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कौन थे गोपीनाथ बोरदोलोई? जिनकी मूर्ति का PM मोदी ने किया अनावरण, ये ना होते तो…पाकिस्तान का हो जाता असम

सीएम सरमा ने अपने एक्स पोस्ट में लिखा, 'हम आज एक ऐसे महानायक को नमन कर रहे हैं, जिनकी वजह से असम पूर्वी पाकिस्तान में नहीं मिला. अगर बोरदोलोई न होते, तो असम का इतिहास आज कुछ और होता.'

गुवाहाटी के लोकप्रिय गोपीनाथ बोरदोलोई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर शनिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने असम के पहले मुख्यमंत्री और भारत रत्न गोपीनाथ बोरदोलोई की भव्य प्रतिमा का अनावरण किया. इस मौके को मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा भी मौजूद रहे और इस घटना को असम के लिए गौरव का क्षण बताया. गोपीनाथ बोरदोलोई के बारे में बोलते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि वह ऐसे नेता थे, जिनकी दूरदर्शी सोच ने आज का असम को बनाने में अहम योगदान दिया.

सीएम सरमा ने बताया महानायक


सीएम सरमा ने अपने एक्स पोस्ट में लिखा, 'हम आज एक ऐसे महानायक को नमन कर रहे हैं, जिनकी वजह से असम पूर्वी पाकिस्तान में नहीं मिला. अगर बोरदोलोई न होते, तो असम का इतिहास आज कुछ और होता.' उन्होंने बताया कि प्रतिष्ठित मूर्तिकार राम सुतार द्वारा निर्मित यह प्रतिमा गुवाहाटी एयरपोर्ट के द्वार पर स्थापित की गई है, जो पूर्वोत्तर भारत की पहचान और भारत की एकता का प्रतीक बनेगी.

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कौन थे गोपीनाथ बोरदोलोई?


6 जून 1890 को जन्मे गोपीनाथ बोरदोलोई केवल असम के पहले मुख्यमंत्री नहीं थे, बल्कि वे भारत के उन गिने-चुने नेताओं में से थे जिन्होंने देश के विभाजन के समय अपने राज्य को टूटने से बचाया. 1940 के दशक में जब 'ग्रुपिंग प्लान' के तहत असम को पूर्वी पाकिस्तान में शामिल करने की साजिश रची जा रही थी, तब बोरदोलोई ने अपने राजनीतिक कौशल और दृढ़ निश्चय से इस योजना को विफल कर दिया.

चट्टान की तरह खड़े रहे बोरदोलोई


जिन्ना के दबाव, ब्रिटिश राजनीति की चालों और मुस्लिम लीग की रणनीतियों के बीच बोरदोलोई चट्टान की तरह खड़े रहे. उन्होंने साफ कहा था 'असम भारत का हिस्सा है और रहेगा.' उसी समय उन्होंने गांधीजी और सरदार पटेल से संपर्क कर यह सुनिश्चित किया कि असम की स्वतंत्र पहचान बनी रहे. उनके अथक प्रयासों की बदौलत असम आज भारतीय गणराज्य का अभिन्न अंग है.

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डॉक्टर पिता के घर में जन्मे गोपीनाथ

बोरदोलोई का जीवन राजनीति से परे सामाजिक सेवा को समर्पित था. डॉक्टर पिता के घर में जन्मे गोपीनाथ बचपन से ही दूसरों की सहायता करने की भावना लेकर बड़े हुए. कोलकाता विश्वविद्यालय से पढ़ाई के दौरान वे बंगाल नवजागरण के विचारों से प्रभावित हुए और शिक्षा पूरी करते ही कांग्रेस आंदोलन में शामिल हो गए. 1950 में उनके निधन के दशकों बाद 1999 में भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से मरणोपरांत सम्मानित किया.


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