Mrs Chatterjee vs Norwegian Review: जब देबिका स्तनों से दूध निकालकर पैकेट्स में पैक करती है… तो दिल पिघलने लगता है
Mrs Chatterjee vs Norwegian Review: अश्विनी कुमार. विदेश जाकर नई और बेहतर ज़िंदगी जीने की चाहत, बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में डॉलर और पॉन्ड्स में होने वाली कमाई और फिर वहां की सिटीजनशिप पाने का लालच... ये कोई अनजानी सी बातें नहीं हैं। हम सब, अपने आस-पास ये रोज़ ही होते हुए देखते हैं। इसके पीछे की नीयत होती है कि बच्चों को बेहतर पढ़ाई, बेहतर भविष्य मिले, मगर मिसेज चटर्जी वर्सेज़ नार्वे (Mrs Chatterjee vs Norwegian) देखने के बाद, विदेशों का ये भरम किसी तिलिस्म की तरह टूटने वाला है।
फिक्शनल नहीं, एक सच्ची कहानी
हालिया रिलीज इस फिल्म की सबसे बड़ी बात ये है कि ये कोई फिक्शनल नहीं, बल्कि एक सच्ची कहानी है। जिस सागरिका भट्टाचार्या की ज़िंदगी की ये कहानी है, वो अपने दोनों बच्चों के साथ अब भारत में ही हैं। दोनों को अच्छी परवरिश दे रही हैं। यकीन मानिए, जब ये फिल्म ख़त्म होती है, तो आपको झटका लगता है कि जो कुछ आपने फिल्म में देखा, वो बिल्कुल सच है।
2011 में नार्वे की इस कहानी ने पूरे भारत को हिला दिया था। भारत के सागरिका और अनूप भट्टाचार्या पर नार्वे की चाइल्ड वेलफेयर सर्विस ने गलत तरह से बच्चों की परवरिश का इल्ज़ाम लगाते हुए, उनके दोनों बच्चों को फॉस्टर केयर में डाल दिया था। जिसकी लड़ाई सागरिका ने सालों तक लड़ी और फिर अपने बच्चों को वापस हासिल किया।
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मिसेज़ चटर्जी के लिए बजाएंगे तालियां
मिसेज़ चटर्जी वर्सेज़ नार्वे की कहानी के साथ ख़तरा यही था कि पहले से जानी-पहचानी कहानी को फिल्म के तौर पर पेश कैसे किया जाएगा। मगर आशिमा के साथ समीर और राहुल ने मिलकर इस कहानी को ऐसे पेश किया है कि आप सिहर उठेंगे। आंख़ों में आंसू लेकर आप इस मां के लिए तालियां बजाएंगे।
इस फिल्म की कहानी ही शुरुआत सबसे ड्रामैटिक और इमोशन सीन से होती है, जहां तीन औरतें देबिका चैटर्जी के बच्चों को घर से लेकर गाड़ियों में रखकर भागते हैं, और देबिका उन्हें रोकने की कोशिश में दीवानों की तरह दौड़ती है और सड़क पर बेतहाशा भागते ही गिरती है। उस चोट को आप थियेटर में बैठकर अपनी सीट पर महसूस कर सकते हैं।
फिर फ्लैश बैक से पता चलता है कि नार्वे की चाइल्ड वेलफेयर सर्विस वेलफ्रेड, देबिका और अनिरुद्ध के साथ उनके बच्चों को पिछले 10 हफ्तों से मॉनिटर कर रही थी और वो पाती है कि देबिका, अपने बच्चों को हाथ से खाना खिलाती है, माथे पर नज़र का टीका लगाती है, अपने साथ बिस्तर में सुलाती है। इसके साथ ही अनिरुद्ध पर इल्ज़ाम लगाती है कि वो देबिका की घर के कामों में बिल्कुल मदद नहीं करता।
आपको लगेगा कि ये क्या इल्ज़ाम हुए ? ऐसे तो हर हिंदुस्तानी मां अपने बच्चों को पालती है। मगर नहीं, ऐसा नहीं है। दूसरे देशों में इस पैरेटिंग पर सवाल उठते हैं, आपको साबित करना होता है कि आप बच्चों की देखभाल कर सकते हैं। उनके लिए अलग बेडरूम होना चाहिए। खाना, उन्हें चम्मच और कांटे से खिलाया जाना चाहिए। स्कूलिंग के प्रोजेक्ट टाइम पर पूरे होने चाहिए और बच्चों से ज़्यादा ही प्यार... ये थोड़ा बहस का मुद्दा है।
