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आखिर जम्मू-कश्मीर के दिल में क्या है, BJP के मिशन में कितने फूल-कितने कांटे?

Bharat Ek Soch: जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव का इंतजार किया जा रहा है। यहां पिछले विधानसभा चुनाव प्रदेश को स्पेशल स्टेटस हासिल होने के दौरान हुए थे। आइए जानते हैं कि अनुच्छेद 370 हटने के बाद जम्मू-कश्मीर में किस तरह के बदलाव की हवा चल रही है।

भारत एक सोच
Bharat Ek Soch: इस साल जून तक 15 लाख से अधिक सैलानियों ने धरती के स्वर्ग यानी कश्मीर घाटी का दीदार किया। जिसमें से 26 हजार विदेशी पर्यटक थे। कश्मीर में हालात तेजी से बदल रहे हैं। पत्थरबाजी की घटनाएं पुरानी बात हो चुकी हैं। गाहे-बगाहे हड़ताल का ऐलान कर घाटी में जिंदगी की रफ्तार पर ब्रेक लगाने वाले किनारे लग चुके हैं। जो हाथ कभी आर्मी और पैरामिलिट्री जवानों पर पत्थर फेंकने के लिए उठते थे, वो अब कश्मीर की तस्वीर बदलने में लगे हैं। वहां चल रहे कंस्ट्रक्शन प्रोजेक्ट से जुड़कर अपना भविष्य और अपने सपनों के न्यू कश्मीर को बनाने में लगे हैं, लेकिन आतंकी हमले अभी पूरी तरह रुके नहीं हैं। आतंकी हमेशा कश्मीर की शांति में खलल डालने की साजिश रचते रहते हैं। अब जम्मू-कश्मीर के लोगों को भी विधानसभा चुनाव का इंतजार है, जिससे वो अपने वोट से सरकार का चुनाव कर सकें। साल 2014 में जम्मू-कश्मीर में विधानसभा के लिए चुनाव हुए। उसके बाद वहां की सियासत में कई तरह के प्रयोग हुए। जम्मू-कश्मीर में पिछला विधानसभा चुनाव तब हुआ था- जब प्रदेश को स्पेशल स्टेटस हासिल था। दो निशान, दो विधान, दो प्रधान वाली व्यवस्था थी। जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा था। अब पूरी स्थिति बदल चुकी है। अवाम से सियासतदान तक सभी विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं। ऐसे में आज समझने की कोशिश करेंगे कि आखिर जम्मू-कश्मीर के दिल में क्या है? अनुच्छेद 370 हटने के बाद वहां किस तरह के बदलाव की बयार चल रही है? 2024 लोकसभा चुनाव में जम्मू-कश्मीर के लोगों ने किस तरह का संकेत दिया?

किसमें कितना दम?

बीजेपी को अपने लिए कितनी संभावना दिख रही है? जम्मू-कश्मीर में कमल खिलाने में बीजेपी की कौन-कौन मदद कर सकते हैं। फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस की राजनीतिक जमीन मजबूत हुई है या कमजोर? भले ही इस साल हुए लोकसभा चुनाव में जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस शून्य बट्टा सन्नाटे में रह गई हो पर विधानसभा चुनाव को लेकर हौसले बुलंद क्यों हैं? महबूबा मुफ्ती की पीडीपी में अभी कितना दम-खम बाकी है? चुनाव के पहले या बाद में किस तरह की गठबंधन स्क्रिप्ट तैयार हो सकती है ? आज ऐसे सभी सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे।

लंबे समय से चुनाव का इंतजार

जम्मू-कश्मीर के लोग बहुत ही बेसब्री से विधानसभा चुनाव का इंतजार कर रहे हैं। सितंबर-अक्टूबर में जम्मू-कश्मीर की 90 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव होना तय माना जा रहा है। Final Voter List Published करने की डेडलाइन 20 अगस्त रखी गयी है। चुनाव आयोग तैयारियों को लेकर सूबे के अफसरों के साथ लगातार मीटिंग कर रहा है। अटकलें लगाई जा रही हैं कि 19 अगस्त यानी बाबा अमरनाथ यात्रा खत्म होने के बाद किसी भी दिन जम्मू-कश्मीर में चुनाव की तारीखों का ऐलान हो सकता है।

