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राजीव सरकार का दांव या फिर रहा दबाव, अयोध्या में मंदिर के नाम पर कैसे एकजुट हुई हिंदुत्ववादी ब्रिगेड?

Bharat Ek Soch: राजीव गांधी हिंदू-मुस्लिम राजनीति में कैसे उलझकर रह गए? विवादित स्थल का ताला किस तरह खुला? आइए जानते हैं...

भारत एक सोच
Bharat Ek Soch: इन दिनों 'भारत एक सोच' में हम लोग पलट रहे हैं- अयोध्या अध्याय का पन्ना। 22 जनवरी से अयोध्या का एक नया अध्याय शुरू होगा। रोशनी और आधुनिकता दोनों से आज की अयोध्या जमगम कर रही है। अगर दस साल पहले कभी अयोध्या गए हों, वहां के रेलवे स्टेशन पर उतरे हों, वहां की गलियों से गुजरे हों, तो आपको कल की अयोध्या और आज की अयोध्या में फर्क समझ में आ जाएगा। नई हवा, नए बदलाव श्रीराम की नगरी को सही मायनों में तीर्थों का तीर्थ बना दिया है। जहां सिर्फ देश के भीतर ही नहीं दुनिया के हर हिस्से से श्रद्धालु और पर्यटक पहुंचेंगे। भारतीय परंपरा और आध्यात्म के साथ साक्षात्कार करेंगे। रोजाना करीब दो लाख लोगों के अयोध्या पहुंचने का अनुमान लगाया जा रहा है। अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में न्योता और जाने-न-जाने को लेकर भी बहुत सियासी सुर सुनाई दिए, लेकिन जरा सोचिए 1980 के दशक में राम के नाम पर राजनीतिक तवा गर्म करने की राजनीति ने कैसे आकार लिया होगा? अयोध्या अध्याय..कल, आज और कल के पिछले एपिसोड में हम आपको बता चुके हैं कि आजादी के बाद से ही श्रीराम के नाम पर राजनीतिक जमीन किस तरह से तैयार की जाने लगी थी? आज बात करेंगे कि कंप्यूटर की बात करते-करते राजीव गांधी किस तरह हिंदू-मुस्लिम राजनीति में उलझ गए। विवादित स्थल का ताला खुलने की स्क्रिप्ट कैसे तैयार हुई? देश के भीतर की चुनावी राजनीति किस तरह अयोध्या की परिक्रमा करने लगी? राजनीति और समाज गणित के फॉर्मूले से नहीं चलता है। दोनों समय पर होनेवाली हलचलों से पैदा होनेवाली प्रतिक्रिया से आगे बढ़ते हैं, 1980 के दशक में प्रचंड बहुमत से लैस राजीव गांधी नए भारत की स्क्रिप्ट पर काम कर रहे थे। बीजेपी भी अपने लिए किसी ऐसे मुद्दे की तलाश में थी, जिस पर कांग्रेस की राजीव सरकार को घेरा जा सके। उसी दौर में शाहबानो के तलाक का मुद्दा ऐसे गर्म हुआ कि देश को 21वीं सदी का सपना दिखाते-दिखाते राजीव गांधी भी हिंदू-मुस्लिम राजनीति में उलझ गए। हिंदूवादी संगठनों को भी बड़ा मौका मिल गया- अयोध्या मुद्दे को नए सिरे से गर्म करने का। हालात ऐसे बने कि अदालत के जरिए अयोध्या में विवादित स्थल का ताला खुलने का रास्ता साफ हो गया। अयोध्या में विवादित स्थल का ताला भले ही स्थानीय अदालत के आदेश पर खुला, लेकिन तब देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर राजीव गांधी थे। उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस की सरकार थी और मुख्यमंत्री थे- वीर बहादुर सिंह। कहा जाता है कि वीर बहादुर सिंह एक ऐसे मुख्यमंत्री थे, जिनका एक पैर लखनऊ और दूसरा दिल्ली में रहता था। जिस तरह से अयोध्या मैटर हैंडल किया गया, उसमें राजीव गांधी को ऐसा लग रहा होगा बदली फिजा में बीजेपी की हिंदुओं में बढ़ती पैठ कम होगी। संभवत:, इसीलिए राजीव गांधी ने 1989 में अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत अयोध्या से की, लेकिन अयोध्या में मंदिर का भूमि पूजन कराने और रामराज्य का वादा करने के बाद भी राजीव गांधी चुनाव नहीं जीत सके। बोफोर्स को बड़ा मुद्दा बना कर विपक्ष ने कांग्रेस को हरा दिया। प्रधानमंत्री बने-वी पी सिंह। उनकी