Jitiya Vrat 2022: आज जितिया व्रत है। आज व्रत का पहला दिन यानी आए नहाए खाए है। अश्विन महीने के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को जीवित्पुत्रिका (Jivitputrika Vrat) मनाया जाता है। इसे जिउतिया या जितिया व्रत भी कहा जाता है। इस दिन माताएं अपने बच्चों की लंबी उम्र, सेहत और सुखमयी जीवन के लिए व्रत रखती हैं।
तीज की तरह यह व्रत भी बिना आहार और निर्जला किया जाता है। छठ पर्व की तरह जितिया व्रत पर भी नहाय-खाय की परंपरा होती है। यह पर्व तीन दिन तक मनाया जाता है। सप्तमी तिथि को नहाय-खाय के बाद अष्टमी तिथि को महिलाएं बच्चों की समृद्धि और उन्नत के लिए निर्जला व्रत रखती हैं। इसके बाद नवमी तिथि यानी अगले दिन व्रत का पारण किया जाता है यानी व्रत खोला जाता है।
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जो महिलाएं इस व्रत को रखती हैं उनके बच्चों के जीवन में सुख शांति बनी रहती है और उन्हें संतान वियोग नहीं सहना पड़ता है। इस दिन महिलाएं पितृों का पूजन कर उनकी लंबी आयु की भी कामना करती हैं। इस व्रत को करते समय केवल सूर्योदय से पहले ही खाया-पिया जाता है। सूर्योदय के बाद पानी भी नहीं पी सकते हैं।
मान्यता है यह व्रत तब तक पूर्ण नहीं माना जाता जब तक इसकी व्रत कथा ना पढ़ी या सुनी जाए। इसलिए आज हम आपको यहां जितिया व्रत की पौराणिक व्रत कथा और मान्यता बताने जा रहे हैं।
जितिया व्रत कथा (Jitiya Vrat Katha)
एक समय की बात है नर्मदा नदी के पास कंचनबटी नामक एक नगर था। उस नगर के राजा का नाम मलयकेतु था। नर्मदा नदी के पश्चिम में बालुहटा नाम की मरुभूमि थी, जिसमें एक विशाल पाकड़ के पेड़ पर एक चील रहती थी। उसे पेड़ के नीचे एक सियारिन भी रहती थी। दोनों पक्की सहेलियां थीं। दोनों ने कुछ महिलाओं को देखकर जितिया व्रत करने का संकल्प लिया और दोनों ने भगवान श्री जीऊतवाहन की पूजा और व्रत करने का प्रण ले लिया। लेकिन जिस दिन दोनों को व्रत रखना था, उसी दिन शहर के एक बड़े व्यापारी की मृत्यु हो गई और उसका दाह संस्कार उसी मरुस्थल पर किया गया।
सियारिन को अब भूख लगने लगी थी। मुर्दा देखकर वह खुद को रोक न सकी और उसका व्रत टूट गया। पर चील ने संयम रखा और नियम व श्रद्धा से अगले दिन व्रत का पारण किया। फिर अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने ब्राह्मण परिवार में पुत्री के रूप में जन्म लिया। उनके पिता का नाम भास्कर था। चील, बड़ी बहन बनी और उसका नाम शीलवती रखा गया। शीलवती की शादी बुद्धिसेन के साथ हुई। सियारन, छोटी बहन के रूप में जन्मी और उसका नाम कपुरावती रखा गया। उसकी शादी उस नगर के राजा मलायकेतु से हुई। अब कपुरावती कंचनबटी नगर की रानी बन गई।
भगवान जीऊतवाहन के आशीर्वाद से शीलवती के सात बेटे हुए। पर कपुरावती के सभी बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे। कुछ समय बाद शीलवती के सातों पुत्र बड़े हो गए। वे सभी राजा के दरबार में काम करने लगे। कपुरावती के मन में उन्हें देख इर्ष्या की भावना आ गयी। उसने राजा से कहकर सभी बेटों के सर काट दिए। उन्हें सात नए बर्तन मंगवाकर उसमें रख दिया और लाल कपड़े से ढककर शीलवती के पास भिजवा दिया।
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यह देख भगवान जीऊतवाहन ने मिट्टी से सातों भाइयों के सर बनाए और सभी के सिर को उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया। इससे उनमें जान आ गई। सातों युवक जिंदा हो गए और घर लौट आए। जो कटे सर रानी ने भेजे थे वे फल बन गए। दूसरी ओर रानी कपुरावती, बुद्धिसेन के घर से सूचना पाने को व्याकुल थी। जब काफी देर सूचना नहीं आई तो कपुरावती स्वयं बड़ी बहन के घर गयी। वहां सबको जिंदा देखकर वह सन्न रह गयी और बेहोश हो गई। जब उसे होश आया तो बहन को उसने सारी बात बताई। अब उसे अपनी गलती पर पछतावा हो रहा था।
भगवान जीऊतवाहन की कृपा से शीलवती को पूर्व जन्म की बातें याद आ गईं। वह कपुरावती को लेकर उसी पाकड़ के पेड़ के पास गयी और उसे सारी बातें बताईं। कपुरावती बेहोश हो गई और मर गई। जब राजा को इसकी खबर मिली तो उन्होंने उसी जगह पर जाकर पाकड़ के पेड़ के नीचे कपुरावती का दाह-संस्कार कर दिया।
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