Opinion: कश्मीर पर पंडित नेहरू की 5 बड़ी भूल… केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू का लेख
kiren rejiju
कश्मीर पर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की ‘पांच भूल’ या ‘फाइव ब्लंडर्स’ पर मैंने हाल ही में जो लेख ‘Five Nehruvian Blunders of Kashmir’ लिखा, उस पर कई प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। अन्य बातों के अलावा मैंने लिखा था कि महाराजा हरि सिंह की सरकार 15 अगस्त, 1947 से पहले भी भारत में शामिल होना चाहती थी, लेकिन नेहरू ने इनकार कर दिया। यह दावा किसी और तथ्य पर नहीं बल्कि नेहरू द्वारा खुद कही गई बातों पर आधारित था।
इस संदर्भ में डॉ. कर्ण सिंह की मेरे लेख पर जो प्रतिक्रिया मिली है, वह बहुत ही निराशाजनक है। उन्होंने नेहरू की अन्य चार भूलों- खुद ही जोर देकर कहना कि विलय अस्थायी था, पाकिस्तान के हमले के बाद संयुक्त राष्ट्र में गलत अनुच्छेद के तहत मामले को ले जाना, जिससे वह हमलावर के बजाय विवाद का एक पक्ष बन जाए, संयुक्त राष्ट्र द्वारा अनिवार्य जनमत संग्रह के मिथक को कायम रहने देना और विभाजनकारी अनुच्छेद 370 के निर्माण को पूरी तरह से छोड़ दिया।
जाहिर है, इसका कोई जवाब नहीं था या बचाव का कोई मुमकिन तरीका भी नहीं था, लेकिन नेहरू की पहली और प्राथमिक गलती- नेहरू द्वारा स्वयं विलय में देरी करना... पर डॉ. कर्ण सिंह ने एक मनगढ़ंत इतिहास पेश किया है, खराब शब्दों का सहारा लिया है। वह भी किसी तरह नेहरू को इस दोष से निकालने के चक्कर में किया गया है, लेकिन कांग्रेस के लिए इतना ही काफी नहीं था।
उनकी भूलों के भारी सबूतों के बावजूद नेहरू के प्रति आजीवन समर्पण भी डॉ. कर्ण सिंह को कांग्रेस के जयराम रमेश द्वारा उनकी हैसियत को कड़वे तरीके से याद दिलाने से नहीं बचा सका।
यह एक अच्छी तरह से स्थापित तथ्य है कि कांग्रेस और उसके शासक वंश ने नेहरू (राजवंश के बाद के सदस्यों) को पहले और भारत को बाद में रखा, लेकिन अब समय आ गया है कि इतिहास के छात्रों को तथ्यों के आलोक में इतिहास को सही करने, नेहरू को अच्छा दिखाने के लिए परिवार के इतिहासकारों द्वारा गलत तरीके से बदनाम किए गए लोगों के नाम को साफ करने का साहस मिले।
उठाए गए विशिष्ट बिंदुओं के लिए यहां तथ्यों का एक संक्षिप्त सेट दिया गया है।
विलय के समय पर
इसके बारे में 24 जुलाई, 1952 को लोकसभा में दिया गया नेहरू का भाषण निर्णायक होना चाहिए। जहां उन्होंने उल्लेख किया कि विलय का प्रश्न ‘हमारे सामने अनौपचारिक रूप से लगभग जुलाई या जुलाई के मध्य में आया था’ और आगे कहा कि वहां हमारा लोकप्रिय संगठन नेशनल कांफ्रेंस और उसके नेता और महाराजा की सरकार के साथ भी हमारा संपर्क था। तब नेहरू ने उसी भाषण में अपने खुद के रुख पर जोर दिया, ‘हमने दोनों को सलाह दी थी कि कश्मीर एक विशेष मामला है और वहां चीजों को जल्दबाजी में करने की कोशिश करना सही या उचित नहीं होगा.’ चूंकि इस इतिहास के खंडन के लिए घुमावदार तरीकों का सहारा लिया गया है, इसलिए आइए हम आगे के प्राथमिक और साथ ही पुष्टिकारक साक्ष्यों को देखें।
