नई दिल्ली: सोचकर देखिए कि एक व्यक्ति को जेल इसलिए जाना पड़ रहा हो क्योंकि उसकी पत्नी ने पुलिस में शिकायत की थी कि उसके पति ने उसकी मर्जी के खिलाफ शारीरिक सम्बंध बनाया। और फिर उस व्यक्ति की जगह पर खुद को रखकर सोचिए! डर गए ना! तो डरिये, बीवी ने ना कह दिया तो उस ना को ना ही समझिए। नो मीन्स नो! नहीं तो जेल भी जाना पड़ सकता है!
पत्नी की मर्जी के खिलाफ शारीरिक संबंध बनाने को बलात्कार का अपराध घोषित करने की माँग वाली याचिका पर देश की सबसे बड़ी अदालत विचार करने को तैयार हो गयी है। सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर सरकार का पक्ष जानना चाहा है। अगले साल फरवरी में कोर्ट इसपर सुनवाई करेगा।
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ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वीमेन्स एसोसिएशन ने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर कर बलात्कार से जुड़ी आईपीसी की धारा 375 में पत्नी के मामले में अपवाद को असंवैधानिक बताते हुए इस अपवाद को हटाने की माँग की थी। धारा 375 के अपवाद के प्रावधान के मुताबिक विवाहित महिला से उसके पति द्वारा की गई यौन क्रिया को दुष्कर्म नहीं माना जाएगा जब तक कि पत्नी नाबालिग न हो। लेकिन हाईकोर्ट में सुनवाई करने वाली बेंच के दोनों जजों की राय में मतभेद हो गया।
जस्टिस राजीव शकधर ने इस अपवाद को असंवैधानिक मानते हुए इसे रद्द करने का फैसला सुनाया। उन्होंने अपने फैसले में लिखा कि ‘आईपीसी के लागू होने के 162 साल बाद भी अगर किसी विवाहित महिला को न्याय नहीं मिलता तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है।’ लेकिन दूसरे जज जस्टिस सी हरि शंकर ने इस अपवाद को तर्कसंगत मानते हुए इसकी जरूरत बताई थी। लेकिन दोनों ने इस बात पर सहमति जताई थी कि यह एक महत्वपूर्ण क़ानूनी मसला है, सुप्रीम कोर्ट को इसपर सुनवाई करनी चाहिए। हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा है।
हाईकोर्ट में केंद्र सरकार ने इस माँग का विरोध करते हुए कहा था कि इस मामले में हमें पश्चिम के देशों का आँख मूंदकर अनुसरण नहीं करना चाहिए। क्योंकि हमारा समाज पश्चिम के समाज से बिल्कुल अलग है। यहाँ निर्धनता है, शिक्षा स्तर निम्न है। महिलाओं में आत्मनिर्भरता की कमी है। ऐसे में इस तरह के प्रावधान करने के परिणाम अच्छे नहीं होंगे।
सरकार ने यह भी कहा था कि लॉ कमीशन ने भी रेप लॉ पर पुनर्विचार करते समय इस बात की सिफारिश नहीं की थी। केंद्र सरकार ने हाईकोर्ट में दायर हलफनामे में यह भी कहा था कि धारा 375 के अपवाद को अगर रद्द किया गया तो इसका असर घरेलू हिंसा के मामलों पर भी पड़ेगा। क्योंकि घरेलू हिंसा के मामले में समझौते की गुंजाइश होती है, लेकिन वैवाहिक बलात्कार के मामले में यह गुंजाइश पूरी तरह खत्म हो जायेगी। क्योंकि यह नन कम्पाउंडेबल अपराध की श्रेणी में आता है।
सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। तो इस बात की पूरी संभावना है कि यहाँ भी सरकार का वही जवाब होगा जो हाईकोर्ट में था। अलबत्ता सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई का दायरा जरूर बड़ा हो जाएगा क्योंकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समाज और विवाह जैसी संस्था पर सीधा असर पड़ेगा।
इसका कारण ये है कि हिंदू मैरिज एक्ट में सेक्स का अधिकार भी शामिल है।
क़ानूनन ये माना गया है कि सेक्स के लिए पति या पत्नी दोनों में से कोई भी सेक्स से इनकार करना क्रूरता है और इस आधार पर तलाक मांगा जा सकता है। अगर पत्नी के ‘नो’ के इस अधिकार को क़ानूनी मान्यता मिल गयी तो उसके असर को सहज ही समझा जा सकता है।
हालाँकि ये भी सच है कि महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा की रोकथाम के लिए घर की चारदीवारी के भीतर महिलाओं के यौन शोषण से सुरक्षा के लिए 2005 में घरेलू हिंसा क़ानून लाया गया था। यह क़ानून महिलाओं को घर में यौन शोषण से संरक्षण देता है। इसमें घर के भीतर यौन शोषण को परिभाषित किया गया है। लेकिन इसमें कठोर सज़ा का प्रावधान नहीं है। इसलिए विवाहित महिलाओं को पतियों द्वारा यौन शोषण से बचाने के लिए मैरिटल रेप के प्रावधान किए जाने की माँग हो रही है।
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