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आमदनी अठन्नी खर्चा रुपया…क्रेडिट कार्ड के भरोसे जिंदगी की नैय्या!

Bharat Ek Soch: हर व्यक्ति के भीतर लक्ष्मी यानी रुपये के सही इस्तेमाल का हुनर भी होना जरूरी है। तभी किसी व्यक्ति, परिवार, समाज और देश का आज और कल बेहतर हो सकता है ।

Bharat Ek Soch
Bharat Ek Soch: न्यूज 24 के सभी दर्शकों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं ... आप स्वस्थ्य रहें, मस्त रहे... मां लक्ष्मी की कृपा आप पर सदैव बनी रहें। दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों ही तरह के ताप यानी दुखों से आप पूरी तरह मुक्त रहें। दिवाली के मौके पर देश का कोना-कोना जगमगा रहा है..लेकिन, आपकी जिंदगी में भी खुशियों का दीया जलता रहे। इसके लिए सिर्फ धन की देवी लक्ष्मी का ही आशीर्वाद काफी नहीं है..हर व्यक्ति के भीतर लक्ष्मी यानी रुपये के सही इस्तेमाल का हुनर भी होना जरूरी है। तभी किसी व्यक्ति, परिवार, समाज और देश का आज और कल बेहतर हो सकता है। भारतीय परंपरा के मुताबिक, दिवाली के दिन ही श्री राम अयोध्या लौटे थे... उसके बाद उन्होंने एक ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित की... जिसमें राजा खुद मर्यादित था... राजधर्म के नियम-कायदों में बंधा था... जिसमें लोग भय मुक्त थे... जिसमें लोगों को भविष्य की चिंता नहीं थी। लेकिन, ये संभव कैसे हुआ होगा । संभवत:, त्रेतायुग में जिस रामराज्य की अवधारणा की हमारे जन-मानस में है- वो अधिकार और कर्तव्य के बीच समन्वय पर आधारित रही होगी। क्योंकि, ऐसा हो नहीं सकता कि बगैर लोगों की अपनी जिम्मेदारी पूरा किए एक आदर्श व्यवस्था सिर्फ अधिकार की बात करने से स्थापित हो जाए..ऐसे में दीपावली के मौके पर भारत एक सोच में मैं आपका ध्यान एक ऐसे मुद्दे की ओर खींचना चाहूंगी...जिसका सीधा कनेक्शन आपके वर्तमान से है...आपके भविष्य से हैं..आपकी खुशहाली से है...आपके परिवार की बेहतरी से है । क्या आपने कभी सोचा है कि देवी लक्ष्मी की इतनी पूजा के बाद भी आपकी जेब अक्सर खाली क्यों रहती है? हर महीने क्रेडिट कार्ड के सहारे जिंदगी क्यों आगे बढ़ानी पड़ती है? अच्छी तनख्वाह के बाद भी खाते में शून्य बट्टा सन्नाटा क्यों रहता है ... हमेशा इस बात की चिंता क्यों सताती रहती है कि अगर कुछ हो गया तो परिवार का क्या होगा ? नौकरी चली गई तो शहर में खर्चा कैसे चलेगा ? कमाई और खर्च के बीच संतुलन क्यों नहीं बन पा रहा है ? क्या Globalization और Ultra Consumerism के दौर में युवा पीढ़ी में Financial Management Skills दिनों-दिन होती जा रही है? आखिर, खाओ-पीओ, मस्त रहे और कल हो ना हो वाली सोच...समाज के बड़े संकट की ओर नहीं धकेल रही है? आज हम ऐसे ही सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे।