सबसे पहले 21 अक्टूबर, 1947 को कश्मीर के प्रधानमंत्री एमसी महाजन को एक पत्र में नेहरू ने लिखा, ‘इस स्तर पर भारतीय संघ के लिए किसी भी तरह के जुड़ाव की घोषणा करना संभवतः अवांछनीय होगा.’ ये शब्द क्या संदेश देते हैं? कौन विलय की मांग कर रहा था और कौन इसमें देरी कर रहा था? पाकिस्तान पहले ही 20 अक्टूबर, 1947 को कश्मीर पर आक्रमण कर चुका था। एक दिन बाद 21 अक्टूबर को नेहरू अभी भी कश्मीर सरकार को सलाह दे रहे थे कि जब तक उनकी व्यक्तिगत इच्छाएं और एजेंडा पूरा नहीं हो जाता, तब तक वह कश्मीर सरकार को भारत में शामिल न होने की सलाह दे रहे थे, (जिसका उन्होंने उसी पत्र में साफ तौर से उल्लेख किया है।) क्या इस सबूत को भी नकारा जाएगा?
दूसरा, जब यह मुद्दा अभी भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उभर ही रहा था, 25 नवंबर 1947 को संसद में दिए गए एक भाषण में नेहरू ने कहा, ‘हम ऊपर से केवल एक विलय नहीं चाहते थे, बल्कि उनके लोगों की इच्छा के अनुसार एक विलय चाहते थे। वास्तव में हमने किसी तेज फैसले को प्रोत्साहित नहीं किया।’
दिन के उजाले की तरह साफ है कि एक बार नहीं बल्कि कई मौकों पर नेहरू ने खुद कहा कि कौन विलय पर शर्तें लगा रहा था और इस तरह इसे तब तक के लिए टाल दिया गया जब तक कि व्यक्तिगत एजेंडा पूरा नहीं हो गया, लेकिन यह एकमात्र सबूत नहीं है, हालांकि यह पर्याप्त से भी ज्यादा उपलब्ध हैं, जो घटनाओं की श्रृंखला पर प्रकाश डालते हैं।
तीसरा, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष आचार्य कृपलानी ने मई 1947 में कश्मीर का दौरा किया। 20 मई, 1947 को द ट्रिब्यून में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कृपलानी के विचारों के बारे में यह दर्ज किया गया, ‘हरि सिंह भारत में शामिल होने के इच्छुक थे और हरि सिंह के खिलाफ नेशनल कॉन्फ्रेंस की ओर से ‘कश्मीर छोड़ो’ की मांग उठाना सही नहीं था। यह कहते हुए कि ‘वह एक बाहरी व्यक्ति नहीं हैं’… उन्होंने नेशनल कॉन्फ्रेंस से विशेष रूप से ‘कश्मीर छोड़ो’ की मांग को छोड़ने की अपील की।’
1946 में शेख अब्दुल्ला ने ‘कश्मीर छोड़ो’ आंदोलन शुरू किया था। नेहरू ने इस आंदोलन को अपना समर्थन दिया था। एक डोगरा राजा हरि सिंह कश्मीर के लिए एक बाहरी व्यक्ति नहीं थे और कश्मीर घाटी में किसी और के जितने उनके भी अधिकार थे। औपनिवेशिक अंग्रेजों के खिलाफ ‘भारत छोड़ो’ की अपील को कश्मीरी हिंदू शासक के खिलाफ ‘कश्मीर छोड़ो’ की अपील के साथ दोहराने के बेतुकेपन को हर दूसरे कांग्रेसी नेता ने समझा था। फिर भी नेहरू ने अब्दुल्ला का जमकर समर्थन किया और यहां तक कि उनका समर्थन करने के लिए कश्मीर पहुंच गए। इसने घटनाओं की एक श्रृंखला शुरू की, जिसके दशकों लंबे दुखद नतीजे हुए।
