Bharat Ek Soch : कहते हैं कि राजनीति में रिश्तों का कोई आकार-प्रकार नहीं होता, वो बिल्कुल पानी की तरह होते हैं। जिस तरह पानी बर्तन के हिसाब से आकार लेता है, उसी तरह राजनीति में रिश्ता हालात के मुताबिक परिभाषित होता है। दरअसल, एक सवाल उठ रहा है कि महाराष्ट्र में महायुति का रिश्ता कब तक चलेगा? मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने बिना किसी गैप के उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली। ऐसे में उनका मन खट्टा नहीं हुआ हो, ये संभव नहीं। अजित पवार को भी डिप्टी सीएम पद की शपथ दिलाई गई। ऐसे में फडणवीस, शिंदे और अजीत पवार के बीच किस तरह का रिश्ता रहेगा और ये रिश्ता कितनी दूर जाएगा? एक सवाल ये भी है कि फडणवीस की ताजपोशी के दौरान जिस तरह बिजनेस टायकून से लेकर ग्लैमर की दुनिया के दिग्गज जमा हुआ, उसके जरिए क्या संदेश देने की कोशिश हुई।
सवाल इंडिया गठबंधन साझीदारों के बीच रिश्तों पर भी उठ रहे हैं। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच ये कैसा रिश्ता है कि संसद में कांग्रेस के मुद्दे के साथ सपा खड़ी नहीं दिखती और सपा के मुद्दे के साथ कांग्रेस नहीं। लोकसभा के भीतर नई सीटिंग व्यवस्था ने भी विपक्षी नेताओं की आपसी दूरियां बढ़ा दी है। अब राहुल गांधी और अखिलेश यादव लोकसभा में अलग-बगल की सीटों पर बैठे मुस्कुराते नहीं दिखेंगे। कहने को इंडिया गठबंधन की छतरी तले खड़े घटक दल बीजेपी को रोकने की बातें तो करते हैं, लेकिन मामूली नफा-नुकसान का हिसाब लगाते हुए रास्ता बदलने में भी देर नहीं लगाते। ऐसे में समझने की कोशिश करेंगे कि मौजूदा राजनीतिक माहौल में NDA के भीतर रिश्ते किस तरह परिभाषित हो रहे हैं? क्या महाराष्ट्र पॉलिटिक्स में जल्द कोई चौंकाने वाली खबर आ सकती है? राहुल गांधी और अखिलेश यादव के बीच किस तरह का रिश्ता है? कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच किस तरह की केमेस्ट्री काम कर रही है? बिहार चुनाव में आरजेडी और कांग्रेस के बीच गठबंधन की गांठ मजबूत होंगी या खुलेगी?
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जानें महाराष्ट्र में महायुति की क्या स्थिति है?
राजनीति अनिश्चितता और संभावनाओं का खेल है। ऐसे में सबसे पहले महाराष्ट्र से शुरुआत करते हैं। वहां विधानसभा चुनावों में महायुति गठबंधन को प्रचंड जीत मिली। चुनावी नतीजों के 13वें दिन मुख्यमंत्री के रूप में देवेंद्र फडणवीस ने शपथ ली, उपमुख्यमंत्री के तौर पर एकनाथ शिंदे और अजित पवार भी सरकार में शामिल हुए। लेकिन, जिस तरह मुख्यमंत्री पद को लेकर भीतरखाने खींचतान हुई, उससे एक बात तो साफ है कि गठबंधन में जोर-आजमाइश की कोशिश चलती रहेगी। ऐसे में सवाल ये भी उठ रहा है कि क्या फडणवीस किसी तरह के दबाव में आएंगे या एकनाथ शिंदे और अजित पवार उन पर दबाव बना पाएंगे? इस सवाल के जवाब में महाराष्ट्र की भविष्य की राजनीति की तस्वीर दिख रही है। ऐसे में दूर की सोच रखने वाले फडणवीस जरूर हिसाब लगा रहे होंगे कि महाराष्ट्र में भविष्य में बीजेपी के लिए कौन चुनौती बन सकता है? कभी उद्धव ठाकरे के साथ भी उनकी केमेस्ट्री अच्छी रही है।
क्या उद्धव ठाकरे को साध रही BJP?
