाजा किसी को नहीं रहा होगा। खुद शायद जेल में बंद इमरान खान को भी नहीं। अब मंथन ये हो रहा है कि इमरान समर्थक निर्दलीय उम्मीदवारों के पास क्या विकल्प है? अगर पाकिस्तान के इतिहास को पलटा जाए तो साल 1985 के चुनावों में भी ऐसी स्थिति पैदा हुई थी। तब जनरल जिया-उल-हक ने सभी राजनीतिक दलों पर प्रतिबंध लगा दिया था। ऐसे में उम्मीदवार निर्दलीय ही चुनावी अखाड़े में उतरे। बाद में सभी विजेता उम्मीदवारों ने पाकिस्तान मुस्लिम लीग की छतरी तले सरकार बनाई। अब सवाल उठता है कि इस बार जब निर्दलीय सबसे बड़ी ताकत हैं तो क्या होगा? पाकिस्तानी मीडिया के मुताबिक, चुनाव जीतने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों के सबसे बड़े नेता जेल में हैं। उन्हें कंट्रोल और गाइड करनेवाला कोई नहीं है। ऐसे में भीतरखाने खबर है कि इमरान समर्थक निर्दलीय उम्मीदवारों के बिखरने यानी किसी न किसी राजनीतिक दल में शामिल होने के चांस ज्यादा हैं। https://youtube.com/live/TPmJY_QWgDQ?feature=share

पीपीपी में भी दो सुर निकलने लगे

भीतरखाने खबर ये भी है कि जिस तरह से इमरान खान को समर्थन मिला है, उसके बाद पीपीपी में भी दो सुर निकलने लगे। वो भी बाप-बेटे के भीतर। युवा बिलावल भुट्टो की सोच है कि विपक्ष में बैठना फायदे का सौदा होगा क्योंकि गठबंधन सरकार के लंबा चलने के चांस कम हैं। वहीं, आसिफ अली जरदारी की सोच है कि सरकार में रहना और पाकिस्तानी सिस्टम के हिसाब से कदम-ताल करना ही फायदे का सौदा है। दरअसल, बिलावल भुट्टो को लगता है कि पाकिस्तान में सिस्टम से नाराज चल रहे युवाओं को अपने साथ जोड़ा जा सकता है, जो अभी इमरान खान के साथ खड़े दिख रहे हैं, लेकिन इसके लिए सत्ता का त्याग करना होगा तो जरदारी के दिमाग में कहीं-न-कहीं पाकिस्तान का पुराना अतीत भी चल रहा होगा। अब सवाल उठता है कि पाकिस्तान में प्रधानमंत्री की कुर्सी पर चाहे जो भी बैठे-असली कंट्रोल किसके हाथों में होगा? अमेरिका पाकिस्तान में किस तरह की सरकार चाहता है?

अमेरिका का वर्चस्व पूरी दुनिया में कम हुआ 

अमेरिका चाहेगा कि पाकिस्तान में एक ऐसी सरकार रहे, जिसमें लोकतंत्र का मुखौटा हो और असली शक्तियां आर्मी के हाथों में रहे। जिससे अमेरिकी तंत्र रावलपिंडी में बैठे आर्मी जनरलों और वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई के साथ मिलकर आसानी से दक्षिण एशिया में प्रभाव को बढ़ा सकें। इमरान खान अपने दौर में पाकिस्तान को चीन के करीब और अमेरिका से दूर ले गए। खुद को सत्ता से बेदखल किए जाने का आरोप भी इमरान ने अमेरिका पर ही मढ़ा था। आज की तारीख में अमेरिका का वर्चस्व पूरी दुनिया में कम हुआ है। मुस्लिम वर्ल्ड में अमेरिका की पैठ कम हुई है और ईरान एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरा है । ऐसे में अमेरिका भीतर ही भीतर चाहेगा कि पाकिस्तान की मदद से ईरान को कंट्रोल में किया जाए। पाकिस्तान में कमजोर पड़ चुके कट्टरपंथियों को भी भीतरखाने मदद देने का विदेशी खेल फिर से शुरू हो सकता है। भारत के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात ये है कि अगर पड़ोस में आग लगेगी या गृहयुद्ध जैसे हालात होंगे तो उसका असर पड़ना तय है।

एक ओर कुआं और दूसरी ओर खाई

अभी पाकिस्तान में जिस स्क्रिप्ट पर काम चल रहा है- उसमें इस्लामाबाद में जो भी सरकार बनेगी। जो भी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठेगा। उसके पास निर्णय लेने की कोई शक्ति नहीं होगी। भले ही बातचीत की टेबल पर तथाकथित चुनी सरकार के मंत्री बैठेंगे, लेकिन शब्द होंगे रावलपिंडी आर्मी हेडक्वार्टर में बैठने वाले जनरलों के, पाकिस्तान के आर्मी जनरल किसकी सुनेंगे, जो पैसा देगा। अभी पाकिस्तान को पैसा की बहुत जरूरत है। ये भी बहुत हद तक संभव है कि इमरान खान के समर्थन और विरोध के नाम पर पाकिस्तानी आर्मी में दो फाड़ हो जाए। ये भी संभव है कि जनरल आसिम मुनीर के दिमाग में कोई बड़ी योजना चल रही हो, जिसे अगले कुछ महीने में वो अमलीजामा पहनाने वाले हों। इतिहास गवाह रहा है कि 1971 में जब लोगों के फैसले के उलट पाकिस्तान में हुकूमत बनी, तो मुल्क के दो टुकड़े हुए। बांग्लादेश एक अलग मुल्क के रूप में वजूद में आया। पड़ोसी पाकिस्तान एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है- जहां एक ओर कुआं और दूसरी ओर खाई वाली स्थिति दिख रही है। ये भी पढ़ें: ‘मिशन 400+’ में कहां फूल-कहां कांटे, दक्षिण की हवा पानी में क्यों नहीं खिल रहा कमल?  ये भी पढ़ें: अयोध्या विवाद में कैसे दर्ज हुआ पहला मुकदमा, आधी रात को मूर्तियों के प्रकट होने की क्या है कहानी?  ये भी पढ़ें: मुगलों के आने के बाद कितनी बदली श्रीराम की नगरी, अकबर ने क्यों चलवाईं राम-सीता की तस्वीर वाली मुहरें?  ये भी पढ़ें: अयोध्या कैसे बनी दुनिया के लोकतंत्र की जननी, किसने रखी सरयू किनारे इसकी बुनियाद?  ये भी पढ़ें: क्या एटम बम से ज्यादा खतरनाक बन चुका है AI? ये भी पढ़ें: पूर्व प्रधानमंत्री Indira Gandhi ने कैसे किया ‘भारतीय कूटनीति’ को मजबूत? ये भी पढ़ें: पाकिस्तान पर भारत की ऐतिहासिक जीत की राह किसने आसान बनाई? ये भी पढ़ें: 1971 में प्रधानमंत्री को आर्मी चीफ ने क्यों कहा- अभी नहीं! ये भी पढ़ें: भारत को एकजुट रखने का संविधान सभा ने कैसे निकाला रास्ता?


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