युवाओं की जिंदगी क्रेडिट कार्ड के सहारे

भारत में हजारों साल से संयम और संचय की परंपरा रही है। कम से कम संसाधनों में लोग अपनी जिंदगी की जरुरतों को पूरा कर सकें...इसका रास्ता हमेशा से दिखाया जाता रहा है। चाहे महादेव का जीवन चरित्र हो या श्रीराम का रास्ता ... महात्मा गांधी का मेरा जीवन भी मेरा संदेश हो या फिर पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद । इन सबसे एक ही संदेश निकलता है कि बहुत साधारण जीवन जीते हुए...कैसे समाज की बेहतरी के लिए काम किया जा सकता है। संयम और संचय को लोगों के आचार-विचार का हिस्सा बनाने में भारत की भीतर की गुरु-शिष्य परंपरा का बड़ा योगदान है। ये प्राचीन भारत की बहुत आगे की सोच वाली संस्कृति ही थी - जिसमें राजपरिवार में पैदा राजकुमार भी गुरुकुल में जीवन शून्य से शुरू करने का हुनर सिखाता था... परिस्थितियों के हिसाब से संचय यानी बचत को अपने व्यवहार का हिस्सा बनाता था। अपनी निजी जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ समाज की बेहतरी और दूसरों के कल्याण में अपनी दमदार भूमिका में जीवन की सफलता समझता था। लेकिन, आज की तारीख में परिस्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं। क्लास कल्चर ने युवा पीढ़ी के घोर उपभोक्तावादी, आरामतलब और अति व्यक्तिवादी बना दिया है। यही वजह है कि युवा पीढ़ी का एक बड़ा हिस्सा है – जो भी कमाता है, उसका बढ़ा हिस्सा मौज-मस्ती और अपने शौक पूरा करने में खर्च कर देता है। जिसमें दिनों-दिन बचत की गुंजाइश कम होती जा रही है। महीने में 15 दिन उसकी जिंदगी क्रेडिट कार्ड या दूसरों से कर्ज के सहारे चलती है...ऐसे में सवाल ये भी उठ रहा है कि महंगाई ज्यादा हो गई या फिर खर्च की आदतें बिगड़ चुकी हैं? कमाई से ज्यादा खर्च एक कहावत आपने बहुत सुनी होगी – आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपया । पिछले कुछ वर्षों में पूरी दुनिया का आर्थिक व्यवहार तेजी से बदला है... उसमें ज्यादातर शहरी मध्यवर्ग परिवारों की स्थिति कमोवेश ऐसी ही चुकी है। महीने की कमाई से ज्यादा खर्चा है.. कर्ज का बोझ दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है..यहां तक की एक कर्ज चुकाने के लिए दूसरा कर्ज तक लेने से भी युवा हिचक नहीं रहे हैं। दरअसल, इंटरनेट और सोशल मीडिया ने पूरी दुनिया को एक साथ जोड़ दिया है। इसमें Cultural Exchange के साथ-साथ एक-दूसरे से खुद को संपन्न दिखाने की होड़ पैदा हुई है। महंगा स्मार्टफोन...अच्छे कपड़े और महंगे रेस्टोरेंट में खाते-पीते तस्वीरें पोस्ट करने का चलन तेजी से बढ़ा हैं । दूसरों को दिखाने और नकल के चक्कर में लोग कमाई से ज्यादा खर्च कर रहे हैं। कभी परिवार के बड़े-बुजुर्ग फिजूलखर्ची करने पर युवाओं को समझाते थे- चादर जितनी लंबी हो, उतना ही पैर फैलाना चाहिए ... लेकिन, नए दौर के युवा कहते हैं–पैर के हिसाब से चादर बढ़ाने में समझदारी है यानी जरूरतों से समझौता और दिल की ख्वाहिशों को दबाने की जरूरत नहीं है। यही वजह है कि स्मार्टफोन संस्कृति के साथ पले-बढ़े युवाओं का रोक-टोक की स्थिति में सीधे-सीधे एक ही जवाब होता है...It’s My life...My Choice... My Style...बच्चों की इस सोच को आकार देने में लोअर मिडिल क्लास से अपर मिडिल क्लास की ओर बढ़ते मम्मी-डैडी का भी बड़ा योगदान है। दूसरी ओर, 20-25 हजार रुपये की मंथली सैलरी वाले युवाओं के सपनों को हकीकत में बदलने में क्रेडिट कार्ड और आसानी में मिलने वाला लोन बड़ी भूमिका निभा रहा है। साथ ही युवा पीढ़ी को एक बड़े कर्ज जाल की ओर धकेल रहा है। जरा सोचिए नौकरी चली जाए तो क्या होगा? आदमी कर्ज जाल में फंसकर किस तरह अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा ब्याज में चुकाने में गंवाता है। यहां अच्छी सैलरी वाले एक शख्स के Financial Mismanagement का जिक्र करना भी जरूरी है। उसके Account में हर महीने टैक्स वैगरह सब कटने के बाद दो लाख रुपये से ऊपर क्रेडिट होता है। लेकिन, एक-दो दिन के भीतर ही 40-50 हजार छोड़ कर पूरी रकम अलग-अलग तरह की EMI और क्रेडिट कार्ड बिल चुकाने में निकल जाती है। एक दिन उस शख्स ने अपनी कमाई और खर्चे का जिक्र करते हुए अपने एक करीबी दोस्त से कहा कि मुझे एक अच्छे फाइनेंशियल एडवाइजर की जरूरत है। मित्र ने तुरंत जवाब दिया कि आपका जो खर्च करने का तौर-तरीका है - उसमें फाइनेंशियल एडवाइजर की नहीं ज्योतिषी की जरूरत है। बात बड़ी गहरी है...जब कमाई से ज्यादा खर्चा होगा। खर्चे की आदत पर कंट्रोल बिल्कुल नहीं होगा...सैलरी आते ही बड़ा हिस्सा कर्ज की EMI और क्रेडिट कार्ड का बिल चुकाने में ही खर्च होगा...तो महीने में 15 दिन जेब रहनी तय है। कितनी भी कमाई हो फटेहाली से आजादी नहीं मिल सकती है। लेकिन, जरा सोचिए जिन मिडिल क्लास परिवारों में एक सदस्य ही कमाता हो...और उसकी नौकरी चली जाए तो क्या होगा? जरा सोचिए...अगर कोई बड़ी बीमारी हो जाए या एक्सीडेंट हो जाए तो क्या होगा? अगर किसी वजह से सांसों का साथ छूट गया...तो क्या होगा? क्या इसके लिए हमारी युवा पीढ़ी तैयार हैं? क्या उन्होंने बदलते वक्त की चुनौतियों के साथ अपने आर्थिक अनुशासन को बदला है? हमेशा नौकरी रहे ये जरूरी नहीं...हमेशा एक जैसी कमाई होती रहेगी ये भी जरूरी नहीं । ऐसे में सवाल उठता है कि जब आपका अच्छा वक्त चल रहा हो..धन की देवी लक्ष्मी की असीम कृपा हो..तो किस तरह आगे बढ़ना चाहिए। जिसमें आज के साथ कल भी खुशहाल रहे।

