राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शताब्दी वर्ष की व्याख्यानमाला ‘100 वर्ष की संघ यात्रा: नए क्षितिज’ के तहत रविवार को कोलकाता में आयोजित दोनों सत्रों में सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने संघ की वैचारिक पृष्ठभूमि, संगठनात्मक कार्यपद्धति और आगामी प्राथमिकताओं को विस्तार से रखा. उन्होंने कहा कि विचारों में स्पर्धा स्वाभाविक है, लेकिन समाज का मन एक रहना चाहिए. डॉ. भागवत ने अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का उदाहरण देते हुए कहा कि विरोधियों को साथ लेकर चलना ही राष्ट्रीय एकता का आधार होता है.
द्वितीय सत्र में सरसंघचालक ने कहा कि संघ का कार्य मित्रता और निस्वार्थ भाव पर आधारित है. संघ को समझने के लिए उसे बाहर से नहीं, बल्कि भीतर से देखने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि स्वयंसेवक समाज के सभी क्षेत्रों में कार्य करते हैं, लेकिन संघ किसी को नियंत्रित नहीं करता, न बाहर से और न भीतर से. संघ की कार्यपद्धति सामूहिकता पर आधारित है और इसकी नींव संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के त्याग और चरित्र में निहित है.
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डॉ. भागवत ने कहा कि अत्यंत विपरीत परिस्थितियों और आर्थिक अभावों के बावजूद डॉ. हेडगेवार ने निस्वार्थ बुद्धि से संघ की स्थापना की. समाज के स्नेह और विश्वास के सहारे संघ आगे बढ़ा. उन्होंने कहा कि दुनिया के शायद ही किसी स्वयंसेवी संगठन का इतना विरोध हुआ हो, जितना संघ का हुआ, लेकिन इसके बावजूद स्वयंसेवकों के मन में कटुता का भाव नहीं आया.
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संघ की कार्यशैली पर बात करते हुए सरसंघचालक ने कहा कि संगठन गुरु दक्षिणा से चलता है, बाहर से कोई सहायता नहीं ली जाती. संघ आर्थिक रूप से स्वावलंबी है और प्रत्येक पैसे का हिसाब रखा जाता है. उन्होंने बताया कि देश के पौने सात लाख गांवों में से सवा लाख स्थानों पर संघ की उपस्थिति है, जबकि 45 हजार शहरों-नगरों में अभी आधे हिस्से तक ही पहुंच बन पाई है.
शताब्दी वर्ष के एजेंडे को रेखांकित करते हुए डॉ. भागवत ने कहा कि पहले विरोध के वातावरण में सजग रहना पड़ता था, अब अनुकूल माहौल में कार्य का विस्तार और कार्यकर्ताओं की गुणवत्ता को सुदृढ़ करना प्राथमिकता है. उन्होंने समाज में मौजूद ‘सज्जन शक्ति’ को संगठित करने और उनके बीच समन्वय बढ़ाने की आवश्यकता पर बल दिया.
सरसंघचालक ने समाज में आचरण परिवर्तन के लिए पांच बिंदुओं पर विशेष जोर दिया—सामाजिक समरसता, कुटुंब प्रबोधन, पर्यावरण संरक्षण, स्वदेशी और संविधान बोध. उन्होंने कहा कि मंदिर, पानी और श्मशान जैसे संसाधन सभी के लिए समान होने चाहिए. परिवार में संवाद, पर्यावरण के लिए छोटे-छोटे व्यावहारिक कदम, स्वदेशी वस्तुओं को प्राथमिकता और संविधान की प्रस्तावना व नागरिक कर्तव्यों को बच्चों तक पहुंचाना, इन प्रयासों का हिस्सा होंगे.
उन्होंने कहा कि भारत, हिन्दुस्थान और हिन्दू समानार्थी हैं और संघ सम्पूर्ण समाज को अपना मानता है. सबका शाखा में आना आवश्यक नहीं, लेकिन शाखा जैसी निस्वार्थता और प्रामाणिकता का प्रशिक्षण देने वाली दूसरी कोई कार्यप्रणाली नहीं है. संघ श्रेय लेने के लिए नहीं, बल्कि समाज को जोड़ने के लिए काम करता है.
प्रथम सत्र में डॉ. भागवत ने संघ के गठन और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर विस्तार से चर्चा की. उन्होंने कहा कि संघ के स्वयंसेवकों की परेड को पैरामिलिट्री से जोड़ना या संघ को केवल सेवा अथवा राजनीतिक संगठन कहना उचित नहीं है. संघ किसी राजनीतिक उद्देश्य या प्रतिक्रिया में शुरू नहीं हुआ, बल्कि हिन्दू समाज के संगठन के विचार से अस्तित्व में आया.
डॉ. भागवत ने डॉ. हेडगेवार के जीवन संघर्षों का उल्लेख करते हुए कहा कि उनका पूरा जीवन देश को समर्पित था. असहयोग आंदोलन में भाग लेने और अंग्रेजी शासन को न स्वीकार करने के कारण उन पर राजद्रोह का मुकदमा भी चला. दस वर्षों के चिंतन के बाद 1925 में विजयादशमी के दिन संघ की स्थापना हुई.
उन्होंने कहा कि हिन्दू कोई संकीर्ण धार्मिक पहचान नहीं, बल्कि एक स्वभाव है, जो सर्वसमावेशी और सबके कल्याण की भावना से जुड़ा है. भारत सनातन काल से एक राष्ट्र रहा है और इसकी विविधता उसी एकता का विस्तार है. संघ का उद्देश्य किसी का विरोध करना नहीं, बल्कि व्यक्ति निर्माण के माध्यम से समाज जीवन में परिवर्तन लाना है.
सरसंघचालक ने कहा कि संघ से तैयार हुए स्वयंसेवक समाज के हर क्षेत्र में सक्रिय हैं और निस्वार्थ भाव से किए जाने वाले सभी अच्छे कार्यों में संघ सहयोग करता है.