Bharat Ek Soch: क्या कभी आपने सोचा है कि भारत को असली ताकत कहां से मिलती है? भारत दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में अलग क्यों है? हमारी बुलंद लोकतंत्रीय व्यवस्था को दुनिया आदर्श शासन प्रणाली क्यों मानती है? क्योंकि, भारत को असली ताकत यहां के लोगों से मिलती है। यहां लोकतंत्र लोगों से हैं और लोगों के लिए है। हमारी लोकतंत्रीय व्यवस्था में एक-दूसरे की गलतियों को ठीक करने की गजब क्षमता है।
सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड को असंवैधानिक बताते हुए रद्द करने का फैसला सुनाया है। गुप्त चंदे को वोटरों के साथ धोखा बताया। यानी राजनीतिक दलों को मिलने वाले कॉरपोरेट चंदे पर सुप्रीम कोर्ट ने बड़ी चोट की है। अब सवाल उठता है कि आखिर इलेक्टोरल बॉन्ड सिस्टम में क्या खामियां हैं? इसे किस सोच के साथ कानूनी जामा पहनाया गया?
क्या इससे सिर्फ सत्ताधारी पार्टियों को फायदा होता है? सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष के चंदे की रकम में इतना अंतर क्यों? क्या कॉरपोरेट चंदा निष्पक्ष चुनाव और समानता के अधिकार के खिलाफ है? चुनावों में राजनीतिक दल फ्रीबीज के चुंबक से किस तरह वोट खींचते रहे हैं? क्या कॉरपोरेट चंदा और फ्रीबीज ने लोकतंत्र को Give & Take वाला सिस्टम बना दिया है? आज ऐसे ही सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे- अपने खास कार्यक्रम लोकतंत्र में ‘लक्ष्मी तंत्र’ का खेल में!
लोकतंत्र की सेहत के लिए हानिकारक
दुनिया में कोई भी चीफ मुफ्त नहीं होती। उसकी एक कीमत होती है। वो कीमत कैसे वसूली जाती है। उसका तरीका और समय अलग हो सकता है। देश की सबसे बड़ी अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड को भी इसी चश्मे से देखा। इसे भारत में लोकतंत्र की सेहत के लिए हानिकारक मानते हुए असंवैधानिक करार दिया।
पांच जजों की संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा है कि इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वाले उसे कैश कराने वाले और इससे मिली रकम के बारे में मुकम्मल जानकारी 13 मार्च तक सार्वजनिक की जाए। मतलब, देश के 90 करोड़ वोटरों को पता चलेगा कि सियासी दलों को इलेक्टोरल बॉन्ड के रूप में किस कॉरपोरेट घराने से और कितना चंदा मिला।
साल 2018 में चुनावी चंदे में पारदर्शिता के नाम पर इलेक्टोरल बॉन्ड सिस्टम लाया गया था, लेकिन ये सिस्टम शुरू से ही सवालों में रहा। सामने आ रहे आंकड़ों के मुताबिक, जनवरी 2024 तक साढ़े सोलह हजार करोड़ रूपये से अधिक का इलेक्टोरल बॉन्ड बिका है। 2022-23 तक राजनीतिक दलों ने करीब 12 हज़ार करोड़ का बॉन्ड भुनाकर चंदा लिया। जिसमें से 6566 करोड़ सिर्फ बीजेपी के खाते में गया। ऐसे में सबसे पहले ये समझते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने गुप्त चंदा मामले में किस तरह से फैसला सुनाया?
