अगले तीन दशक तक भाजपा की धूरी पर घूमेगी ‘नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान पर खड़े भारत’ की राजनीति
Indepenendence Day: 28 जुलाई 2023 की वो शाम और खचाखच भरा राजधानी दिल्ली का प्रगति मैदान, जब ‘भारत मंडपम’ के उद्घाटन समारोह में देश-दुनिया के नामी-गिरामी लोगों के बीच पीएम मोदी दुनिया को देश के भविष्य के बारे में गारंटी दे रहे थे। क्या नजारा था वो? बतौर पीएम मोदी ने गारंटी दी कि फिलहाल दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला भारत उनकी सरकार के तीसरे कार्यकाल में दुनिया की तीन सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हो जाएगा। दरअसल, पीएम मोदी का यह उद्घोष आने वाले 10-20 साल के राजनैतिक भारत की निशानी है। अगर पीएम मोदी साल 2024 में होने जा रहा आम चुनाव जीतकर हैट्रिक लगा पाते हैं तो उनकी सरकार के पास ऐसा करने के लिए साल 2029 तक का वक्त होगा। इस बात में कोई दो राय नहीं कि भारत की राजनैतिक रूपरेखा की तस्वीर ऐसे वक्त में खींची जा रही है, जब कोविड महामारी के बाद पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था हांफ रही है। देश के लिए ग्लोबल तौर पर यह बहुत बड़ी चुनौती है।
'Nation First-Always First' को ध्यान में रखते हुए जरा सोचिए, जब मौजूदा सरकार पर सांप्रदायिक माहौल खड़ा करने का आरोप चस्पा हो, विदेशी दौरे पर पीएम से जब सवाल पूछे जाते हों कि आपके देश में सब समाज के लिए एक जैसा माहौल है क्या? जब विपक्षी गठबंधन 'I.N.D.I.A' सत्ताधारी दल पर संवैधानिक ढांचों को खत्म करने का आरोप लगा रहा हो। और तो और, देश की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी कॉन्ग्रेस पीएम मोदी की इस गारंटी पर उन्हें आड़े हाथों लेते हुए कह रही हो कि कि सरकार बेहद चतुराई से उन कीर्तिमानों को बनाने की गारंटी देती है, जिनका होना पहले से तय है। वैसे समय में अगर बीजेपी के सबसे विश्वसनीय चेहरे पीएम मोदी डंके की चोट पर कह रहे हों कि 7-8 फीसदी ग्रोथ रेट के साथ देश दुनिया की तीसरी अर्थव्यवस्था बन जाएगा तो निश्चित तौर पर वह 2034 के भारत का घोषणापत्र पेश कर रहे हैं। यहीं से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि देश में चल रहे दो समान और समांतर विचारधारा वाले राजनैतिक दलों का भारत कैसा होगा।
चुनावी राजनीति में बीजेपी बेहद मज़बूत रहेगा
हर कोई देख और समझ सकता है कि सबका साथ सबका विकास के साथ शुरू हुआ राजनैतिक भारत का सफर नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान के रास्ते न्याय के साथ विकास की मंजिल पाने वाले पथिक की तरह मंझधार में खड़ा है। ऐसे में यह तो तय है कि अगले दो दशकों में देश की चुनावी राजनीति में बीजेपी एक चुनावी ताकत बनी रहेगी। देश की राजनीति विकल्पविहीन भी नहीं है, लेकिन बावजूद इसके बीजेपी आने वाले दशकों में भारत में एक ऐसी चुनावी पार्टी बनी रहेगी, जिसे हराना बहुत कठिन होगा। जो भी लोग ये सोचते हैं कि जो उफान पर होगा, वो ढलान पर भी जाएगा ही तो हो सकता है कुदरत के कानून के तहत ऐसा हो भी जाए, लेकिन उसमें काफी समय लगेगा।
पूरी दुनिया में आर्थिक मंदी का संकेत तो भारत के पास आत्मनिर्भर बनने का अवसर
इतना ही नहीं, यह तथ्य भी एकदम दर्पण की तरह साफ है कि भारत में एक स्तर पर जब आप एक बार 30 फीसदी से अधिक वोट सुरक्षित रख लेते हैं, तब किसी के चाहने से आप चुनाव नहीं हार जाएंगे। ऐसे में भले ही विपक्ष का अपना अंकगणित हो, जिसके तहत वो 60 फीसदी वोट की गोलबंदी की बात कह रहे हों। बावजूद इसके फिर से एक बार यही सच है कि 30 फीसदी से ज्यादा वोट रखने के वावजूद बीजेपी हर चुनाव जीतते रहेगी। अब जरा इतिहास के पन्नों को उलटें तो साफ है कि शुरुआत के 40-50 साल में भारत में राजनीति कॉन्ग्रेस के इर्द-गिर्द ही घूमती रही। या तो आप कॉन्ग्रेस के साथ थे या आप फिर खिलाफ थे। ठीक इसी तरह अगले 20-30 साल में इसकी धुरी बीजेपी रहने वाली है। या तो लोग बीजेपी के साथ होंगे या फिर खिलाफ होंगे। भई मतलब साफ है, सिक्के के दो ही पहलू होते हैं। तीसरा आज तक किसी ने देखा हो बताए। अब जो लोग यह सोचते हैं कि बीजेपी अपने आप नीचे आ जाएगी तो शायद वो 'दिल को बहलाने के लिए गालिब ख्याल अच्छा है' वाली मुग्धावस्था में हैं।
एक बड़ा सवाल-अगले 10 साल में कैसी होगी देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था?