मुख्यमंत्री बनने के बाद दिए एक इंटरव्यू में फडणवीस ने कहा कि उद्धव ठाकरे को मैंने खुद शपथ ग्रहण समारोह में आने का न्योता दिया था। कुछ मजबूरी रही होगी कि वो नहीं पहुंचे। लेकिन, उन्होंने मुझे शुभकामनाएं दीं। फडणवीस ने यहां तक कहा कि मैं विपक्ष का उसकी संख्या के आधार पर आंकलन नहीं करूंगा, जो सही बात होगी, उसे मानने की कोशिश करूंगा। इससे महाराष्ट्र में भविष्य में तीन तरह की तस्वीर उभरने के संकेत मिल रहे हैं। पहली तस्वीर- फडणवीस और उद्धव ठाकरे के बीच केमेस्ट्री बन सकती है। अगर ऐसा कुछ भी होता है- तो एकनाथ शिंदे अलग रास्ता ले सकते हैं। शिंदे के आउट होने पर उद्धव ठाकरे की एंट्री हो सकती है। दूसरी तस्वीर- शरद पवार को तवज्जो मिलने पर अजित पवार बिदक सकते हैं। तीसरी तस्वीर- बीजेपी खुद नहीं चाहेगी कि पब्लिक के बीच ऐसा संदेश जाए कि वो गठबंधन साझीदारों को इस्तेमाल कर किनारे लगा देती है। लेकिन, ऐसी स्थिति जरूर पैदा की जा सकती है- जिसमें गठबंधन साझीदार खुद निकल जाएं। ऐसे में महाराष्ट्र की सियासत में फडणवीस, एकनाथ शिंदे और अजित पवार के बीच रिश्तों को भी समझना जरूरी है। साथ ही कौन एक-दूसरे से क्या चाहता है?
फडणवीस के ऊपर पीएम मोदी का हाथ
आज की तारीख में नरेंद्र मोदी बीजेपी के सबसे बड़े ब्रैंड हैं, उनकी छवि बीजेपी से भी बहुत बड़ी बन चुकी है। 17 सितंबर 2025 को वो अपना 75वां जन्मदिन मना रहे होंगे, उनके रिटायरमेंट पर भी गाहे-बगाहे बहस होती रहती है। लेकिन, पार्टी के कुछ सीनियर नेता यहां तक कह चुके हैं कि बीजेपी 2029 का चुनाव भी नरेंद्र मोदी की अगुवाई में लड़ेगी और प्रचंड बहुमत से चुनाव जीतेगी। मतलब, बीजेपी नेता भविष्यवाणी कर रहे हैं कि मोदी लगातार चौथी बार पीएम पद की शपथ लेंगे। मोदी उम्र को मात देते हुए ऊर्जा से लबरेज हैं और 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के टारगेट सेट किए हुए हैं। ऐसे में बीजेपी में भीतरखाने एक सवाल ये भी उठ रहा होगा कि पार्टी में दूसरी लाइन के नेताओं की फेहरिस्त में कौन-कौन है? पहले बीजेपी में नरेंद्र मोदी के बाद नंबर टू अमित शाह को माना जाता था। उसके बाद योगी आदित्यनाथ का नाम आता था। अब फडणवीस की गिनती भी उसी कतार में होने लगी है। देवेंद्र की पीठ पर नरेंद्र का हाथ माना जा रहा है।
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अटल-आडवाणी के दौर में कई क्षत्रप तैयार हुए
अटल-आडवाणी के दौर की बीजेपी में कई ऐसे क्षत्रप तैयार हुए, जिसका सरकार चलाने का अपना स्टाइल था। जो कुछ मुद्दों पर बहुत मुखर तरीके से आलाकमान के सामने खड़े हो जाते थे। चाहे वो राजस्थान के भैरोसिंह शेखावत रहे हों या वसुंधरा राजे सिंधिया। मध्य प्रदेश में उमा भारती रही हों या फिर यूपी में कल्याण सिंह। छत्तीसगढ़ में रमन सिंह हों या फिर गुजरात में मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी। लेकिन, आज की तारीख में बीजेपी ने जिस तरह के चेहरों को सूबे की कमान सौंपी है- वो केंद्रीय नेतृत्व के सामने अपनी बात भी कितनी गंभीरता से कह पाते होंगे, लोग अपनी कल्पना के हिसाब से उसका अंदाजा लगाते हैं।
मजबूत है बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व
लेकिन, सबसे बड़ी बात ये है कि आज की तारीख में बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व इतना मजबूत है कि एक झटके में मुख्यमंत्री बदल देता है। पूरा मंत्रिमंडल इधर-उधर कर देता है और कहीं से कोई आवाज तक नहीं निकलती। संकट बीजेपी को रोकने का ख्वाब देखने वाले इंडिया गठबंधन में भी है। वहां भी रिश्तों को समझना बहुत मुश्किल है। अंग्रेजी में एक कहावत है My Money is mine but yours is ours यानी जो मेरा है, वो मेरा है, जो आपका है, वो हमारा है। इंडिया गठबंधन भी कुछ इसी तरह से चल रहा है। कहीं ऑपरेशन और कहीं को-ऑपरेशन के लिए जमीन अपनी सहूलियत के हिसाब से तय की जा रही है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एक बांग्ला न्यूज चैनल को इंटरव्यू में कहा कि वह इंडिया ब्लॉक की कमान संभालने के लिए तैयार हैं। उनके इस बयान के बाद इंडिया गठबंधन में अलग-अलग सुर निकलने लगे हैं। कांग्रेस को दीदी का ये तेवर पसंद नहीं आया तो समाजवादी पार्टी ममता के सुर में सुर मिलाने लगी। इसी तरह इंडिया गठबंधन में साझीदार आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच रिश्ता भी बहुत उलझा हुआ है।