1931 की शुरुआत में लंदन में गोलमेज सम्मेलन के दौरान हरि सिंह ने हाउस ऑफ लॉर्ड्स में चैंबर ऑफ प्रिंसेस के वाइस चांसलर के रूप में कहा था, ‘मैं पहले भारतीय हूं, और फिर महाराजा हूं।’ इसी तरह वही हरि सिंह साफ तौर से 1947 में कई मौकों पर भारत में शामिल होने की गुहार लगा रहे थे, लेकिन नेहरू के एजेंडे के पूरा होने तक हर मौके पर उन्हें नाकाम कर दिया गया।
चौथा, जून 1947 में कश्मीर की अपनी यात्रा से पहले लॉर्ड माउंटबेटन को नेहरू का नोट इस बात पर स्पष्ट है कि हरि सिंह वास्तव में क्या चाहते थे। नेहरू ने उस नोट के पैरा 28 में लिखा- ‘भारत की संविधान सभा में शामिल होने के लिए कश्मीर की सामान्य और साफ इच्छा प्रतीत होती है। यह लोकप्रिय मांग और महाराजा की इच्छा दोनों को पूरा करेगा।’ इसलिए जून 1947 में नेहरू पूरी तरह से वाकिफ थे कि हरि सिंह वास्तव में क्या चाहते हैं। इसमें एकमात्र बाधा नेहरू का अपना निजी एजेंडा था।
पांचवां, जुलाई 1947 में विलय के प्रयास को नेहरू ने खारिज कर दिया था। पाकिस्तान के आक्रमण से एक महीने पहले हरि सिंह ने सितंबर 1947 में भी एक प्रयास किया था। विलय के समय कश्मीर के प्रधान मंत्री महाजन सितंबर 1947 में नेहरू के साथ अपनी बैठक को याद करते हैं। अपनी आत्मकथा में लिखते हुए महाजन कहते हैं, ‘मैं भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से भी मिला था… महाराजा भारत में शामिल होने के लिए तैयार थे और राज्य के प्रशासन में आवश्यक सुधार लाने के लिए भी। हालांकि वह चाहते थे कि प्रशासनिक सुधारों के सवालों को बाद में लिया जाए। पंडितजी राज्य के आंतरिक प्रशासन में तत्काल बदलाव चाहते थे।’
इस तरह हम देखते हैं कि एक बार नहीं बल्कि कई मौकों पर नेहरू के बयान और नेहरू द्वारा लिखे गए पत्र पुष्टिकारक सबूतों के साथ साफ तौर से इस तथ्य को स्थापित करते हैं कि कश्मीर के भारत में विलय में देरी का एकमात्र कारण नेहरू की अपनी निजी सनक थी।
वास्तव में क्या हुआ
अब्दुल्ला ने मई 1946 में ‘कश्मीर छोड़ो’ की मांग की। हरि सिंह ने 20 मई 1946 को उन्हें गिरफ्तार करवा दिया। इसके बाद नेहरू अब्दुल्ला का समर्थन करने कश्मीर चल पड़े, लेकिन हरि सिंह ने उन्हें बॉर्डर पर हिरासत में ले लिया। नेहरू को हिरासत में लिए जाने के बाद उनकी प्रतिक्रिया के बारे में उनके एक करीबी ने कुछ यूं दर्ज किया- ‘उन्होंने गुस्से में अपने पैर जमीन पर पटके और कहा कि एक दिन कश्मीर के महाराजा को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के चुने हुए अध्यक्ष के प्रति बेरुखी दिखाने के लिए पछताना होगा और माफी मांगनी पड़ेगी।’ नेहरू काफी नाराज थे और इस बेरुखी का बदला लेने के लिए निर्दयता के साथ अपना समय चुना।
