शायरी और वैचारिक रण में ताउम्र खुद को राणा साबित करते रहे मुनव्वर
डॉ. महेश चंद्र धाकड़
'तुम्हें भी नींद सी आने लगी है, थक गए हम भी
चलो हम आज ये किस्सा अधूरा छोड़ देते हैं!'
लगता है अपने इस शेर की तर्ज पर ही मुनव्वर राणा दुनिया से रुखसत कर गए। उर्दू अदब के आला दर्जे के शायरों में शुमार मुनव्वर राणा, अपनी बेबाकी-सफगोई के लिए भी मशहूर रहे। मजहबी और सियासी मुद्दों पर भी बेबाकी से बोलते-लिखते रहे। उनका शेर याद आ रहा है-
'सियासी आदमी की शक्ल तो प्यारी निकलती है,
मगर जब गुप्तगू करता है चिंगारी निकलती है।'
उनके बयान अक्सर चर्चाओं में रहे। एक बार उन्होंने कहा था कि यूपी में योगी की सरकार बनी तो मैं पलायन कर लूंगा। किसान आंदोलन के दौरान कहा, संसद को गिराकर खेत बना दो। फ्रांस के कार्टून विवाद में महिला टीचर की हत्या मामले में भी उनका बयान विवादास्पद था। अयोध्या का मसला हो या तालिबान को लेकर बयान वह विवाद का केंद्र बने। ज्ञानवापी मामले में भी उन्होंने कहा था- वहां एक फव्वारा निकल आया, उसे आप शिवलिंग बता रहे हैं।
बुद्धिजीवी लोगों का मानना है कि एक शुद्ध रचनाकार को विवादास्पद मामलों से हमेशा दूरी बनाकर रखनी चाहिए। इसीलिए एक वर्ग की हिमायत करते रहने से, दूसरा वर्ग उनको शक और नफरत की नज़र से भी देखने लगा था। लेकिन वह आदत से मजबूर रहे, कुल जमा बात यह कि अच्छी शायरी करते हुए भी मुनव्वर अक्सर बयानबाजी से विवादों में घिरते रहे और आलोचना का शिकार होते रहे। साहित्य से जुड़े लोग आज कहते हैं, यह तयशुदा बात है कि अगर मुनव्वर अपनी जुबान पर लगाम लगाए रखते तो उनकी लोकप्रियता का आकाश और भी बड़ा होता।
यूं तो मुनव्वर राणा ने तमाम रचनाओं को रच साहित्य के खजाने को समृद्ध किया लेकिन कविता 'शाहदाबा' के लिए उन्हें वर्ष 2014 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बता दें, 26 नवंबर 1952 में उत्तर प्रदेश के रायबरेली में जन्मे मशहूर शायर मुनव्वर राणा ने 14 जनवरी को लखनऊ में आखिरी सांस ली। वह काफी लंबे वक्त से गुर्दे, शुगर और ब्लड प्रेशर सरीखी बीमारियों से जूझ रहे थे।
उनके परिवार का हिंदुस्तानी लगाव जग जाहिर रहा है, भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के समय बहुत से करीबी रिश्तेदार और परिवार के सदस्य अपना देश हिंदुस्तान छोड़कर पाकिस्तान रवाना हो गए थे। लेकिन तब भयंकर साम्प्रदायिक तनाव के बावजूद मुनव्वर राणा के पिता ने अपने मुल्क हिंदुस्तान में ही रहने का फैसला लिया था।
शायर मुनव्वर राणा का जन्म भले रायबरेली में हुआ था लेकिन उनकी शुरुआती शिक्षा-दीक्षा कलकत्ता में हुई थी। ताउम्र उनका वास्ता हिंदुस्तान और हिंदुस्तानी तहजीब के साथ अपनी देसी विरासत से भी बना रहा था, देखिए अपने ही एक शेर में उन्होंने तेजी से बदलते वक्त के बदलावों की कसक को कुछ यूं महसूस भी करवाया है-
'नए कमरों में अब चीजें पुरानी कौन रखता है,
परिंदों के लिए शहरों में पानी कौन रखता है।'
उनको मां पर लिखी रचनाओं के लिए मंचों पर श्रोताओं का सबसे ज्यादा प्यार और सम्मान मिला। मुझे याद आ रहा है जब वह मंच पर शायरी करने आते थे तो सभागार तालियों की गड़गड़ाहट के साथ उनका स्वागत करता था। उनकी मां पर लिखे एक शेर की गहराई देखिए-
'किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई,
मैं घर में सबसे छोटा था मेरी हिस्से में मां आई।'
इस दुनिया से जाने पर उनको जन्नत मिलेगी, मगर उन्होंने तो जन्नत का एहसास जीते जी ही महसूस कर लिया था, जिसको एक शेर में क्या खूब बयां किया था खुद उन्होंने-
'चलती फिरती हुई आंखों से अज़ां देखी है
मैंने जन्नत तो नहीं देखी है मां देखी है!'
मुनव्वर राणा ने गजलों के अलावा संस्मरण भी लिखे थे। उनकी दर्जनभर से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हुईं, इनमें-घर अकेला हो गया, मां, गजल गांव, पीपल छांव, नीम के फूल, बदन सराय, बगैर नक्शे का मकान, फिर कबीर, नए मौसम के फूल, सब उसके लिए और कहो जिल्ले इलाही से शामिल हैं। उनके लेखन की लोकप्रियता का अनुमान इससे ही लगा सकते हैं कि उनकी रचनाओं का ऊर्दू के इतर कई अन्य भाषाओं में भी अनुवाद हुआ।
मुनव्वर राणा को उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रभाववश कई अहम अवॉर्ड भी मिले थे, मगर इनमें 1993 में रायबरेली में रईस अमरोहवी अवार्ड, 1995 में दिलकुश अवार्ड, 1997 में सलीम जाफरी अवार्ड, 2001 में वेस्ट बंगाल उर्दू अकादमी द्वारा मौलाना अब्दुर रज्जाक मलीहाबादी अवार्ड, 2004 में सरस्वती समाज अवार्ड, इसी साल अदब अवार्ड, 2005 में मीर तकी मीर अवार्ड, इसी साल उदयपुर में गालिब अवार्ड, नई दिल्ली में डॉ. जाकिर हुसैन अवार्ड, कोलकाता में शहूद आलम आफकुई अवार्ड, 2006 में इटावा में अमीर खुसरो अवार्ड और इसी वर्ष इंदौर में कविता का कबीर सम्मान काबिल-ए-गौर हैं।
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