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Utpanna Ekadashi Katha: माता एकादशी कौन हैं, कैसे हुई एकादशी पूजा की शुरुआत, पढ़ें उत्पना एकादशी व्रत की कथा

Utpanna Ekadashi Katha: उत्पन्ना एकादशी, जो हर साल मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष में मनाई जाती है, न केवल पापों का नाश करती है, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति और समृद्धि की कुंजी भी मानी जाती है. क्या आप जानते हैं कि उत्पन्ना एकादशी की पूजा का महत्व क्या है और इसके साथ जुड़ी कथा क्या है? आइए जानते हैं, एकादशी माता कौन हैं, एकादशी पूजा की शुरुआत कैसे हुई और उत्पन्ना एकादशी की कथा क्या है?

Utpanna Ekadashi Katha: हिंदू पंचांग के अनुसार, भगवान विष्णु को समर्पित एकादशी हर माह दो बार, शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में आती है. हिन्दू धर्म में भक्ति, धर्म, समृद्धि, स्वास्थ्य और आध्यात्मिक दृष्टि से इस दिन व्रत और पूजा का अत्यंत शुभ फल बताया गया है. एकादशी को सभी पापों का नाश करने वाला व्रत कहा गया है. लेकिन क्या आप जानते हैं, एकादशी माता कौन हैं और एकादशी पूजा की शुरुआत कैसे हुई?

इन सभी प्रश्नों का उत्तर उत्पन्नय एकादशी की कथा में छिपा है, जो हर साल मार्गशीर्ष या अगहन के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को मनाया जाता है. आइए जानते हैं, उत्पन्ना एकादशी की असली कथा, जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने अपने श्रीमुख से अर्जुन को सुनाया था.

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उत्पन्ना एकादशी व्रत की कथा की असली कथा

श्री सूतजी बाले, 'हे विप्रों! भगवान श्रीकृष्ण ने विधि सहित इस एकादशी माहात्म्य को अर्जुन से कहा था. प्रभु में जिनकी श्रद्धा है वे ही इस व्रत को प्रेमपूर्वक सुनते हैं तथा इस लोक में अनेक सुखों को भोगकर अन्त में वैकुण्ठ को प्राप्त करते हैं. एक बार अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा, 'हे जनार्दन! एकादशी व्रत की क्या महिमा है? इस व्रत को करने से कौन-सा पुण्य मिलता है. इसकी विधि क्या है? सो आप मुझे बताने की कृपा करें.'

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भगवान श्रीकृष्ण के वचन सुन अर्जुन ने कहा- 'हे प्रभु! आपने इस एकादशी व्रत के पुण्यों को अनेक तीर्थों के पुण्य से श्रेष्ठ तथा पवित्र क्यों बतलाया है? कृपा करके यह सब आप विस्तारपूर्वक कहिये.'

श्रीकृष्ण बोले, 'हे पार्थ! सतयुग में एक महा भयङ्कर दैत्य हुआ था, उसका नाम मुर था. उस दैत्य ने इन्द्र आदि देवताओं पर विजय प्राप्त कर उन्हें उनके पद से हटा दिया. तदोपरान्त इन्द्र ने भगवान शंकर से प्रार्थना की, 'हे भोलेनाथ! हम सब देवता, मुर दैत्य के अत्याचारों से दुखी होकर मृत्युलोक में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं. राक्षसों के भय से हम बहुत दुख और कष्ट भोग रहे हैं. मैं स्वयं बहुत दुखी और भयभीत हूँ, अन्य देवताओं की तो बात ही क्या है, अतः हे कैलाशपति! कृपा कर आप मुर दैत्य के अत्याचार से रक्षा का उपाय बतलाइये.'

देवराज की प्रार्थना सुन शंकरजी ने कहा, 'हे देवेन्द्र! आप भगवान श्रीहरि के पास जाईये. मधु-कैटभ का संहार करने वाले भगवान विष्णु देवताओं को अवश्य ही इस भय से मुक्त करेंगे.'

