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जेडीयू का कमबैक ईयर 2025: NDA की धुरी बनी पार्टी, सत्ता मजबूत लेकिन उत्तराधिकार पर सन्नाटा

Nitish Kumar JDU achievements 2025: जनता दल (यूनाइटेड) के लिए 2025 उपलब्धियों का साल रहा, लेकिन यह उपलब्धियां नेतृत्व की निर्भरता को भी दर्शाती हैं. बिहार की राजनीति में JDU और नीतीश कुमार दो अलग-अलग इकाइयां नहीं, बल्कि एक-दूसरे का विस्तार बन चुके हैं.

Nitish Kumar JDU achievements 2025: जेडीयू के लिए 2025 उपलब्धियों का साल रहा 2020 में 45 सीटों पर सिमटने के बाद जेडीयू गठबंधन में जूनियर पार्टनर बन चुकी थी. 2022 में एनडीए से निकलकर राजद-कांग्रेस-लेफ्ट के साथ जाना और फिर जनवरी 2024 में दोबारा एनडीए में लौटना,गठबंधन बदलने की राजनीति ने जेडीयू की “सैद्धांतिक स्थिरता” पर सवाल खड़े किए. विपक्ष के नेताओं ने तो नीतीश कुमार का नाम बदल कर पलटू चाचा रख दिया. जेडीयू की संगठनात्मक ताक़त और चुनावी भरोसा पूरी तरह नीतीश कुमार के कंधों पर टिका है. फिलहाल पार्टी सत्ता के शिखर पर है—केंद्र और राज्य, दोनों जगह, लेकिन इसी चमकदार वर्तमान के बीच जेडीयू के भविष्य को लेकर असहज सवाल भी उठने लगे हैं.

सत्ता का सुनहरा दौर, निर्भरता की हकीकत

2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के 240 सीटों पर रुक जाने से जेडीयू एक बार फिर “किंगमेकर” की भूमिका में आ गई. इसका सीधा राजनीतिक लाभ मिला—केंद्र में दो मंत्री, बिहार के लिए बजट में खास रियायतें और राज्य में सत्ता की निरंतरता जेडीयू के लिए गारंटी बन गई .इसके बाद हाल में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में जेडीयू का 85 सीटों तक पहुँचना निश्चित रूप से बड़ी वापसी है, लेकिन यह हकीकत है की पार्टी बीजेपी से सिर्फ चार सीट ही सही फिर से पीछे रह गई लेकिन नेतृत्व की धुरी फिर भी नीतीश कुमार ही बने रहने में सफल हुए .

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सत्ता संतुलन बीजेपी के पक्ष में, जेडीयू की मजबूरी उजागर

सहयोगी दलों के साथ बीजेपी का रवैया राज्यों के हिसाब से बदलता रहा है. महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री पद को लेकर जिस तरह आक्रामकता दिखाई गई, उसने यह साफ कर दिया कि वहां बीजेपी किसी भी कीमत पर सत्ता का केंद्र अपने हाथ में रखना चाहती थी. इसके उलट बिहार में पार्टी ने यथास्थिति बनाए रखने का रास्ता चुना—नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने रहे, लेकिन बीजेपी ने सत्ता संतुलन को चुपचाप अपने पक्ष में कर लिया. गृह मंत्रालय पहली बार बीजेपी को मिला , इसे सिर्फ एक विभागीय फेरबदल नहीं माना जा सकता बल्कि ये सत्ता संरचना में हुआ एक साइलेंट शिफ्ट है.

सरकार की दिशा और नियंत्रण अब साझा नहीं

कानून-व्यवस्था जैसा संवेदनशील विभाग अपने हाथ में लेकर बीजेपी ने यह संकेत दे दिया कि सरकार की दिशा और नियंत्रण अब साझा नहीं, बल्कि नियंत्रित साझेदारी के मॉडल पर आगे बढ़ेगा. इसलिए बिहार चुनाव के परिणाम को बीजेपी के लिए वाटर शेड मोमेंट भी माना गया है . राज्य में कैबिनेट की बदली हुई संरचना को जेडीयू ने न तो चुनौती दी और न ही इसे राजनीतिक मुद्दा बनाया. पार्टी ने इसे सियासी मजबूरी समझकर स्वीकार कर लिया. यही वह बिंदु है जहां जेडीयू की ताकत और उसकी सीमा दोनों साफ दिखाई देती हैं. सत्ता में बने रहने की कीमत पर उसने संतुलन के इस बदलाव को सहजता से आत्मसात किया. इन परिस्थितियों के नजरिये से जेडीयू 2020 चुनाव में सिर्फ 45 सीट जीतकर भी आज (85 सीट ) से अधिक ताकतवर थी .

