Success Story Of Bhavesh Bhatia : कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो। दुष्यंत कुमार की यह पंक्तियां सनराइज कैंडल कंपनी के फाउंडर भावेश भाटिया पर सटीक बैठती हैं। भावेश का संघर्ष इसलिए भी अहम है कि उन्होंने युवा अवस्था में ही अपनी आंखों की रोशनी खो दी थी। लेकिन खुद के पैरों पर खड़े होने की जिद और बुलंद हौसला उन्हें रोक न सका।
खड़ी कर दी 350 करोड़ रुपये की कंपनी
भावेश भाटिया को 23 साल की उम्र में रेटिना मस्कुलर डिग्रेडेशन नाम की बीमारी हो गई थी। इस बीमारी के कारण उनकी आंखों की रोशनी चली गई। इसके बाद भी उन्होंने एमए की पढ़ाई पूरी की। पोस्टग्रेजुएट होने के बाद भी उन्हें कोई जॉब नहीं मिली क्योंकि वह देख नहीं पाते थे। ऐसे समय में उनकी मां ही उनका सहारा थीं। यह सहारा भी कुछ ही समय बाद छूट गया क्योंकि कैंसर से उनकी मां का निधन हो गया था। साल 1994 में उन्होंने सनराइज कैंडल नाम से कंपनी बनाई। आज इस कंपनी का सालाना रेवेन्यू 350 करोड़ रुपये है। उनकी यह कंपनी दुनिया के कई देशों में मोमबत्तियां बेचती है।
[caption id="attachment_714463" align="alignnone" ] पत्नी नीता के साथ भावेश भाटिया।[/caption]
आसान नहीं था सफर
भावेश का 350 करोड़ के रेवेन्यू वाली कंपनी तक का सफर आसान नहीं था। मां के निधन के बाद उनकी जिंदगी मानों थम सी गई थी। उन्होंने मां से प्रेरणा लेकर मोमबत्तियां बनाना शुरू किया। इसके लिए उन्होंने पहले नेशनल एसोसिएशन फॉर द ब्लाइंड स्कूल में दाखिला लिया और वहां से हुनर सीखा। इसके बाद भावेश ने 50 रुपये में एक ठेला गाड़ी किराए पर ली और मोमबत्तियां बेचना शुरू किया। इसी दौरान भावेश की मुलाकात नीता से हुई। वह उनकी गाड़ी पर मोमबत्तियां खरीदने आती थीं। बाद में दोनों ने शादी कर ली। भावेश के बिजनेस में नीता ने काफी मदद की। भावेश मोमबत्तियां बनाते थे और नीता उनकी मार्केटिंग करती थीं।
लोगों को पसंद नहीं आया भावेश का पैरों पर खड़ा होना
कंपनी खोलने के बाद उन्होंने मोमबत्तियां तो बनाईं लेकिन ग्राहक नहीं आ रहे थे। ऐसे में एक दोस्त ने उनकी मदद की। भावेश ने दोस्त की मदद से एक प्रदर्शनी लगाई। इनमें उन्होंने कैंडल के 12 हजार से ज्यादा डिजाइन पेश किए। बाद में मानों चमत्कार हो गया। उन्हें बड़ी-बड़ी कंपनियों से ऑर्डर मिलने लगे। उनका कारोबार चल निकला। बाद में उन्होंने अपनी कंपनी में 9000 दिव्यांगों को रोजगार भी दिया।