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भारत में किस सोच के साथ शुरू हुई तीर्थ परंपरा… श्रीराम के ‘तीर्थ दर्शन’ से नई पीढ़ी का कितना होगा उद्धार?

Bharat Ek Soch: श्रद्धालुओं के लिए भारत में अयोध्या अहम तीर्थ स्थानों में रहेगा। तीर्थ यात्रा से किस तरह का फायदा होता है, आइए जानते हैं...

Edited By : Anurradha Prasad | Updated: Dec 31, 2023 10:22
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news 24 editor in chief anuradha prasad special show on religion
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Bharat Ek Soch: साल 2023 का कैलेंडर पलटने में अब सिर्फ कुछ घंटे ही बाकी हैं। पूरी दुनिया के लोग हिसाब लगा रहे हैं कि उनके लिए ये साल कैसा रहा। उन्होंने 2023 में क्या खोया…क्या पाया? भविष्य में जब भी 2023 का पन्ना पलटा जाएगा तो उसमें जिक्र होगा कि इसी वर्ष संसद की पुरानी बिल्डिंग से नई बिल्डिंग में काम-काज शिफ्ट हुआ। इसी वर्ष जी-20 के दिल्ली शिखर सम्मेलन में भारत महाशक्तियों के बीच साझा घोषणा पत्र पर सहमति बनाने और अफ्रीकन यूनियन को 21वां सदस्य बनाने में कामयाब रहा। इसी वर्ष अयोध्या में त्रेता युग के बाद विमान सेवा उतरा और श्रीराम की नगरी हवाई सेवा से लेकर वंदे भारत जैसी ट्रेन से जुड़ गया।

इसी वर्ष अयोध्या में भगवान श्रीराम का भव्य-दिव्य, गगनचुंबी मंदिर बनकर तैयार हुआ, जिसमें 22 जनवरी को श्रीरामलला की प्राण प्रतिष्ठा होनी है। अयोध्या की सड़कों पर आज जो तस्वीर दिखी, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि 2024 में देश-दुनिया के श्रद्धालुओं के लिए भारत में अयोध्या सबसे अहम तीर्थ स्थानों में रहेगा। पिछले कुछ वर्षों में भारत के हर धार्मिक स्थल पर श्रद्धालुओं की आवाजाही बढ़ी है, लेकिन क्या आपके मन में कभी ये बात आई कि हमारे देश में लोग तीर्थ यात्रा क्यों करते हैं?

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तीर्थ या धार्मिक यात्रा से लोगों को किस तरह का फायदा होता है? तीर्थ में ऐसा क्या है कि केरल का आदमी काशी पहुंच जाता है। दक्षिणी छोर यानी कन्याकुमारी से कोई शख्स भगवान शिव के दर्शन के लिए उत्तर में कश्मीर तक पहुंच जाता है। पश्चिम में द्वारिका का पूर्व में इंफाल घाटी से कनेक्शन कृष्ण तत्व जोड़ देता है। साल 2024 में तीर्थाटन और बढ़ेगा..अयोध्या में लोगों के सामने रामलला का भव्य-दिव्य मंदिर होगा। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर और महाकाल कॉरिडोर पहले से तैयार है।

दूसरे तीर्थों तक पहुंचने की राह भी आसान बनती जा रही है। ऐसे में आज समझने की कोशिश करेंगे कि भारतीय जनमानस में तीर्थाटन को इतनी अहमियत क्यों रही है? तीर्थ यात्राएं किस तरह हजारों साल से मनुष्य, समाज, शहर, राज्य और अर्थव्यवस्था को गति देती रही हैं। तीर्थ का समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और विज्ञान किस तरह से इंसान की तरक्की में अहम भूमिका निभाता रहा है? आज ऐसे ही सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे-अपने खास कार्यक्रम तीर्थाटन का दिव्य ‘दर्शन’ में।

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भारत में धर्म का नाता सिर्फ खास पूजा-पद्धति से नहीं है। भारत में धर्म लोगों की जिंदगी को बेहतर बनाने का जरिया रहा है। लोगों को समाज से जोड़ने वाला धागा रहा है…रोजमर्रा की जिंदगी से सुकून देने का रास्ता रहा है। पाप-पुण्य की अवधारणा के साथ लोगों को मर्यादित करने का माध्यम रहा है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन चरित्र से पूरी दुनिया हजारों साल से रोशनी लेती रही है। रामलला का अयोध्या में भव्य-दिव्य मंदिर भी तैयार हो चुका है। भारत के रोम-रोम में राम है और राम के रोम-रोम में मर्यादा, फरमाबरदारी और त्याग है। लोगों के कल्याण की सोच है। राम का संघर्ष पूरी दुनिया के लिए एक जीवन दर्शन है। श्रीराम के जीवन का बड़ा हिस्सा यात्रा में बीता…जिसने उन्हें एक राजकुमार से मर्यादा पुरुषोत्तम बना दिया।

