Dussehra 2022: लखनऊ में खत्म हुई 300 साल पुरानी परंपरा, कुंभकरण-मेघनाद के पुतलों को नहीं लगेगी आग, जानें मामला
Dussehra 2022: उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) की राजधानी लखनऊ (Lucknow) में इस साल सदियों पुरानी ऐशबाग रामलीला (Ramlila 2022) में ऐतिहासिक परंपरा का निर्वहन नहीं होगा। रामलीला समिति ने इस बार दशहरे के मौके पर रावण के साथ-साथ कुंभकरण और मेघनाद के पुतले जलाने की 300 साल पुरानी प्रथा को बंद करने का फैसला किया है।
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पांच साल पहले भी रखा था प्रस्ताव, खारिज हुआ
कार्यक्रम के आयोजकों ने इसके बारे में जानकारी भी दी है। उन्होंने बताया कि रामायण में उल्लेख है कि कुंभकरण और मेघनाद ने रावण को भगवान राम के खिलाफ लड़ने से रोकने की कोशिश की थी। हालांकि अपने बड़े भाई और राक्षसों के राजा की बात को वह नकार नहीं पाए और उन्होंने युद्ध में भाग लिया। जानकारी में आया है कि यह प्रस्ताव ऐशबाग दशहरा और रामलीला समिति के अध्यक्ष हरिश्चंद्र अग्रवाल और सचिव आदित्य द्विवेदी ने पांच साल पहले रखा था, लेकिन समिति के अन्य सदस्यों ने इसे 300 साल पुरानी परंपरा बताते हुए खारिज कर दिया था।
कुंभकरण और मेघनाद ने रावण को युद्ध से रोका था
समिति के लोगों ने कहा कि रामचरितमानस और रामायण के गहन अध्ययन से पता चलता है कि रावण के पुत्र मेघनाद ने कहा था कि भगवान राम विष्णु के अवतार हैं। उन्हें उनके खिलाफ युद्ध नहीं करना चाहिए। दूसरी ओर रावण के भाई कुंभकरण ने भी कहा था कि जिन सीता मां को वह अपहरण करके लंका में लाए हैं, वह मां जगदंबा का स्वरूप हैं। यदि उन्हें ससम्मान मुक्त नहीं किया गया तो वह अपने जीवन सहित सब कुछ खो सकते हैं।
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इस साल सभी सदस्यों ने दी सहमति
हालांकि, रावण ने सभी के सुझावों को नजरअंदाज करते हुए उन्हें लड़ने का आदेश दिया। सचिव आदित्य द्विवेदी ने कहा कि इसी सोच के साथ हमारा विचार है कि मेघनाद और कुंभकरण के पुतले जलाना गलत है। वहीं हरिश्चंद्र अग्रवाल ने बताया कि काफी बहस और विचार विमर्श के बाद हम इस साल सभी सदस्यों को समझाने में सफल रहे हैं। इस परंपरा को खत्म करने के लिए सभी ने एकमत होकर यह निर्णय लिया है।
16वीं शताब्दी में शुरू हुई थी रामलीला-दशहरा
लखनऊ के बुद्धिजीवियों का मानना है कि ऐशबाग में रामलीला और दशहरा समारोह 16वीं शताब्दी में ऋषि-कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा शुरू किया गया था। जबकि पुतले जलाने की परंपरा करीब तीन सदी (300 साल) पहले शुरू की गई थी। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक संतों द्वारा दोनों परंपराओं का संचालन किया गया। लखनऊ के नवाब भी इस रामलीला देखने जाया करते थे। विद्रोह के बाद सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा इस समारोह को आगे बढ़ाया गया।
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