महादेवजी के आदेशानुसार इन्द्र तथा अन्य देवता क्षीर सागर गये, जहाँ पर भगवान श्रीहरि शेष-शैया पर विराजमान थे.

इन्द्र सहित सभी देवताओं ने भगवान विष्णु के समक्ष उपस्थित होकर उनकी स्तुति की, 'हे तीनों लोकों के स्वामी! आप स्तुति करने योग्य हैं, हम सभी देवताओं का आपको कोटि-कोटि प्रणाम है. हे दैत्यों के संहारक! हम आपकी शरण में हैं, आप हमारी रक्षा करें. हे त्रिलोकपति! हम सभी देवता दैत्यों के अत्याचारों से भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं. इस समय दैत्यों ने हमें स्वर्ग से निकाल दिया है और हम सभी देवता बड़ी ही दयनीय स्थिति में मृत्युलोक में विचरण कर रहे हैं. अब आप ही हमारे रक्षक हैं! रक्षा कीजिये. हे कैलाशपति! हे जगन्नाथ! हमारी रक्षा करें.'

देवताओं की करुण पुकार सुनकर, भगवान श्रीहरि बाले- 'हे देवगणो! वह कौन-सा दैत्य है, जिसने देवताओं को जीत लिया है? आप सभी देवगण किसके भय से पृथ्वीलोक में भटक रहे हैं? क्या वह दैत्य इतना बलवान है, जिसने इन्द्र सहित सभी देवताओं को जीत लिया है? तुम निर्भय होकर मुझे सम्पूर्ण वृतान्त बताओ.'

भगवान विष्णु के इन स्नेहमयी वचनों को सुनकर देवेन्द्र ने कहा, 'हे प्रभु! प्राचीन काल में ब्रह्मवंश में उत्पन्न हुआ नाड़ी जंगम नाम का एक असुर था, जिसका मुर नामक एक पुत्र है, जो चन्द्रवती नामक नगरी में निवास करता है, जिसने अपने बल से मृत्युलोक एवं देवलोक पर विजय प्राप्त कर ली है तथा सब देवताओं को देवलोक से निकालकर, अपने दैत्य कुल के असुरों को इन्द्र, अग्नि, यम, वरुण, चन्द्रमा आदि लोकपाल बना दिया है. वह स्वयं सूर्य बनकर पृथ्वी को तापता है तथा स्वयं मेघ बनकर जल की वर्षा करता है, अतः आप इस बलशाली भयानक असुर का संहार करके देवताओं की रक्षा करें.'

देवेन्द्र के मुख से ऐसे वचन सुन भगवान विष्णु बोले, 'हे देवताओं! मैं आपके शत्रु का शीघ्र ही संहार करूँगा. आप सब इसी समय मेरे साथ चन्द्रवती नगरी चलिये.'