बचपन में ही ऋषि विश्वामित्र के साथ राक्षसों के संहार के लिए निकले…जहां शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा ली। ताड़का जैसी राक्षसी का संहार किया। भगवान शिव का धनुष तोड़ा और सीता से विवाह हुआ..वापस अयोध्या लौटे तो राज्याभिषेक से पहले ही 14 वर्ष के लिए वनवास पर निकलना पड़ा…इस दौरान वो एक अद्भुत समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र का मॉडल दुनिया के सामने रखते हैं। जब लंका का राजा रावण उनकी पत्नी का अपहरण कर ले जाता है तो श्रीराम बानर-भालू की सेना बनाकर महाबली रावण का संहार करते हैं। उसके बाद वापस अयोध्या लौटते हैं- एक आदर्श शासन प्रणाली का मॉडल दुनिया के सामने रखते हैं, जिसका जिक्र वाल्मीकि और तुलसीदास ने अपने-अपने तरीके से किया है।

अब आपके दिमाग में आ रहा होगा कि ये सब तो हम पहले से सुनते और पढ़ते आए हैं…इसका तीर्थाटन से क्या लेना देना ? दरअसल, हमारे देश में तीर्थाटन के मायने बहुत व्यापक रहे हैं। एक ब्राह्मण या छात्र ज्ञान हासिल करने के लिए यात्रा पर निकलता है। ऐसे में ब्राह्मण और छात्र दोनों के लिए गुरु का घर यानी ज्ञान हासिल करने की जगह ही तीर्थ है। एक क्षत्रिय सीमाओं के विस्तार के लिए यात्रा पर निकलता है। ऐसे में नए क्षेत्र को राज्य से जोड़ने को ही राजा के लिए तीर्थ माना गया है। इसी तरह व्यापारी द्वारा कारोबार के लिए की गई यात्रा को भी तीर्थ जैसा ही माना गया है। वहीं, सामान्य गृहस्थ आस्था के धार्मिक केंद्रों पर पहुंच कर शांति और ऊर्जा का एहसास करते हैं…तीर्थाटन में अपना इहलोक और परलोक सुधरता देखते हैं। ऐसे में किसी सामान्य गृहस्थ के लिए तीर्थ यात्रा के मायने अलग हैं। ऐसे में श्रीराम के जीवन चक्र में यात्रा और तीर्थाटन का हर रूप दिखता है…जिसमें हर पड़ाव पर उनका एक नया रूप दुनिया के सामने आता है।

एक अनुमान के मुताबिक, अयोध्या में रोजाना करीब 2 लाख श्रद्धालुओं के पहुंचने का अनुमान लगाया जा रहा है। वहीं, खास मौकों पर 5 लाख तक श्रद्धालु भी पहुंच सकते हैं। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर बनने के बाद करीब 13 करोड़ श्रद्धालुओं ने बाबा विश्वनाथ के दर्शन किए। इस साल अगस्त में काशी विश्वनाथ के दरबार में पहुंचने वाले भक्तों की संख्या 95 लाख 62 हजार से ज्यादा रही। इसी तरह नए साल में महाकाल के दर्शन के लिए लाखों की तादाद में श्रद्धालुओं के पहुंचने का अनुमान है। भारत की सनातन परंपरा में हर चीज हजारों वर्षों के अनुभव के आधार पर विकसित हुई है। तीर्थाटन भी उसी में से एक है। सामान्य तौर पर तीर्थ का मतलब होता है –पवित्र करने वाला या तारनेवाला। वेद, रामायण, महाभारत और पुराण समेत दूसरे प्राचीन ग्रंथों में तीर्थ का जिक्र है…शास्त्रों में तीन तरह के तीर्थ बताए गए हैं। पहला- जंगम यानी चलता-फिरता तीर्थ। दूसरा, मानस तीर्थ यानी इंद्रियों पर संयम और अच्छे संस्कारों का पालन। तीसरा, स्थावर तीर्थ यानी भूमि पर स्थित पवित्र स्थल…आमतौर पर भूमि पर स्थित आस्था के बड़े केंद्रों को ही आम आदमी तीर्थ समझता है, लेकिन किसी सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए हर तरह के तीर्थ के बीच समन्वय का दर्शन हमारी प्राचीन परंपरा सिखाती है।