सरकार गठबंधन के पायों पर खड़ी थी। सरकार के भीतर से भी उनपर बहुत दबाव था। ऐसे में उन्होंने अपने विरोधियों पर बढ़त बनाने के लिए मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने का फैसला किया। जिससे अगड़े-पिछड़े के नाम पर सियासी फिल्डिंग बिछाने का काम शुरू हो गया। आरक्षण की गर्म हवा में बीजेपी को अपनी वोटबैंक की जमीन खिसकती दिखाई दी। बीजेपी नेताओं ने अपने राजनीतिक गुब्बारे में धर्म की हवा भरनी शुरू कर दी। मंडल की काट के तौर पर लालकृष्ण आडवाणी सोमनाथ से अयोध्या तक के लिए राम रथ पर सवार हो गए। भारत की राजनीति सेक्युलर और कम्युनल खांचों में बंट चुकी थी। बीजेपी के नेता भी आडवाणी की रथयात्रा को मिल रहे अपार समर्थन देख दंग थे। कई जगह ऐसी तस्वीरें भी दिख जाती जाती थीं - जहां घंटों लोग हाथों में पूजा की थाली सजाए और दीप जलाकर सड़क किनारे रामरथ का इंतजार कर रहे होते थे। ऐसे लोग भी आसानी से दिख जाते थे- जो आडवाणी के रामरथ गुजरने के बाद वहां की मिट्टी को अपने माथे से लगाते थे। अयोध्या में मंदिर के नाम पर ईंट जमा करने का काम भी धड़ल्ले हो रहा था, लेकिन बिहार के समस्तीपुर में लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद कारसेवक सड़कों पर आ गए। अयोध्या में पुलिस का जमावड़ा बढ़ गया। यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने आज के अयोध्या और तब के फैजाबाद जिला में कारसेवकों की एंट्री पर रोक लगा दी। श्रद्धालुओं को अयोध्या में होने वाली कोसी परिक्रमा से दूर रहने की सलाह दी गई, जो अयोध्या के चारों ओर की जानेवाली 45 किलोमीटर की यात्रा थी। अयोध्या में कारसेवकों पर फायरिंग के बाद मुलायम सिंह यादव मुसलमानों के नए रहनुमान के तौर पर उभरे। उस दौर तक श्रीराम की अयोध्या राजनीति का नया लॉन्च पैड बन चुकी थी। राम नाम का चमत्कार बीजेपी को यूपी समेत देश के कई राज्यों में साफ-साफ दिखा। यूपी की कमान अब बीजेपी के कल्याण सिंह के हाथों में थी। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के कुछ दिनों बाद कल्याण सिंह अपने मंत्रियों के साथ अयोध्या पहुंचे और राम मंदिर बनाने की शपथ ली। दूसरी ओर, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर वीएचपी, बजरंग दल और बीजेपी ने मिलकर सुनामी तैयार करनी शुरू कर दी। जिससे उत्तर में बर्फ से लदी हिमालय की चोटियों से लेकर दक्षिण में समंदर के किनारों तक पश्चिम में कच्छ के रण से पूर्व में अरुणाचल की पहाड़ियों में रहने वाले लोग श्रीराम और अयोध्या में दिलचस्पी लेने लगे। अयोध्या में सरयू के घाट पर कारसेवकों का जोश उफान मार रहा था। देश के कोने-कोने से कारसेवक, साधु-संत, बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता जुटे हुए थे। अयोध्या में या तो खाकी वर्दी में पुलिस के जवान दिखाई दे रहे थे या पीताबरी ओढ़े राम भक्त। वो साल 1992 का था और महीना दिसंबर का। अयोध्या में एक अजीब सी हलचल महसूस की जा रही थी। ऐसा लग रहा था कि कुछ बड़ा होने वाला है, लेकिन क्या होने वाला है- इसका किसी को अंदाजा नहीं था। कारसेवकों के सामने एक ओर 16वीं शताब्दी से खड़ी विवादित इमारत के तीन गुंबद थे, दूसरी ओर मंदिर निर्माण का सपना। अयोध्या में एक से डेढ़ लाख के बीच कारसेवक मौजूद थे। शायद अयोध्या में वहां कई पीढ़ियों ने कभी बाहरी लोगों का इतना बड़ा जमावड़ा नहीं देखा होगा। अयोध्या अध्याय की अगली किस्त बात होगी कि 6 दिसंबर कैसे ध्वस्त हुआ विवादित ढांचा? 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