देवताओं की पुकार पर भगवान विष्णु तुरन्त ही उनके साथ चल दिये. उधर दैत्यराज मुर ने अपने तेज से जान लिया था कि, श्रीविष्णु युद्ध की इच्छा से उसकी राजधानी की ओर आ रहे हैं, अतः अपने राक्षस योद्धाओं के साथ वह भी युद्ध भूमि में आकर गरजने लगा. देखते-ही-देखते युद्ध आरम्भ हो गया. युद्ध आरम्भ होने पर अनगिनत असुर अनेक अस्त्रों-शस्त्रों को धारण कर देवताओं से युद्ध करने लगे, किन्तु देवता तो पहले ही डरे हुये थे, वह अधिक देर तक राक्षसों का सामना न कर सके और भाग खड़े हुये. तब भगवान विष्णु स्वयं युद्ध-भूमि में आ गये. दैत्य पूर्व से भी अधिक उत्साह में भरकर भगवान विष्णु से युद्ध करने लगे. वे अपने अस्त्र-शस्त्रों से उन पर भयङ्कर प्रहार करने लगे. दैत्यों के आक्रमणों को श्रीविष्णु अपने चक्र एवं गदा के प्रहारों से नष्ट करने लगे. इस युद्ध में अनेक दैत्य सदा के लिये मृत्यु की गोद में समा गये, किन्तु दैत्यराज मुर भगवान विष्णु के साथ निश्चल भाव से युद्ध करता रहा. उसका तो जैसे अभी बाल भी बाँका नहीं हुआ था. वह बिना डरे युद्ध कर रहा था. भगवान विष्णु मुर को मारने के लिये जिन-जिन शस्त्रों का प्रयोग करते, वे सब उसके तेज से नष्ट होकर उस पर पुष्पों के समान गिरने लगते. अनेक अस्त्रों-शस्त्रों का प्रयोग करने पर भी भगवान विष्णु उससे जीत न सके. तब वे आपस में मल्ल युद्ध करने लगे. भगवान श्रीहरि उस असुर से देवताओं के लिये सहस्र वर्ष तक युद्ध करते रहे, किन्तु उस असुर से विजयी न हो सके. अन्त में भगवान विष्णु शान्त होकर विश्राम करने की इच्छा से बदरिकाश्रम स्थित अड़तीस कोस लम्बी एक द्वार वाली हेमवती नाम की एक गुफा में प्रवेश कर गये.

हे अर्जुन! उस गुफा में प्रभु ने शयन किया. भगवान विष्णु के पीछे-पीछे वह दैत्य भी चला आया था. भगवान श्रीहरि को सोता देखकर वह उन्हें मारने को तैयार हो गया. वह सोच रहा था कि, 'मैं आज अपने चिर शत्रु का अन्त करके सदा-सर्वदा के लिये निष्कण्टक हो जाऊँगा', परन्तु उसकी यह इच्छा पूर्ण न हो सकी, क्योंकि उसी समय भगवान विष्णु की देह से दिव्य वस्त्र धारण किये एक अत्यन्त मोहिनी कन्या उत्पन्न हुयी और राक्षस को ललकार-कर उससे युद्ध करने लगी.

उस कन्या को देखकर राक्षस को घोर आश्चर्य हुआ और वह विचार करने लगा कि यह ऐसी दिव्य कन्या कहाँ से उत्पन्न हुयी तदोपरान्त वह असुर उस कन्या से निरन्तर युद्ध करता रहा, कुछ समय व्यतीत होने पर उस कन्या ने क्रोध में आकर उस दैत्य के अस्त्र-शस्त्रों के टुकड़े-टुकड़े कर दिये. उसका रथ तोड़ डाला. अब तो उस दैत्य को बड़ा ही क्रोध आया और वह सारी मर्यादायें भँग करके उस कन्या से मल्ल युद्ध करने लगा.

उस तेजस्वी कन्या ने उस राक्षस को एक प्रहार से मुर्च्छित कर दिया तथा उसकी मूर्च्छा टूटने से पूर्व ही उसका शीश काटकर धड़ से अलग कर दिया.

शीश कटते ही वह असुर पृथ्वी पर गिरकर मृत्यु को प्राप्त हुआ तथा शेष बचे असुर अपने राजा का ऐसा दुःखद अन्त देखकर भयभीत होकर पाताल लोक में भाग गये. भगवान विष्णु जब निद्रा से जागे तो उस असुर को मरा देखकर उन्हें घोर आश्चर्य हुआ और वे सोचने लगे कि इस महाबली को किसने मारा है?

तब वह तेजस्वी कन्या श्रीहरि से हाथ जोड़कर बोली, 'हे जगदीश्वर! यह असुर आपको मारने को उद्यत था, तब मैंने आपके शरीर से उत्पन्न होकर इस असुर का वध किया है.'