बीजेपी को जम्मू-कश्मीर से उम्मीद

ऐसे में वहां के सियासी अखाड़े में खड़ीं सभी पार्टियां तूफानी रफ्तार से तैयारियों में जुटी हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी श्रीनगर की जमीन से कह चुके हैं कि विधानसभा चुनाव के बाद जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा वापस देने का काम होगा। बीजेपी को जम्मू-कश्मीर से बहुत उम्मीद है। पिछले पांच वर्षों में जम्मू-कश्मीर में माहौल किस तरह से बदलने की कोशिश हुई, जहां कभी गोलियों की आवाज सुनाई देती थी। जहां से बारूद की गंध आती थी। वही, जम्मू-कश्मीर आज की तारीख में एक बेहतर Business Investment Destination बनता जा रहा है। प्रदेश के ज्यादातर हिस्सों में निर्माण कार्य पूरी रफ्तार से चल रहा है। कहीं पहाड़ों के बीच ब्रिज बन रहा है, तो कहीं मॉल बन रहा है। कहीं फैक्ट्रियां लग रही हैं, तो कहीं संगीत की धुन सुनाई दे रही है। ऐसे में राजनीतिक बातों से पहले बदलते कश्मीर का मिजाज समझना जरूरी है? जम्मू-कश्मीर ने जो राह पकड़ी है- उसमें अनुमान लगाया जा रहा है कि प्रदेश की Economy में एक लाख 23 हजार करोड़ रुपये से अधिक का निवेश हो सकता है। आने वाले समय में जिस तरह की बड़ी कंपनियां जम्मू-कश्मीर में अपना कारोबार शुरू करने वाली हैं- उससे साढ़े चार लाख से अधिक नौकरियां पैदा होने की भविष्यवाणी की जा रही है। मोदी सरकार जम्मू-कश्मीर के लोगों का मन बदलने के लिए पिछले कई साल से कई मोर्चों पर काम कर रही है। वहां के उप-राज्यपाल की कुर्सी पर किसी ब्यूरोक्रेट की जगह खांटी राजनीतिज्ञ को बैठाया गया।

90 सीटों पर उम्मीदवार उतार सकती है बीजेपी

जिससे Development Work से लोगों के दिल में उतरने और संवाद के जरिए सिविल सोसाइटी से जुड़ने का काम चलता रहे। साथ ही आतंकियों को कुचलने का काम भी मिलिट्री और पैरा-मिलिट्री पूरी सख्ती के साथ करते रहें। इस साल हुए लोकसभा चुनाव में जम्मू-कश्मीर में बीजेपी 24.36% वोट के साथ सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी, लेकिन सूबे की 5 लोकसभा सीटों में से सिर्फ 2 ही बीजेपी के खाते में आईं। ऐसे में बीजेपी ने जम्मू-कश्मीर की सियासी जमीन में खाद-पानी मिलाने का काम और तेज कर दिया है। माना जा रहा है कि सूबे की सभी 90 सीटों पर बीजेपी अपने उम्मीदवार उतारेगी, लेकिन चेहरा प्रधानमंत्री मोदी ही होंगे। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान की तर्ज पर बीजेपी जम्मू-कश्मीर में मुख्यमंत्री पद के लिए किसी भी चेहरे को आगे नहीं करेगी। माना जा रहा कि जम्मू-कश्मीर के चुनाव प्रचार में बीजेपी के बड़े नेताओं के मुंह से सबसे ज्यादा सुनाई देगा- पीओके वापस लेने का सुर। विकास की सुनामी से प्रदेश के हर नागरिक की जिंदगी में बदलाव का सुर। बीजेपी के रणनीतिकार ये भी अच्छी तरह जानते हैं कि घाटी के लोगों के मन में कौन सा तूफान चल रहा है? घाटी का मुस्लिम समुदाय EVM के जरिए किस सोच के साथ बटन दबाएगा? ऐसे में माना जा रहा है कि बीजेपी घाटी में थोड़ा-बहुत प्रभाव रखने वाली कुछ पार्टियों के जरिए वोटों का समीकरण बदलने की कोशिश कर सकती है। जिसमें गुलाम नबी आजाद की डेमोक्रेटिक प्रगतिशील आजाद पार्टी, अल्ताफ बुखारी की APNI पार्टी और सज्जाद लोन की पपुल्स कॉन्फ्रेंस जैसी पार्टियां हो सकती हैं।

एक-एक वोट के लिए संघर्ष

भले ही छोटी पार्टियां अपने दम पर जम्मू-कश्मीर चुनाव में कुछ खास करने की स्थिति में न हों, पर वोट कटुआ की भूमिका जरूर निभा सकती हैं। ऐसे में बीजेपी के दिग्गज अच्छी तरह जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर में वोट युद्ध कितना भीषण होने वाला है। एक-एक वोट के लिए कितना संघर्ष रहेगा? जम्मू-कश्मीर की चुनावी महाभारत में लोकसभा में मिले वोटों के हिसाब से दूसरी बड़ी पार्टी है-फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस, जिसे सूबे की पांच लोकसभा सीटों में से दो पर जीत और 22 फीसदी से अधिक वोट मिला। माना जा रहा है कि पिछले कुछ वर्षों में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने जो रास्ता पकड़ा- उसमें पार्टी की सियासी जमीन मजबूत हुई है। फारूक अब्दुल्ला एक ओर पार्टी को मजबूत करने की लगातार बात करते रहे हैं। दूसरी ओर पाकिस्तान को भी नसीहत देते हैं कि अगर भारत से दोस्ती में रहेगा तो दोनों देश तरक्की करेंगे। अगर दुश्मनी करेगा तो दोनों का नुकसान है। ऐसे में अब ये समझना भी जरूरी है कि फारूक अब्दुल्ला को अपने पक्ष में माहौल क्यों दिख रहा है?