दिल्ली चुनाव में त्रिकोणीय मुकाबले की संभावना
अगर दिल्ली चुनाव में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच गठबंधन नहीं हुआ, सभी 70 सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला हुआ। ऐसी स्थिति में बीजेपी के फायदे में रहने के ग्रह-संयोग बन सकते हैं। इसी तरह अगर बिहार में एनडीए की तस्वीर तो बहुत हद तक साफ है। लेकिन, आरजेडी- कांग्रेस में गठबंधन की गांठ मजबूत होगी या खुलेगी इसे लेकर तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। बिहार में बीजेपी दूर की रणनीति के साथ एक-एक कदम आगे बढ़ा रही है। इंडिया गठबंधन की एक बड़ी परीक्षा यूपी में भी होनी है, जहां 2027 फरवरी-मार्च में विधानसभा चुनाव होंगे। लोकसभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 43 पर इंडिया गठबंधन को कामयाबी मिली, जिसमें 37 समाजवादी पार्टी के खाते में गई और 6 कांग्रेस के हिस्से।
यूपी की सियासी पिच पर बैटिंग कर रहे राहुल गांधी
राहुल गांधी रायबरेली और वायनाड दोनों जगह से चुनाव लड़े और जीते। बाद में उन्होंने वायनाड सीट छोड़ दी, अब वो यूपी पर फोकस कर रहे हैं। यूपी की सियासी पिच पर राहुल गांधी की बैटिंग कहीं-न-कहीं भीतरखाने अखिलेश यादव को बेचैन कर रही होगी। शायद, यही वजह है कि हाल में हुए उप-चुनाव में सभी उम्मीदवार साइकिल के सिंबल से चुनाव में उतरे। संभल मुद्दे पर भी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच सुर अलग दिखे तो संसद में सीटिंग अरेंजमेंट ने भी भीतरखाने कांग्रेस और सपा के बीच शक-सुबहा की गुंजाइश छोड़ दी है। अब लोकसभा में राहुल गांधी और अखिलेश यादव अगल-बगल की सीटों पर नहीं दूर-दूर दिखेंगे। ऐसे एक सवाल ये भी उठ रहा है कि नए सीटिंग अरेंजमेंट के जरिए कहीं विपक्षी एकता को कमजोर करने की स्क्रिप्ट तो आगे नहीं बढ़ाई गई है?
राजनीति में भी ना तो कोई स्थाई दोस्त होता और ना दुश्मन
कूटनीति ही नहीं राजनीति में भी ना तो कोई स्थाई दोस्त होता और ना दुश्मन। इंडिया गठबंधन की छतरी तले खड़े घटक दलों को लगा कि शायद वो मिलकर बीजेपी को रोक देंगे, इसलिए सब साथ आए। हालात ने उन्हें हाथ मिलाने पर मजबूर किया, लेकिन दिल नहीं मिले। इंडिया गठबंधन के नेता अपनी निजी महत्वाकांक्षा को किनारे नहीं रख पाए। यही वजह है कि इंडिया गठबंधन के घटक दलों में कभी समन्वय तो कभी संघर्ष दोनों साथ-साथ चलता रहता है। हमेशा हेडलाइंस में रहना और चर्चा के केंद्र में रहना भी नेताओं का एक बड़ा हुनर होता है। इस रेस में भी कई बार रिश्ते प्रभावित होते हैं।
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ओवर कॉन्फिडेंस की वजह से बीजेपी को नुकसान
लोकसभा चुनाव में ओवर कॉन्फिडेंस की वजह से बीजेपी को नुकसान हुआ, लेकिन बीजेपी रणनीतिकारों ने अपनी गलतियों से सीखा और हरियाणा जैसे राज्य में भी अपनी सरकार बचा ली। महाराष्ट्र में सबको साधते हुए बीजेपी ने चौंकाने वाली कामयाबी हासिल की। लेकिन, चुनावी नतीजों में हार के बाद भी कांग्रेस ने अपनी कमियों को दुरुस्त करने के लिए कोई ठोस काम नहीं किया। इसका नतीजा ये निकला कि आज कई राज्यों में कांग्रेस को क्षेत्रीय पार्टियों की शर्तों पर गठबंधन में सीटों के लिए तालमेल करना पड़ रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत विपक्ष नहीं होने का फायदा पूरी तरह से बीजेपी उठा रही है- जिसमें विरोधी आपस में लड़ रहे हैं और बीजेपी लगातार अपनी ताकत बढ़ाने में लगी है। सत्ता हासिल करने और राजनीतिक जमीन के विस्तार की कोशिश में रिश्ते कालचक्र के हिसाब से परिभाषित हो रहे हैं। ऐसे में आज जो विरोध में खड़ा दिख रहा है- वो कल साथ दिखे तो हैरानी नहीं होनी चाहिए, जो साथ दिख रहा है, वो कल विरोध में खड़ा दिखे तो कई बड़ी बात नहीं।