जेडीयू की रणनीति से ज़्यादा उसकी विवशता

एलजेपी (रामविलास), हम और आरएलएम जैसे छोटे दलों को साधे रखना भी जेडीयू की रणनीति से ज़्यादा उसकी विवशता को उजागर करता है. गठबंधन की स्थिरता बनाए रखना ज़रूरी है, लेकिन इसके लिए हर मोर्चे पर समझौता करना जेडीयू को धीरे-धीरे उस स्थिति में ला रहा है, जहां उसकी भूमिका निर्णायक से ज़्यादा पोलिटिकल मैनेजर जैसी बनती जा रही है.
सवाल यही है कि सत्ता-संचालन की यह राजनीति कब तक चल सकेगी. क्या जेडीयू दोहरे मानदंडों के बीच अपनी स्वतंत्र राजनीतिक पहचान बचाए रख पाएगी, या सत्ता की निरंतरता के दबाव में उसे हर बार बदले हुए सत्ता-संतुलन को स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा—इसका जवाब आने वाला राजनीतिक दौर देगा.

संसद में समर्थन, पहचान पर सवाल

पिछले दो वर्षों में जेडीयू और बीजेपी के रिश्ते सबसे सहज रहे हैं. वक्फ बोर्ड जैसे संवेदनशील मुद्दों पर जेडीयू का समर्थन यह संकेत देता है कि पार्टी ने वैचारिक असहमति से ज़्यादा सत्ता की निरंतरता को तरजीह दी. पार्टी के भीतर असहजता जरूर दिखी, लेकिन नेतृत्व ने इसे दबाकर रखा.

कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा हो या केंद्रीय मंत्री ललन सिंह दोनों संसद से सड़क तक सभी मुद्दों पर सरकार के हां में हां मिलाते नज़र आए हैं और बदले में बिहार के लिए केंद्र सरकार से अतिरिक्त संसाधन / धन हासिल करने में पूरी ताक़त लगा रहे हैं. सवाल यह है कि क्या यह रणनीति जेडीयू की अलग पहचान को मजबूत कर रही है या उसे धीरे-धीरे बीजेपी की छाया में ले जा रही है.

नीतीश कुमार: आलोचना से नियंत्रण तक

लगभग दो दशक से सत्ता में रहने के कारण नीतीश कुमार पर “थकान” और “सेहत” को लेकर हमले होते रहे हैं. 2025 ने इन आलोचनाओं को फिलहाल विराम जरूर दिया. महिला वोटरों के बीच उनकी पकड़ एक बार फिर निर्णायक साबित हुई. महिलाओं को 10,000 रुपये की आर्थिक सहायता की घोषणा, बुजुर्गों के लिए बधाई गई पेंशन की राशि ने चुनावी समीकरण बदल दिए और एनडीए को बढ़त दिलाई.

चुनावी प्रचार के दौरान नीतीश कुमार की ज़मीनी सक्रियता—खराब मौसम में सड़क मार्ग से लगातार दौरे—एक राजनीतिक संदेश भी था: सत्ता अब भी उनके नियंत्रण में है. आठवीं बार मुख्यमंत्री बनने के बाद उनकी बढ़ी हुई सक्रियता ने आलोचकों को सीधा जवाब दिया .

आगे का साल: राहत भी, जोखिम भी

गृह मंत्रालय बीजेपी के पास जाने से कानून-व्यवस्था के सवाल जेडीयू से हटकर उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी पर केंद्रित होंगे. यह जेडीयू के लिए राहत का बिंदु है, जिससे पार्टी विकास और सुशासन के नैरेटिव को आगे बढ़ा सकती है.

केंद्र से मिल रही परियोजनाओं और आर्थिक मदद का श्रेय जेडीयू लेना चाहेगी, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के साथ पूर्ण तालमेल पार्टी की स्वतंत्र राजनीतिक आवाज़ को और सीमित कर सकता है. राज्यसभा की दो सीटें बचा लेना और केंद्रीय मंत्रिमंडल में अधिक प्रतिनिधित्व पाना पार्टी की तत्काल प्राथमिकता रहेगी.

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