इतिहास बन चुका है स्पेशल स्टेटस

कभी कहा जाता था कि दिल्ली की दूरबीन से श्रीनगर की तस्वीर जैसी दिखती है- वैसी है नहीं। इसी तरह ये भी कहा जाता था कि श्रीनगर की दूरबीन से जैसी दिल्ली दिखती है- वैसी है नहीं। दरअसल, जगह बदलने के साथ देखने का नजरिया बदलने की सबसे बड़ी वजह जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद 370 के तहत मिला स्पेशल स्टेटस था, जो इतिहास बन चुका है। चुनावी राजनीति को अब दिल्ली और श्रीनगर की दूरबीन से देखने की कोशिश करते हैं। जम्मू-कश्मीर की सत्ता में वापसी का ख्वाब देख रही नेशनल कॉन्फ्रेंस दिल्ली में इंडिया गठबंधन का हिस्सा है, जिसमें सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस है। भले ही 2024 के लोकसभा चुनाव में जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली, लेकिन वोट शेयर करीब 10 फीसदी बड़ा। ऐसे में विधानसभा चुनावों को लेकर कांग्रेस के हौसले बुलंद हैं। अब सवाल ये है कि क्या जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस का गठबंधन जारी रहेगा? कांग्रेस किस रणनीति के साथ जम्मू-कश्मीर में उतरेगी? पार्टी का चेहरा कौन होगा- ये देखना भी दिलचस्प रहेगा? अब दो तरह की तस्वीर बनती दिख रही है- पहली, कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस दोनों साथ-साथ चुनाव लड़े, जैसे यूपी में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस मैदान में उतरी। जिसका दोनों को फायदा मिला। इसी तर्ज पर घाटी की ज्यादातर सीटों पर एनसी उम्मीदवार उतार सकती है तो जम्मू में कांग्रेस के उम्मीदवार दिख सकते हैं। दूसरी तस्वीर ये बन सकती है कि दोनों पार्टियां अलग-अलग चुनाव लड़ें और नतीजों के बाद गठबंधन पर विचार-विमर्श करें।

पीडीपी की राजनीतिक जमीन कमजोर

जम्मू-कश्मीर की चुनावी राजनीति के एक और बड़े प्लेयर का जिक्र करना बहुत ही जरूरी है- वो है पीडीपी। बीजेपी के साथ गठबंधन कर सूबे में सरकार बनाने वाली पीडीपी। पॉलिटिकल पंडितों के मुताबिक, पिछले कुछ वर्षों में महबूबा मुफ्ती की पीडीपी की राजनीतिक जमीन बहुत कमजोर हुई है। पीडीपी के ज्यादातर पहली और दूसरी लाइन के नेता पार्टी छोड़ चुके हैं- उसमें से अल्ताफ बुखारी की पार्टी के साथ जुड़ गए हैं तो कुछ सज्जाद लोन की पीपुल्स कॉन्फ्रेंस की छतरी तले खड़े दिख रहे हैं। महबूबा मुफ्ती के लिए इधर कुआं-उधर खाई वाली स्थिति रही है। 2014 के जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में पीडीपी को 22.7 फीसदी वोट मिले थे। PDP के निशान से 28 उम्मीदवार चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे, तब महबूबा मुफ्ती के पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद पार्टी के सबसे बड़े नेता थे, लेकिन अब हालात पूरी तरह बदल चुके हैं।

बीजेपी के लिए राह आसान नहीं

दिल्ली के दूरबीन से देखें तो महबूबा मुफ्ती भी इंडिया गठबंधन की छतरी के नीचे खड़ी हैं। मतलब, कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी तीनों एक साथ हैं, लेकिन क्या ये संभव है कि जम्मू-कश्मीर चुनावों में भी तीनों साथ-साथ खड़ा दिखें? फारुख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती का साथ-साथ खड़ा होना मुश्किल दिख रहा है? सवाल ये भी क्या महबूबा मुफ्ती कांग्रेस के साथ गठबंधन करना चाहेंगी? अगर वो चाहे भी तो क्या कांग्रेस उनके साथ गठबंधन के लिए तैयार होगी? ऐसे में महबूबा मुफ्ती किस रास्ते आगे बढ़ेगी। इस सवाल का जवाब भी भविष्य के गर्भ में है। बीजेपी भी प्रचंड बहुमत के साथ जम्मू-कश्मीर में जीत का ख्वाब देख रही है, लेकिन बीजेपी के रणनीतिकार भी अच्छी तरह जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर की राह आसान नहीं है। पॉलिटिक्स बहुत उलझी हुई है। वहां के लोगों ने पिछले दस वर्षों में राजनीति दलों और नेताओं के चाल, चरित्र और चेहरे को बहुत करीब से देखा है। बहुत कुछ महसूस किया है, ऐसे में वहां के लोग अपने मुस्तकबिल के लिए अपनी वोट की ताकत का किस तरह इस्तेमाल करते हैं? इसका इंतजार सिर्फ भारत के एक अरब चालीस करोड़ लोग ही नहीं पूरी दुनिया कर रही है। ये भी पढ़ें: Assembly By polls Result 2024: 7 राज्यों की 13 सीटों के नतीजे आए सामने, देखें कहां-कौन जीता?


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