बिहार में युवा लेखक के रूप में पहचान बनाने वाले शेखपुरा ज़िला के निवासी सय्यद अमजद हुसैन से हमारी बात-चीत के दौरान उन्होंने बताया की बिहार में सूफ़ी बुजुर्गों की कमी हैं नहीं, और उन्मे से ज़्यादातर उर्दू या अरबी के शायर और लेखक भी हुआ करते थे।
“आज के दौर में उर्दू भाषा का चलन ख़त्म होता जा रहा है, जहां इसे लोग एक धर्म विशेष का भाषा कहने लगे हैं। जबकि भाषा का कोई धर्म नहीं होता, उर्दू को तहज़ीब की ज़बान का ओनवान हासिल है। हम सभी को उर्दू शब्दों का इस्तेमाल करना चाहिए।”
सय्यद अमजद हुसैन ने हाल ही में चेन्नई की नोशन प्रेस द्वारा अपनी पहली पुस्तक अख़्तर ओरेनवी: बिहार में उर्दू साहित्य के निर्माता का प्रकाशन किया था। जिस पुस्तक की बिक्री काफ़ी हुई।
अमजद का कहना है “आज के दौर में लोग किताब से मुँह मोड़ने लगे हैं, लोग अपना समय मोबाइल में ही ज़्यादा दे रहे हैं ऐसे में ई-बुक का चलन सही है।”
बिहार में सूफ़ी बुजुर्ग मख़्दूम-उल-मुल्क बिहारी शरफुद्दीन यहया मनेरी जैसे गुज़रे हैं जिनके सदके बिहार राज्य के एक क़स्बे का नाम ही बिहार शरीफ रखा गया था।
अमजद बताते हैं “हिंदुस्तान और बिहार में सूफ़ी बुजुर्गों का इतिहास बहुत गहरा रहा है। जहां आज उनके दरगाहों पर धार्मिक मेल देखने को मिलता है, जिस तरह वहाँ मेल है एक भाषा बोलने पर भी मेल होना चाहिये”
Edited By