1947 की घटनाओं का सिलसिला
कृपलानी ने मई 1947 में ‘कश्मीर छोड़ो’ की मांग छोड़कर भारत के साथ मिलने पर जोर दिया। यही चीज हरि सिंह भी चाहते थे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका।
नेहरू को यहां तक कि जून 1947 में पता था कि हरि सिंह भी भारतीय संघ में मिलना चाहते हैं। नेहरू ने माउंटबेटन के लिखे पत्रों में इस बात का जिक्र भी किया है।
हरि सिंह की सरकार ने भारत में शामिल होने के लिए भारतीय नेतृत्व से जुलाई 1947 (नेहरू के उनके अपने बयान के मुताबित) में संपर्क किया, लेकिन नेहरू ने इसे खारिज कर दिया। किसी भी अन्य रजवाड़े के लिए भारत में विलय को मंजूरी देने के लिए जनता के समर्थन की शर्त नहीं रखी गई थी। ऐसा करना न तो कानूनी तौर पर जरूरी था, न ही ऐसा करने के लिए किसी ने विवश किया था। केवल कश्मीर के लिए नेहरू ने ऐसा किया, ताकि तब तक विलय को टाला जा सके, जब तक कि अब्दुल्ला की मांग पूरी नहीं हो जाती।
इसके बाद भी अडिग हरि सिंह ने फिर कोशिश की। इस बार एक नए व्यक्ति के जरिए। वो व्यक्ति थे कश्मीर के नए प्रधानमंत्री महाजन। उन्होंने सितंबर 1947 में भारत में विलय के लिए निजी तौर पर नेहरू से संपर्क किया। इस बार हरि सिंह कश्मीर के प्रशासन में बदलाव को लेकर नेहरू की अधिकतर मांगों को मानने के लिए तैयार थे, लेकिन उन्होंने केवल इतना अनुरोध किया ये सब चीजें विलय के बाद की जाएंगी। नेहरू तब भी अड़े हुए थे और प्रशासन में बदलाव चाहते और पहले अब्दुल्ला की ताजपोश और फिर विलय चाहते थे।
नेहरू के इस अड़ियल रवैये को देखते हुए हरि सिंह ने आगे और नरमी बरती और 29 सितंबर 1947 को अब्दुल्ला को जेल से रिहा कर दिया। इस नरम रुख के साथ हरि सिंह की सरकार ने फिर से 20 अक्टूबर 1947 को भारत में विलय के लिए नेहरू से संपर्क किया। नेहरू ने एक बार फिर 21 अक्टूबर को पत्र लिखकर इससे इनकार कर दिया और इस बार वह जो चाहते थे उसे लिखित में दे दिया। उन्होंने लिखा- प्रांतीय सरकार के मुखिया के तौर पर अब्दुल्ला की ताजपोशी। नेहरू अपनी मांग के सिलसिले को लेकर पूरी तरह से स्पष्ट थे। उनका कहना था कि पहले अब्दुल्ला की ताजपोशी फिर भारत में विलय।
अगर किसी को इन अविवादित घटनाओं के इस सिलसिले को लेकर कोई भी संदेह है तो इसके लिए एक और सबूत है। नेहरू ने एक बार फिर लिखित में ये बातें कही हैं। 27 सितंबर 1947 को सरदार वल्लभभाई पटेल को लिखे एक पत्र में नेहरू कहते हैं- ‘महाराजा के सामने कोई दूसरा विकल्प नहीं है। वे शेख अब्दुल्ला और नेशनल कांफ्रेंस के नेताओं को रिहा करने के लिए उनसे मित्रवत संपर्क करें, उनसे सहयोग लें और उन्हें यह महसूस कराएं कि वास्तव में ऐसा किया गया और इसके बाद भारत में विलय की घोषणा करें।’
