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हम जिस दुनिया में रहते हैं, वहां स्पेस के 3 ‘डाइमेंशन्स’; पढ़ें आइंस्टी की ‘थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी’ 

डॉ. आशीष कुमार What is Time? PART-1: समय क्या है? ये शायद साइंस का सबसे चैलेंजिंग टॉपिक हैं जो सच्चाई के बारे में हमारी सबसे बुनियादी सोच पर ही सवाल खड़े करता है। आइंस्टीन, हॉकिन्स, न्यूटन जैसे बड़े-बड़े वैज्ञानिकों ने समय को लेकर अपने सिद्धांत दिए हैं। आज भी समय के अस्तित्व और प्रभाव को […]

डॉ. आशीष कुमार What is Time? PART-1: समय क्या है? ये शायद साइंस का सबसे चैलेंजिंग टॉपिक हैं जो सच्चाई के बारे में हमारी सबसे बुनियादी सोच पर ही सवाल खड़े करता है। आइंस्टीन, हॉकिन्स, न्यूटन जैसे बड़े-बड़े वैज्ञानिकों ने समय को लेकर अपने सिद्धांत दिए हैं। आज भी समय के अस्तित्व और प्रभाव को लेकर वैज्ञानिक बिरादरी किसी एक नतीजे पर नहीं पहुंचती है। ‘समय’ पर काम करने वाले कुछ विद्वान समय के अस्तित्व को ही नहीं स्वीकार करते हैं वे समय को सापेक्ष अनुभव के रूप में देखते हैं तो कुछ समय को एक अलग आयाम के रूप में मानते हैं, सभी के अपने मजबूत तर्क हैं।

समय हमारे चारों ओर है। मगर सवाल यह है कि क्या वो वही है जो हम समझते हैं? समय हमेशा आगे बढ़ता हुआ नजर आता। मगर क्या वो पीछे भी जा सकता है? क्या सारी घटनाएं एक के बाद एक होती है या फिर ‘पास्ट,’ ‘प्रेजेंट’ और ‘फ्यूचर’ एक दूसरे के साथ ही रहते हैं?  सवाल यह भी है कि समय ब्रह्मांड का बुनियादी हिस्सा है या फिर समय का असल में वजूद ही नहीं? हम में से ज्यादातर लोग यही मानते हैं कि समय वो नंबर हैं जिनसे हम दिन का हिसाब लगाते हैं। हमारी जिंदगी घड़ी के हिसाब से चलती है। जागने का वक्त, काम पर जाने का समय, सोने का टाइम। हमारा दिन सूरज के हिसाब से चलता था। उसी के हिसाब घंटे और दिन का हिसाब लगाया जाता है। हम अपनी आयु की गणना भी इस हिसाब से लगाते हैं कि पृथ्वी ने अपनी धुरी या सूर्य के कितने चक्कर लगाए। धुरी पर चक्कर लगाने से एक दिन गिन लिया जाता है और सूर्य के चक्कर लगाने से एक वर्ष गिन लिया जाता है। इसके आधार पर कहा जा सकता है कि हमने समय का आंकलन या आभास पृथ्वी की गति के सापेक्ष किया।

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अब सवाल उठना लाजमी है कि क्या इस ब्रह्मांड में वाकई समय का वजूद है? या फिर यह एक ऐसी चीज़ है जो हमने अपने सिविलाइज़ेशन को चलाने के लिए बनाई है? इसका जवाब पाने के लिए हमें खुद से ही एक छोटा सा सवाल पूछना होगा। समय क्या है? आप भी सोचिए। समय को स्वयं समझने की कोशिश कीजिए। यह काम आसान नहीं है। समय किसी भी घटना को अचानक होने से रोकता है। समय दुनिया का वह अहम हिस्सा है जो घटनाओं को यह खास तरीके से अंजाम देता है जिससे वो शुरू से अंत तक एक ‘सिक्वेन्स’ में होती हैं।

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हम न्यूरोसाइंस के मुताबिक यही जानते हैं कि समय वो नहीं है जो हम समझते हैं। समय ऐसी चीज़ नहीं है जो अपने आप हो रही है, बल्कि इससे हम अपने दिमाग में बनाते है और किसी व्यक्ति दिमाग किसी दूसरे व्यक्ति के दिमाग से अलग होता है। हम एक ही घटना को अलग अलग नजरिये से देखते हैं। न्यूरोसाइंस के इस सिद्धांत के अनुसार समय तो होता ही नहीं है। और जो होता है वो असल में दुनिया में हर चीज़ का डिस्ट्रीब्यूशन है जिसे पदार्थ की उपस्थिति का वितरण कहा जा सकता है। इसके मुताबिक कहा जा सकता है कि समय भ्रामक है। समय को किसी मानक पर रिकार्ड करना उसके होने के बारे में एक व्यस्थित भ्रम पैदा करता है।