बगैर पारदर्शी राजनीतिक फंडिंग के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं
बीजेपी के दिग्गज नेता अरुण जेटली अब इस दुनिया में नहीं हैं। साल 2017 में बजट पेश करते हुए तब के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि बगैर पारदर्शी राजनीतिक फंडिंग के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं है। उनके शब्द थे- Without transparency of Political funding, free & fair elections are not possible. उन्होंने आगे कहा था कि पिछले 70 साल में हम पारदर्शी व्यवस्था नहीं बना सके हैं।
नीतिगत फैसलों के प्रभावित होने का खतरा
इसके बाद इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था वजूद में आई। इस व्यवस्था में वोटर ये नहीं जान सकता था कि कौन से कॉरपोरेट घराने ने किस राजनीतिक दल को कितना चंदा दिया? कंपनीज एक्ट में संशोधन कर व्यवस्था की गई कि ऐसी विदेशी कंपनियां भी चंदा दे सकती हैं- जिनका दफ्तर भारत में है। चुनावी चंदे पर कंपनियों के मुनाफे का 7.5 फीसदी तक वाला कैप भी हटा दिया गया। मतलब, घाटे में चल रही कंपनियां भी राजनीतिक दलों को अपनी मर्जी के हिसाब से चंदा दे सकती थीं। चुनावी चंदे की ऐसी व्यवस्था में कॉरपोरेट घरानों और जनप्रतिनिधियों के बीच कनेक्शन बनने के चांस बढ़ जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी माना कि इससे नीतिगत फैसलों के प्रभावित होने का खतरा है। ऐसे में ये समझना भी जरूरी है कि आखिर इलेक्टोरल बॉन्ड सिस्टम क्या था?
ये सच है कि इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए सबसे ज्यादा चंदा सत्ताधारी बीजेपी को मिला। राज्यों में सत्ता में बैठी पार्टियों को मिला, लेकिन एक बड़ा सच ये भी है कि इलेक्टोरल बॉन्ड से चंदा विपक्ष में बैठी पार्टियों को भी मिला। भले ही वो रकम सत्ताधारी पार्टी को मिले चंदे की तुलना में कम है। इस लिस्ट में कांग्रेस भी है, टीडीपी, शिवसेना और समाजवादी पार्टी भी है। ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि क्या हमारे देश की राजनीतिक पार्टियों ने कभी पॉलिटिकल फंडिंग को साफ-सुथरा और पारदर्शी बनाने के लिए काम किया।
लोकतंत्र में लेनदेन की प्रवृति तेजी से बढ़ी
पॉलिटिकल फंडिंग का मैकेनिज्म तब तक देश में साफ-सुथरा नहीं हो सकता है…जबतक राजनीतिक दल पूरी ईमानदारी से चुनावी चंदे और खर्च का हिसाब लोगों के सामने नहीं रखेंगे। पिछले कुछ दशकों में हमारे लोकतंत्र में लेनदेन की प्रवृति तेजी से बढ़ी है। वोटर और सियासी दलों के बीच भी रिश्तों का आधार लेनदेन का बनता जा रहा है। वोटरों को सुनहरे ख्वाब और वोट के बदले सीधा फायदा देने का ऑफर दिया जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि देश में सिर्फ चार जाति है- गरीब, युवा, महिला और किसान। ये एक ऐसी परिभाषा है– जिसके जरिए बीजेपी देश के बड़े वोटबैंक को एहसास दिलाने की कोशिश कर रही है कि अगर डबल इंजन सरकार रहेगी- तो सरकारी योजनाओं का फायदा मिलता रहेगा। राजनीतिक दलों ने मुफ्त की योजनाओं के जरिए अपनी वोट की जमीन को मजबूत करने की पुरजोर कोशिश की है। जिसमें फ्रीबीज पॉलिटिक्स के कई मॉडल भारत में लोगों के सामने हैं।
राजनीतिक पंडित अक्सर सवाल उठाते हैं कि फ्रीबीज कल्चर लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है, लेकिन दलील ये भी दी जाती है कि आखिर लोकतंत्र का मतलब क्या है? अधिक से अधिक लोगों को फायदा पहुंचाना…सरकार के होने का एहसास कराना तो फिर फ्रीबीज में बुराई क्या है? भारत में चुनावों के दौरान फ्रीबीज परंपरा की शुरुआत करीब 57 साल पहले दक्षिण भारत से हुई। वो साल 1967 का था।
आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंच गए डीएमके नेता
तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में डीएमके नेता सीएन अन्नादुरई ने एक रुपये किलो चावल देने का वादा किया। उस चुनाव में डीएमके को प्रचंड जीत मिली। तब के पॉलिटिकल पंडितों ने अन्नादुरई की जीत की वजह सस्ता चावल का वादा को बताया। बाद में इसी रास्ते एनटी रामाराव आगे बढ़े और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंच गए।
तमिलनाडु में जयललिता ने भी लोगों के दिल में जगह बनाने के लिए फ्रीबीज का सहारा लिया। तमिल राजनीति के फ्रीबीज मॉडल जिसमें लोगों को सियासी पार्टियां कभी रंगीन टीवी तो कभी प्रेशर कुकर, कभी वशिंग मशीन तो कभी मंगलसूत्र देने का वादा कर रही थीं। किसानों से कहीं कर्ज माफी का वादा किया जा रहा था, तो कहीं मुफ्त बिजली देने का वादा।
यूपी के चुनावी अखाडे़ तक पहुंच गई
दक्षिण से होते हुए फ्रीबीज 2012 में यूपी के चुनावी अखाडे़ तक पहुंच गई। जिसमें अखिलेश यादव ने छात्रों को लैपटॉप और टैबलेट देने का वादा किया । लेकिन, फ्रीबीज की राजनीति को बड़ा आसमान दिया-आम आदमी पार्टी ने…जिससे दिल्ली और फिप पंजाब में सरकार बनी। हाल में हुए राजस्थान और छत्तीसगढ़ चुनाव में कई लोकलुभावन फ्रीबीज योजनाओं के बाद भी कांग्रेस सत्ता में वापसी नहीं कर पाई, तो एमपी में शिवराज सिंह चौहान की लाड़ली बहना योजना का असर साफ-साफ महसूस किया गया।
गरीबों को वोट बैंक के तौर पर मुखर तरीके से 1970 के दशक में इस्तेमाल किया गया। तब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर थीं इंदिरा गांधी, उस दौर में सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों की काट के तौर पर इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया। लोगों के करीब दिखने के लिए उनकी सरकार पहले ही राजाओं के प्रीवी पर्स खत्म करने और बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसे बड़े फैसले ले चुकी थीं और देश में गरीबों की सबसे बड़ी खैरख्वाह के तौर पर उभरीं।
लोकतंत्र में लेनदेन मॉडल
पॉलिटिकल साइंस की किताबों में Participatory Democracy, Cooperative Democracy, Economic Democracy, Interactive Democracy, Autocratic Democracy, Revolutionary Democracy जैसे मॉडल का जिक्र बहुत आसानी से मिल जाता है, लेकिन हाल के दशकों में लोकतंत्र में लेनदेन मॉडल यानी एक हाथ दो और दूसरे हाथ से लो..का ट्रेंड भी तेजी से बढ़ा है।
कहीं करोड़ों के चुनावी चंदे के रूप में, तो कहीं वोटरों को मुफ्त की रेवड़ियां बांटने के नाम पर। जिसमें वोटर और जनप्रतिनिधि दोनों एक-दूसरे से कुछ हासिल करने की उम्मीद में कदमताल कर रहे हैं तो कारोबारी घराने भी राजनीतिक दलों को मोटे चंदे के बदले अपने लिए बिजनेस की राह में कुछ छूट या सहूलियत की ख्वाहिश रखते हैं। चुनाव अब बहुत खर्चीला हो चुका है।
इलेक्शन कैंपेन में बहुत बड़ा और व्यवस्थित तंत्र काम करता है
राजनीतिक दलों के इलेक्शन कैंपेन में बहुत बड़ा और व्यवस्थित तंत्र काम करता है…जिसमें सामान्य आदमी तो क्या क्षेत्रीय पार्टियों का भी दम फूलने लगा है। किसी सामान्य मिडिल क्लास आदमी के लिए राजनीति में उतरना और फिर चुनाव जीतना एवरेस्ट चढ़ने जैसा बनता जा रहा है। हमारे संविधान निर्माताओं ने एक ऐसे आदर्श लोकतंत्र की कल्पना की थी। जिसमें धनबल नहीं बल्कि जनबल की प्रधानता हो। जिसमें आम आदमी के सामने विधानसभा या संसद पहुंच कर जनसेवा का बराबर का मौका हो। ऐसे में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में आते बदलावों पर गंभीरता से ईमानदार मंथन की जरूरत है।
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