आज देश में असम का कार्बी आंगलोंग जिला क्यों बन गया है सुर्खियों में. आखिर क्या है इसका इतिहास और यह इलाका कैसे बन गया है हिंसा का अखाड़ा…न्यूज 24 आपको भड़की इस दंगे की एक एक पहलुओं से रूबरू कराएगा.
साल 1975, जगह महराजगंज, गांव सिहोता बंगड़ा. जी हां इस गांव के रहने वाले राम दुनिया सिंह काम की तलाश में असम पहुंचे. लेकिन गुवाहाटी पहुंचने के बाद इन्हें कई दिनों तक काम नहीं मिला. इसी बीच इन्हें जानकारी मिली कि असम के कार्बी आंगलोंग जिले में पूल बनाने का का शुरू किया जा रहा था. फिर क्या था, राम दुनिया पहुंच गए इस जगह पर और इन्हें दिहाड़ी मजदूरी का काम भी मिल गया. लेकिन आपको बता दें कि यह उस दौड़ का वह इलाका था, जो सहरी जीवन से जुड़ने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर को लेकर जदोजहद कर रहा था.
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इतिहासकार और असम मामलों के जानकार राजेश राय के मुताबिक, कोपिली नदी और आस-पास के नालों पर पुल बनाने की योजना सरकार ने की थी. योजना तैयार हो गई, लेकिन सबसे बड़ी समस्या काम करने वाले मिस्री और मजदूरों को लेकर थी, जो वहां पर मिल नहीं पा रहे थे. जब राम दुनिया सिंह इस जगह पर पहुंचे तो स्थानीय इंजीनियर ने इन्हें ज्यादा से ज्यादा मिस्री ओर मजदूर लाने को कहा जो इस कठिन जगह पर काम कर सके और जिन्हें ईंट-गारे का पक्का काम आता हो.
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राम दुनिया सिंह को यह भी कहा गया कि वो जितना ज्यादा मजदूर और मिस्री लायेगा, उसे प्रति मजदूर के हिसाब से कमिशन भी दिया जाएगा. फिर क्या था राम दुनिया सिंह ने 200 मजदूरों का एक जत्था जो कि महराजगंज, छपरा, सिवान के रहने वाले थे इन्हें लेकर कार्बी आंगलोंग जिला पहुंच गए.
कुछ समय बीत जाने के बाद इन मजदूरों ने अपने परिवार को भी साथ में रख लिया. मजदूर कहीं बीच में ही काम छोड़ कर नहीं चले जाएं, इसके लिए स्थानीय अधिकारियों ने कुछ जमीन पर तंबू लगाकर रहने की व्यवस्था कर दी. बिहारी मजदूरों के काम करने की खबर नेपाल के बीरगंज में लगती है, जिसके बाद यहां से मजदूरों का जत्था कार्बी आंगलोंग जिला पहुंच गया, इन्हें भी रहने का इंतजाम दे दिया गया. लेकिन जब काम खत्म हुआ, तो मजदूर राम दुनिया सिंह ने घर वापसी की जगह इन्हीं इलाकों में परिवार के साथ बसने का मन बना लिया था. क्योंकि यहां की जमीन बेहद ही उपजाऊ थी. यहां गन्ने की खेती और पशुपालन में बहुत पैसा था.
बिहारी मजदूरों ने इसे अपने भविष्य के लिए बेहतर माना क्योकि बिहार में न काम था और ना ही खेती के लिए जमीन. उस समय स्थानीय आदिवासी आबादी मुख्य रूप से झूम खेती पर निर्भर थी. जिसका फायदा बिहारियों और नेपालियों ने उठाया और खेती करने के साथ ही दूध उत्पादन पर भी अपनी पक्की जगह बना ली.
आपको बता दें कि एक समय इनकी संख्या 200 थी और सरकारी आकड़ों के मुताबिक वर्तमान में इनकी तादाद 40 हजार हो गई है. भले ही इनका वोटर लिस्ट में नाम है, लेकिन स्थानिय लोग इन्हें अभी भी बाहरी या बिहारी या फिर नेपाली कहकर बुलाते है. बिहारियों की सबसे ज्यादा तादाद कोपिली नदी के किनारे सबसे ज्यादा खेरोनी और लंका के आस-पास है. और आज विवाद का यही कारण बन गया है.
लोकल लोगों के मुताबिक ये बाहरी हैं इन्हें बाहर किया जाए. बिहारियों के मुताबिक ये पिछले 50 सालों से यहां पर रह रहे हैं और इनकी तीसरी पीढ़ी की शुरुआत हो गई है. इसलिए इस जगह पर इनका ही हक है. बहरहाल लोकल बनाम बाहरी की इस लड़ाई में सेना को आना पड़ा है, फ्लैग मार्च करना पड़ा हैं, आगे क्या फैसला होगा यह तय सरकार करेगी.
असम हिंसा मामला
वहीं, लेफ्टिनेंट कर्नल महेंद्र रावत ने कहा कि कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए नागरिक अधिकारियों द्वारा भारतीय सेना से सहायता मांगी गई है. जिसके बाद पश्चिम कार्बी आंगलोंग के अशांत क्षेत्रों में सेना की टुकड़ियों को तैनात किया गया है और दो बटालियन को रिजर्व में रखा गया है.