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न्यूटन ने बताया था कि ब्रह्मांड के पीछे समय लगातार धड़कता रहता है। न्यूटन मानते थे कि ब्रह्मांड एक विशाल खड़ी है, जिसे ईश्वर चला रहे हैं। उनके मुताबिक समय ऐब्सलूट है, वह लगातार चलता रहता है, भले ही ब्रह्मांड में कुछ हो रहा हो या नहीं। लेकिन समय के साथ समस्या यह है कि हम उसके ऐब्सलूट होने का पता नहीं लगा सकते। हम ऐब्सलूट टाइम का पता नहीं लगाते। हम समय को ढूंढ़ते हैं होने वाली घटनाओं के बीच में एक संबंध स्थापित करते हैं। आइंस्टीन ने इस बात पर गौर किया और उन्होंने अपनी ‘थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी’ दी, जिसके मुताबिक समय वो है जो ब्रह्मांड में आने वाले बदलावों से बनता है, वह कुछ और नहीं है। आज भी बहुत से लोग आइजक न्यूटन के ऐब्सलूट टाइम को आइंस्टाइन के रिलेशनल टाइम से ज्यादा सही मानते। मगर जैसे जैसे हम समय के बारे में ज्यादा जानते हैं तो लगता है आइंस्टाइन ही सही थे।

हम जिस दुनिया में रहते हैं, वहां स्पेस के तीन ‘डाइमेंशन्स’ है। आइंस्टाइन ने देखा कि समय भी एक आयाम है। असल में ‘टाइम एंड स्पेस’ एक ही चीज़ है जिसे स्पेस टाइम कहते हैं और वह चार आयाम युक्त है है। हम उसमें ही रहते है, उसमें ही चलते फिरते हैं और हमारी जिंदगी उस में ही बीत जाती है। आइंस्टाइन ने कहा कि स्पेस टाइम में झुकाव संभव है। ब्रह्मांड के अंदर प्लैनेट्स है, ब्लैक होल्स हैं और दूसरे पदार्थ और उर्जा रूप है, वे स्पेस और टाइम को अपने चारों ओर रैप कर लेते है और हम उसे समय के रूप में देखते हैं। असल में स्पेस टाइम का ही रैप होता है, वही टाइम है और स्पेस भी। अगर हम किसी तगड़े ग्रैविटेशनल फील्ड में जाते हैं। तो वहा हमें टाइम का फ्लो आउटर स्पेस के मुकाबले बिल्कुल अलग नजर आता है। इस टाइम के रिलेटिविटी की वजह से कई तरह के असर होते है। जैसे की पृथ्वी पर रहने वालों के मुकाबले के लिए वक्त ज्यादा तेजी से चलता है।

मगर आइंस्टाइन के बताए समय के इस रहस्य के हल ने एक और चुनौती भरा सवाल खड़ा कर दिया। अगर हम अपने आस पास देखें तो ऐसा लगता है कि ब्रह्मांड यही है हमारे सामने। इसका मतलब यह नहीं है कि पास्ट प्रिजेंट और फ्यूचर एक साथ ही मौजूद हैं। फिज़िक्स का कहना है कि समय का हर पल बराबर होता है। उसके हिसाब से हम कह सकते हैं की वो सब साथ में है वो सब हमारे सामने है। मगर ये बात वैसी नहीं है जैसा हम समझते हैं। समय का हर पल स्पेस में अलग-अलग जगह पर अलग-अलग व्यवहार करता है।

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हम अपने पास्ट के पलों में नहीं जा सकते, इस वक्त फ्यूचर के बारे में कुछ नहीं कह सकते। दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जो समय के घेरे में नहीं फंसे बल्कि समय शायद हमारे दिमाग में घर कर गया है। क्या समय ब्रह्मांड के पीछे लगातार चलता जा रहा है?या समय बदलता रहता है। हमारी उम्र जितनी बढ़ती है समय की धारा हमें अपने साथ उतनी ही तेजी से बहा ले जाती है। उम्र बढ़ती है तो समय के साथ हमारे रिश्ते भी बदलते रहते है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि टाइम हमारे बायोलॉजिकल और साइकोलॉजिकल स्टेटस पर निर्भर करता है। बहुत से लोग अपनी अलार्म घड़ी बजने से पहले ही जाग जाते हैं, क्योंकि उनके शरीर की सरकेडियन रिदम उनके शरीर के सिग्नल्स के साथ घूमती है और वो उन्हें बता देती है कि जागने का वक्त हो गया है और इंसान जाग जाता है। समय के बारे में हमारी सोच तो सेन्सरी डिप्रिवेशन ओवर स्टिम्युलेशन और कॉन्शसनेस के आधार पर काम करती है। मिसाल के तौर पर नशा करने के बाद इंसान को कई बार समय के बारे सही अनुमान नहीं हो पाता है। वे नशे में ये आंकलन भी कर पाते हैं कि की वे एक स्थान पर कब से खड़े हैं, और कब से खड़े हैं। उनके लिए वक्त शायद बहुत धीरे धीरे चलता है मगर ये सही नहीं है की वक्त धीमे चलता है, बल्कि वे इस बात को याद नहीं रख पाते कि वो उस जगह पर कब आये थे। उनके याद नहीं रख पाने की वजह से उन्हें लगता है कि वो काफी देर से उस जगह पर खड़ा है।