प्राचीन भारत में आश्रम व्यवस्था थी – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। एक आदमी रोजमर्रा की जिंदगी से ऊब न जाए… संभवत:, इसी सोच के साथ लोगों की जिंदगी में रंग भरने के लिए पर्व-त्यौहार और तीर्थ परंपरा को आगे बढ़ाया गया होगा। लोगों की समस्याओं को सामूहिक रूप से सुलझाने के मंच के तौर पर मंदिर बनाए गए होंगे… मंदिर कैंपस में लोग देवी-देवता के नाम पर एक-दूसरे की मदद के लिए आसानी से तैयार हो जाते होंगे या साझा हित से जुड़े मुद्दों पर सहमति बनाने में सहूलियत होती होगी। मध्यकाल में बने दक्षिण भारत के मंदिर इस बात की गवाही देते हैं कि खेती के विकास से लेकर शहरीकरण को बढ़ावा तक में बड़े मंदिरों ने कितनी दमदार भूमिका निभाई है। कारोबार बढ़ाने से लेकर सांस्कृतिक आदान-प्रदान तक में तीर्थाटन की बड़ी भूमिका रही है…भारत की सांस्कृतिक एकता बनाए रखने में तीर्थाटन की अहमियत समझते हुए ही आदि शंकराचार्य ने देश की चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की। ये दो संस्कृतियों…दो भाषाओं…दो भौगोलिक विविधता वाले क्षेत्रों के बीच मेल कराने वाली बुलंद सोच का ही नतीजा है कि हिमालय के बद्रीनाथ मंदिर में केरल का पुजारी पूजा करता है।

भारत में ज्यादातर तीर्थ या तो नदियों के किनारे हैं या ऊंचे पहाड़ों के बीच। कई तीर्थ स्थान ऐसी जगहों पर हैं–जहां पहुंचने के लिए इंसान को बहुत पैदल चलना पड़ता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारत में स्थापित ज्यादातर तीर्थ स्थलों का इंसान की सेहत से भी कोई कनेक्शन है? जरा सोचिए…अगर शहरी क्षेत्र में वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश कर चुके किसी शख्स की सेहत बिगड़ती है तो कई बार डॉक्टर उसे किसी ऐसी जगह जाने की सलाह देते हैं…जहां का हवा-पानी साफ हो। इसमें एक विकल्प हिल स्टेशन भी होता है, लेकिन सैकड़ों साल पहले जब हिल स्टेशन विकसित नहीं हुए थे, तो लोगों को बेहतर हवा-पानी और अपनी सेहत को रिचार्ज करने का मौका तीर्थाटन में मिलता था। देश के कई बड़े मंदिरों में सैकड़ों सीढ़ियां चढ़ने के बाद देवता के दर्शन होते हैं। सीढ़ियों पर चढ़ना-उतरना एक अच्छा व्यायाम है…तो भजन-कीर्तन में तालियां बजाने से एक्यूप्रेशर का फायदा होता है…वहीं, घंटी की आवाज मन से नकारात्मकता खत्म करने में मदद करती है। देश के भीतर ज्यादातर तीर्थस्थान नदियों के किनारे बसे हैं। जहां की कलकल बहती धारा इंसान को निस्वार्थ भाव से आगे बढ़ते हुए समाज के लिए कुछ करने का संदेश देती है।

एक स्टडी के मुताबिक, देश के भीतर 19 फीसदी यात्राएं धार्मिक होती हैं। चाहे वो बस से हो, ट्रेन से हो या फिर हवाई जहाज से। इसी तरह National Council of Applied Economic Research के मुताबिक लोग जितने भी टूर पैकेज लेते हैं – उनमें आधे धार्मिक होते हैं। भारत की अर्थव्यवस्था में मंदिर इकोनॉमी की हिस्सेदारी तीन लाख करोड़ से अधिक की है मतलब GDP में धार्मिक यात्राओं का योगदान 2.32 फीसदी है । भारत में 1990 के दशक में उदारीकरण से शहरीकरण को रफ्तार मिली। शहरों की भागदौड़ वाली जिंदगी और नौकरी की जद्दोजहद के बीच संघर्ष इतना बढ़ चुका है कि सामान्य मिडिल क्लास को लाखों की भीड़ में सिर्फ अपने कर्म और भगवान का आसरा दिखने लगा है।

संभवत:, किसी मुसीबत की स्थिति में दिव्य शक्ति के रूप में भगवान का ही सहारा दिखता है…ऐसे में शहरी लोगों की भगवान में आस्था और तीर्थाटन में दिलचस्पी दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। आस्था के धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक पक्ष को देखते हुए सरकार भी तीर्थ के बड़े केंद्रों तक लोगों के पहुंचने की राह आसान बनाने के लिए पूरी शिद्दत से जुटी हुई है।

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Written By

Anurradha Prasad

First published on: Dec 31, 2023 06:25 AM

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