दूसरी ओर जब-जब हम ग्लोबल वर्ल्ड के मुकाबले ग्लोबल इंडिया की बात करते हैं , तब-तब यह सवाल लाजमी तौर पर पूछा जाता है कि अगले 10, 20, 30 या 40 साल बाद भारत की अर्थव्यवस्था की सूरत कैसी होगी? कभी यह सवाल देश के सामने किसी पॉलिटिकल साइंटिस्ट ने देश के राजनैतिक ढांचे के बारे में किया हो, लेकिन 2014 का आम चुनाव हो या फिर 2109 का चुनाव या फिर बीते 9 साल में देश में हुए अन्य चुनाव-जिस तरह से गठबंधन के दौर के बाद प्रचंड बहुमत वाली पीएम मोदी चला रहे हैं, उससे ये सवाल उठना लाजमी हो जाता है कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था अगले 10 साल में कैसी होगी?
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केंद्र सरकार और क्षेत्रीय दलों का रिश्ता
साल 1989 के बाद से देश की राजनीति में क्षेत्रीय दलों के जरिये क्षेत्रीय क्षत्रपों का उद्भव हुआ है। चाहे वो राष्ट्रीय दल हों या क्षेत्रीय दल, सभी के करिश्माई चेहरे आंचल के फूल बनकर ही सामने आए। यूपी में मुलायम सिंह यादव, मायावती, कांशीराम, कल्याण सिंह वगैरह-वगैरह। बिहार में लालू यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, गुजरात में केशु भाई पटेल, शंकर सिंह बाघेला, झारखंड में शिब्बू सोरेन, महाराष्ट्र में शरद पवार, बाल ठाकरे जैसे कई नेता अपनी जमीनी हैसियत से केंद्र के चमकते चेहरे को जमींदोज कर चुके थे। बीते कुछ समय से सब केंद्र की गठबंधन राजनीति के मनसबदार बने हुए थे। पहले मनसबदार की ताकत का अंदाजा इससे लगाया जाता था कि वह शीर्ष सत्ता के लिए कितने घुड़सवार जुटा सकता है। आज घोड़ों और सवारों की जगह सांसदों और विधायकों ने ले ली है।
2026 के बाद देश के लोकसभा और राज्यसभा सांसदों के सीटों में होगा इजाफा
भारत में एक और मसला यह है कि हर संसदीय क्षेत्र में वोटरों की संख्या बहुत बढ़ गई है। सवाल यह भी है कि आखिर एक सासंद भविष्य में कितने वोटरों का प्रतिनिधित्व कर सकता है? वह असरदार ढंग से कितने लोगों का नुमाइंदगी कर सकता है? यह सवाल इसलिए मौजूं है कि साल 2001 से यह प्रश्न मुंह बाए खड़ा है, जब पूर्ववर्ती वाजपेयी सरकार ने 25 वर्षों के लिए संसदीय क्षेत्रों की संख्या तय कर दी थी।
देश की एक अरब से अधिक आबादी को देखते हुए यह फैसला अजीब था. इसका मतलब है कि हरेक सांसद औसतन 18.5 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहा था। आज यह संख्या 24 लाख पहुंच गई है। लिहाजा साल 2026 तक देश में संसदीय सीटों की संख्या का बढ़ना तय है। इसका अंदाजा देश की नई संसद बनने और उसके उद्घाटन से जुड़ा है।
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