अगर आप कभी ऐक्सिडेंट का शिकार हुए होंगे तो आपने शायद यह भी महसूस किया हो कि वह घटना आपके सामने स्लो मोशन में घूम रही है। मगर आपको बातें याद आती है जबकि नशे में धुत इंसान को नहीं आती। यह भी टाइम अनुभव का एक उदाहरण है। जब ऐसी कोई इंटेन्स घटना हमारे साथ होती है, तब हमारे दिमाग का इमर्जेन्सी कंट्रोल सेंटर हरकत में आ जाता है और उस घटना की बड़ी धुंधली यादें बची रह जाती है। इसी से लगता है कि वो घटना काफी देर तक चली थी। हमारा दिमाग हर वक्त ढेर सारी इन्फॉर्मेशन को प्रोसेसेस और सिंक्रनाइज़ करता रहता है। छोटी मोटी घटनाएं भी।

इसे दूसरे उदाहरण के साथ भी समझा जा सकता है, जब हम चुटकी बजाते हैं तो लगता है कि दोनों उंगलियां एक साथ चल रही हैं। ऐसा लगता है कि हम आवाज के साथ ही उसे देख भी रहे हैं। मगर सच ये है कि हमारा सुनने का सिस्टम कानों से आने वाली इंफॉर्मेशन को काफी तेजी से प्रोसेसर कर लेता है, जबकि हमारे देखने का सिस्टम काफ़ी स्लो होता है। ऐसे में होता यह है कि हमारा दिमाग आवाज सुनता है और हमें चुटकी बजाते देखता है और फिर दोनों को एक साथ मिला देता है।

ये टाइम डिले हमारे दिमाग का वो कारनामा है, जिसमें हमारा दिमाग हमें एक कहानी सुनाता है कि क्या हुआ था। लेकिन जब दिमाग कहानी को ठीक तरह से समझ नहीं पाता तब वक्त के साथ हमारा तालमेल बदल जाता है। हमारा पर्सनल टाइम बाकी सब से अलग हो जाता है और उसके अंजाम भयानक भी हो सकते हैं। समय चाहे जो भी हो, वो हमारे अंदर समाया हुआ है। हम सभी अपनी इंटरनल घड़ी के साथ जुड़े हुए हैं। वैज्ञानिकों का मानना है की अगर कोई इंसान टाइम के फ्लो से ज़रा भी आउट ऑफ सिंक हुए तो उससे काफी सीरियस मेंटल बीमारी हो सकती है। हम नहीं जान पाएंगे कि हमने क्या किया है और क्या नहीं। हमारा पर्सनल टाइम कितना फ्लेक्सिबल हो सकता है यह दिखाने के लिए एक वैज्ञानिक ने एक्सपेरिमेंट किया, जिसमें एक टेस्ट सब्जेक्ट का टाइम परसेप्शन अचानक ही बदल गया। उन्होंने इंसान को एक बटन दबाने को कहा, जिससे रोशनी होती है। इस तरीके में डेले को जोड़ दिया जाता है, तब बटन दबाने के बाद सेकंड के दसवें भाग की देरी से रोशनी होती है। लेकिन इंसान का दिमाग उस डिले का आदि हो जाता है। होता यह है कि बटन दबाने के बाद उसे वो सेन्सरी फीडबैक उम्मीद से थोड़ा स्लो मिलता है। वो उसके साथ एडजस्ट करने लगता है और उसे लगने लगता है कि दोनों काम साथ ही हो रहे हैं।

यही हाल सिज़ोफ्रेनिया में होता है। कोई कुछ करता है और कहता है कि मैंने नहीं किया। समय हर इंसान के लिए अलग होता है। हमारे सब्जेक्टिव टाइम के इस इलास्टिक नेचर की वजह से समय फ़िल्टर की तरह काम करता हुआ महसूस होता है। जब हम उसकी तह में जाने लगते हैं तब हमें असल में पता लगता है कि समय किस तरह से दिमाग में बना है तो हमें फिज़िक्स की ओर लौटना पड़ता है और वहाँ सारे सवालों के जबाव तलाशने का प्रयास किया जाता है।

लेखक असिस्टेंट प्रोफेसर हैं


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