पैट्रियाकी पर भी चोट करती कहानी
मिसेज़ चैटर्जी वर्सेज़ नार्वे की कहानी पैट्रियाकी पर भी चोट करती है कि औरत का काम सिर्फ़ घर चलाना और बच्चों को संभालना नहीं और मर्द का काम सिर्फ़ घर के लिए कमाकर लाना नहीं।
देबिका चैटर्जी की पांच महीने की बेटी सुची और बस चलना ही सीखे बेटे शुभ को, चाइल्ड वेलफेयर ऑर्गेनाइजेशन- वेल्फ्रेड के ऑफिशियल्स, फॉस्टर केयर में डाल देते हैं और इसके बाद शुरू होती है देबिका का अपने परिवार और पूरी सरकार के साथ संघर्ष। अपने दुधमुही बच्ची को अपना दूध पिलाने के लिए, देबिका जब अपने स्तनों से दूध निकाल कर उसे पैकेटेस् में पैक करती है... तो दिल पिघलने लगता है। ऐसी हालत में जब उसका ही पति अनिरुद्ध बच्चों को वापस पाने के लिए देबिका का साथ देने की बजाए, अपनी सिटीजनशिप की दुहाई देता है, तो ऐसा गुस्सा आता है कि आप मुठ्ठियां भींच लें।
बच्चों को फॉस्टर केयर से चुपके से निकालकर, उन्हे नार्वे से बाहर निकालने की कोशिश और फिर फेल होती देबिका को देखकर आप टूटते हैं। कभी-कभी देबिका का गुस्सा, उसका चीखना आपको परेशान करेगा, लेकिन फिर समझ आता है कि अपने बच्चों से बिछड़कर मां आख़िर और क्या करेगी।
प्रेस कॉन्फ्रेंस के बीच, इंडिया की टेलिकॉम मिनिस्टर के सामने देबिका, जब अपना दर्द ज़ाहिर करती है, तो आप उसके साथ खड़े होते हैं। अपने देवर, सास और ससूर के सामने बच्चों के सामने गिड़गिड़ाती देबिका को देखकर, आप बिखरते हैं। क्लाइमेक्स में कोर्ट के दलीलों से लेकर बच्चों से देबिका के मिलने तक, आपकी चेहरे पर मुस्कुराहट और आंख़ों में आंसू लिए रहते हैं। यही मिसेज चैटर्जी वर्सेज़ नार्वे की जीत है।
पॉवरफुल डायरेक्शन
एक बेहतरीन कहानी के साथ,, आशिमा छिब्बर के डायरेक्शन ने इस फिल्म को इतना पॉवरफुल बना दिया है कि आप इसे अपने साथ लेकर जाते हैं। लंबाई और गानों को थोड़ा कम कर देतें, तो इस मिसेज चैटर्जी वर्सेज़ नार्वे का असर और भी गहरा होता।
रानी मुखर्जी ने जीवंत किया देबिका का किरदार
जहां अभिनय कौशल की बात है, तो रानी मुखर्जी को सौ-सौ बार सलाम कीजिए। 44 साल की रानी ने उम्र को खूबसूरती से अपनाया है और देबिका के किरदार में ऐसे ढली हैं कि आप चौंकते हैं, ठिठकते हैं और फिर दिल थाम लेते हैं। फिल्म के फर्स्ट हॉफ़ में रानी चीखती हैं, चिल्लाती हैं, भागती हैं.... और सेकंड हॉफ़ में खामोश रहकर आंख़ों से बोलती हैं। हर अहसास जीने वाली रानी की सबसे दमदार परफॉरमेंस हैं ये किरदार। इस फिल्म का दूसरा सबसे दमदार किरदार है एडवोकेट डैनियल के किरदार में जिम सरभ, क्या कमाल एक्टर है जिम ! अनिरुद्ध के किरदार में अनिर्बान भट्टाचार्या का काम अच्छा है। नीना गुप्ता अपने कैमियो में असर छोड़ती हैं। लेकिन स्पेशल मेंशन किया जाना चाहिए, देबिका की वकील के किरदार में बालाजी गौरी का, क्या शानदार परफॉरमेंस दी है उन्होंने।
क्यों देखें?
मिसेज चैटर्जी वर्सेज़ नार्वे देखिए, इसकी दिल छू लेने वाली स्टोरी के लिए, रानी की बेहतरीन परफॉरमेंस के लिए और विदेशों में जाकर, अच्छी ज़िंदगी के सपनों के पीछे की सच्चाई से रूबरू होने के लिए।
मिसेज चैटर्जी: 3.5 स्टार।
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