कन्या की वचनों को सुन भगवान विष्णु ने कहा, 'तुमने इस असुर का संहार किया है, अतः हे कन्या! मैं तुमसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ. इस रक्षास का अन्त कर तुमने तीनों लोकों के देवताओं के कष्ट को हरा है, इसीलिये तुम अपनी इच्छानुसार वरदान माँग लो. मैं तुम्हारी प्रत्येक इच्छा को पूर्ण करूँगा.'

भगवान विष्णु के वचनों को सुन कन्या बोली, 'हे प्रभु! मुझे यह वरदान प्रदान करें कि जो भी मनुष्य या देव मेरा व्रत करे, उसके सभी पाप नष्ट हो जायें तथा अन्त में उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति हो. मेरे व्रत का आधा फल रात्रि को मिले तथा उसका आधा फल एक समय भोजन करने वाले को मिले. जो श्रद्धालु भक्तिपूर्वक मेरे व्रत को करें, वे निश्चय ही वैकुण्ठलोक को प्राप्त करें. जो मनुष्य मेरे व्रत में दिन तथा रात्रि को एक समय भोजन करे, वह धन-धान्य से भरपूर रहे. कृपा करके मुझे ऐसा वरदान दीजिये.'

भगवान श्रीहरि ने कहा, 'हे कन्या! ऐसा ही होगा. मेरे और तुम्हारे भक्त एक ही होंगे और अन्त में संसार में प्रसिद्धि को प्राप्त होकर मेरे लोक को प्राप्त करेंगे. हे कल्याणी! तुम एकादशी को प्रकट हुयी हो, इसीलिये तुम्हारा नाम भी एकादशी हुआ. क्योंकि तुम मेरे अंश से उत्पन्न हुयी हो, इसीलिये संसार मे तुम उत्पन्ना एकादशी के नाम से विख्यात होगी तथा जो मनुष्य इस दिन व्रत करेंगे, उनके समस्त पाप समूल नष्ट हो जायेंगे. तुम मेरे लिये अब तीज, अष्टमी, नवमी तथा चौदस से भी अधिक प्रिय हो. तुम्हारे व्रत का फल सब तीर्थों के फल से भी महान होगा. यह मेरा अकाट्य कथन है.'

इतना कहकर, भगवान श्रीहरि उस स्थान से अन्तर्धान हो गये.'

श्रीकृष्ण ने कहा, 'हे पाण्डु पुत्र! एकादशी के व्रत का फल सभी व्रतों व सभी तीर्थों के फल से महान है. एकादशी व्रत करने वाले मनुष्यों के शत्रुओं का मैं जड़ से नाश कर देता हूँ तथा व्रत करने वाले को मोक्ष प्रदान करता हूँ. उन मनुष्यों के जीवन के जो भी कष्ट होते हैं. मैं उन्हें भी नष्ट कर देता हूँ. अर्थात मुझे अत्यन्त प्रिय एकादशी के व्रत को करने वाला प्राणी सभी ओर से निर्भय तथा सुखी होकर अन्त में मोक्ष को प्राप्त होता है. हे कुन्ती पुत्र! यह मैंने तुम्हें एकादशी की उत्पत्ति के विषय में बतलाया है. एकादशी व्रत सभी पापों को नष्ट करने वाला और सिद्धि प्रदान करने वाला है. श्रेष्ठ मनुष्यों को दोनों पक्षों की एकादशियों को समान समझना चाहिये. उनमें भेद-भाव करना उचित नहीं है. जो मनुष्य एकादशी माहात्म्य का श्रवण एवं पठन करेंगे, उन्हें अश्वमेध यज्ञ के समान फल प्राप्त होगा. यह मेरा अकाट्य वचन है.'

इति उत्पन्ना एकादशी व्रत समाप्त!

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डिस्क्लेमर: यहां दी गई जानकारी धार्मिक शास्त्र की मान्यताओं पर आधारित है तथा केवल सूचना के लिए दी जा रही है। News24 इसकी पुष्टि नहीं करता है।


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