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जानें क्या है ‘One Nation One Election’ बिल? जो संसद के विशेष सत्र में होगा पेश

One Nation One Election: केंद्र सरकार ने 18-22 सितंबर तक संसद का विशेष सत्र बुलाया है। केंद्रीय संसदीय मंत्री प्रहलाद जोशी ने बताया कि सरकार ने 18 से 22 सितंबर तक विशेष सत्र बुलाने का फैसला किया है। भाजपा के सूत्रों की मानें तो सरकार विशेष सत्र में एक राष्ट्र एक चुनाव विधयेक पेश कर […]

One Nation One Election
One Nation One Election: केंद्र सरकार ने 18-22 सितंबर तक संसद का विशेष सत्र बुलाया है। केंद्रीय संसदीय मंत्री प्रहलाद जोशी ने बताया कि सरकार ने 18 से 22 सितंबर तक विशेष सत्र बुलाने का फैसला किया है। भाजपा के सूत्रों की मानें तो सरकार विशेष सत्र में एक राष्ट्र एक चुनाव विधयेक पेश कर सकती है। 2014 में जब से कंेद्र में एनडीए की सरकार सत्ता में आई है तब से यह विषय ऐजेंडे का हिस्सा रहा है। हालांकि इस दौरान पीएम ने कई मौकों पर इस बात का जिक्र किया, लेकिन विपक्षी दलों की उदासीनता के कारण इस विषय पर कोई खास प्रगति नहीं देखी गई। सरकार अगर इस सत्र में एक राष्ट्र एक चुनाव विधेयक पेश करती है तो उसके लिए संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता होगी। इसके लिए सरकार को इस विधयेक को दो तिहाई बहुमत यानि विशेष बहुमत से पारित कराना होगा। इसके अलावा आधे से ज्यादा राज्यों की विधानसभा में भी इस बिल को पारित कराना होगा। लोकसभा में एनडीए के पास 333 सीटें हैं। जबकि राज्यसभा में सरकार के पास 38 फीसदी सीटें ही है। लेकिन बीजेडी और वाईएसआर कांग्रेस के समर्थन से सरकार इस बिल को राज्यसभा से भी पारित करा सकती है।

जानें क्या है एक राष्ट्र एक चुनाव

इसके अनुसार देश की जनता एक ही दिन में राज्य सरकारों और केंद्र सरकारों का चुनाव करेगी। पीएम मोदी कई बार स्पष्ट कर चुके है कि इस प्रकार का सिस्टम अगर लागू हो जाता है तो इससे जनता को बेहतर प्रशासन मिलेगा और चुनाव आयोग को चुनाव संचालन में भी मदद मिलेगी। इसके साथ सरकारी खजाने में भी धन की बड़ी बचत होगी। बता दें कि भारत में 1963 में एक साथ चुनाव होते रहे हैं। हालांकि इस बीच कुछ राज्यों में सरकारें भंग हो जाने के बाद इसे आगे बढ़ाना संभव नहीं हो पाया। इसके अलावा कई राज्यों का निर्माण 1963 के बाद हुआ। वहीं इस दौरान देश में कई गठबंधन सरकारें रही जिससे इस अवधारणा को फिर से लागू करना संभव नहीं हो पाया।

ये है क्षेत्रीय पार्टियों के विरोध की वजह

इस अवधारणा का सबसे ज्यादा विरोध क्षेत्रीय पार्टियों ने किया है। आम आदमी पार्टी, राकांपा, बसपा, सपा, सीपीआई (एम) समेत दक्षिण की अनेक पार्टियां इस बिल के विरोध में हैं। क्षेत्रीय दलों का तर्क इस नई चुनावी व्यवस्था से हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। वहीं राष्ट्रीय दलों को अनुचित लाभ मिल सकता है। इसके अलावा उनका तर्क है कि अगर केंद्र सरकार गिरती है तो राज्य की विधानसभाओं का क्या होगा? एक रिपोर्ट के अनुसार केंद्र सरकार ने 2019 के लोकसभा चुनाव में 9 हजार करोड़ रुपए खर्च किए। वहीं 2014 में 4,500 करोड़ रुपए का खर्च आया था। जबकि राज्यों का चुनाव खर्च 250 से 500 करोड़ के बीच रहा। हालांकि आलोचक ईवीएम खरीदी को लेकर होने वाले खर्च को लेकर भी सवाल उठा रहे हैं।


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