पिछले पांच दशकों में लोगों की बचत सबसे कम

भले ही दादी-नानी ने कॉलेज का मुंह न देखा हो...भले भी वो किसी बिजनेस स्कूल न गई हो। लेकिन, उनका परिवार पर किसी आपदा से निपटने के लिए वित्तीय मैनेजमेंट बहुत ही उम्दा था। बचपन से गुल्लक के जरिए बच्चों को एक-एक पैसा बचाने और उसकी अहमियत समझाने वाली सोच विकसित करने की परंपरा रही है। सोना-चांदी के गहनों को भी एक इमरजेंसी फंड की तरह ही माना जाता था...जिसे परिवार पर किसी बड़े संकट की स्थिति में महिलाएं निकालती थीं। मतलब, भारतीय संस्कृति में हमेशा ही कमाने-खाने के साथ बचत वाली सोच भी ड्राइविंग सीट पर रही। लेकिन, हाल में आए रिजर्व बैंक के आंकड़े भी बता रहे हैं कि पिछले पांच दशकों में लोगों की बचत सबसे कम है। ये एक बहुत ही खतरनाक संकेत है। जरा सोचिए ... अगर युवा पीढ़ी अपनी कमाई से कुछ बचाएगी नहीं...तो बुढ़ापे में क्या करेगी? क्या 20-25 साल बाद हमारे देश में बुजुर्गों का एक ऐसा बड़ा वर्ग तैयार हो जाएगा...जिसकी जेब और हाथ दोनों खाली होंगे? हमारे देश में सरकार के खजाने में हर एक रुपये में से 58 पैसे डायरेक्ट और इनडायरेक्ट टैक्स को मिलाकर आता है। मतलब, भारत में हर आदमी औसतन अपनी कमाई के 100 रूपये में से 58 रुपये अलग-अलग तरीके से टैक्स के रूप में देता है। वहीं, अगर इनकम टैक्स की बात की जाए तो सबसे ऊंची स्लैब 30 फीसदी प्लस सेस है। लेकिन, इतना मोटा टैक्स चुकाने के बाद भी आम आदमी को सामाजिक सुरक्षा के नाम पर क्या मिलता है? ये एक बड़ा सवाल है। दुनिया के नक्शे पर कई ऐसे देश हैं, जो अपने नागरिकों से भारी-भरकम टैक्स वसूलते हैं। लेकिन, बदले में अपने नागरिकों को बहुत सी सहूलियत देते हैं।

कमाने के साथ बचाने की आदत डालनी होगी

तेजी से बदलती तकनीक और नौकरियों की बदलती प्रकृति के साथ युवा पीढ़ी को कमाने के साथ बचाने की आदत भी डालनी चाहिए। सरकारी नौकरियां गिनती की बची रह गई हैं...पहले की तरह अब पेंशन का सिस्टम भी खत्म हो चुका है। कई यूरोपीय देशों की तरह हमारे देश में नौकरी जाने पर तय समय तक मोटी रकम देने का सिस्टम नहीं है। ऐसे में दिवाली की खुशियों के साथ बदलते वक्त के नया लक्ष्मी दर्शन भी अपनाने की जरूरत है। मसलन, हम महीने होने वाली आमदनी का एक हिस्सा बचाने वाली सोच...किसी भी बीमारी या दूसरे संकट से निपटने के लिए इमरजेंसी फंड। रिटायरमेंट के बाद आत्मनिर्भर और सम्मान के साथ जिंदगी जीने के लिए फंड...किसी अनहोनी की स्थिति में परिवार की जिंदगी की गाड़ी आगे बढ़ सके, इसके लिए मुकम्मल इंतजाम किए गए हैं। आज की तारीख में नौकरी या बिजनेस में हमेशा एक कदम आगे रहने के लिए खुद को जितना अपडेट और अपग्रेड करना जरूरी है ... उतना ही जरूरी बेहतर भविष्य के लिए बचत और नए दौर के हिसाब से लक्ष्मी दर्शन की भी है।


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