नेहरू कश्मीर में भारत के विलय के बाद हरि सिंह को अपने हिसाब से कुछ भी कराने के लिए विवश कर सकते थे। बिल्कुल ऐसा ही अन्य रजवाड़ों के साथ हुआ भी। तार्किक रूप से और कॉमन सेंस के हिसाब से भी यही सही था कि नेहरू पहले राष्ट्रीय हित में देश को एक सूत्र में बांधे और कश्मीर का भारत में विलय करवाकर पाकिस्तान के लिए हमेशा-हमेशा के लिए दरवाजे बंद कर दें। उसके बाद वह अगर अब्दुल्ला को लेकर इतना अड़े हुए थे, तो उनको सरकार का मुखिया बना देते। ऐसा करना- ‘इंडिया फर्स्ट’ की रणनीति होती। लेकिन कुछ दुरुह कारणों से नेहरू ने अब्दुल्ला को पहले और भारत को बाद में रखा।
अंत में इतिहास ने अपने हिसाब से करवट बदली। पाकिस्तान को कश्मीर में घुसपैठ करने का समय मिल गया और वह एक हिस्सेदार बन गया और एक बड़े हिस्से को कब्जे में ले लिया। इसके बाद कश्मीर में जो होता रहा है, वो सब इस मूल पाप की वजह से हुआ।
हरि सिंह के लिए वास्तव में वह ‘क्विट कश्मीर’ चाहते थे, आखिरकार बाद में केवल उनकी राख ही लौटी।
पाकिस्तानी घुसपैठ के बारे में खुफिया इनपुट की पूर्व सूचना
डॉक्टर कर्ण सिंह ने भी अपने लेख में पाकिस्तानी हमले के बारे में पूर्व खुफिया सूचना न होने का उल्लेख किया है। शायद उनकी बातों का यह अर्थ है कि हरि सिंह के पास इंटेलिजेंस इनपुट नहीं था। यही बात पंडित जवाहरलाल नेहरू के बारे में सच नहीं है। 25 नवंबर 1947 को संसद में दिए गए भाषण में नेहरू ने इस बात को स्वीकार किया था कि उन्हें पूर्व में ही इसकी जानकारी मिल गई थी। उन्होंने कहा था, ‘सितंबर में हमारे पास सूचना पहुंची थी कि उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रदेश के आदिवासियों को इकट्ठा कर कश्मीर सीमा पर भेज दिया गया था।’ उसी भाषण में उन्होंने आगे कहा था, ‘तकरीबन उसी समय राज्य ने हमसे हथियार और गोला-बारूद मांगे थे। हम लोग इसे सामान्य तरीके से उन तक पहुंचाने के लिए तैयार हो गए थे, लेकिन तथ्य यह है कि पूरे मामले के और अधिक गंभीर रूप लेने तक किसी भी तरह की आपूर्ति नहीं की गई थी।’
इस भाषण से पहले नेहरू ने 2 नवंबर 1947 को कश्मीर मसले पर राष्ट्र को संबोधित किया था। अपने लंबे भाषण में नेहरू ने कहा था, ‘कश्मीर रियासत ने हम लोगों से हथियार मांगे थे, लेकिन हम लोगों ने इसको लेकर किसी तरह का फौरी कदम नहीं उठाया। हमारे राज्य और रक्षा मंत्रालय की ओर से इसकी स्वीकृति दिए जाने के बावजूद हकीकत में हथियार नहीं भेजे गए।’
इससे यह स्पष्ट होता है कि नेहरू क्षेत्र की सुरक्षा को लेकर किस तरह की संवेदनहीन भूमिका निभा रहे थे। अपनी मांगों की पूर्ति के लिए वह इसे (कश्मीर पर हमले के दौरान हथियारों की आपूर्ति) टूल के तौर पर इस्तेमाल कर रहे थे। नेहरू के इस कृत्य की कीमत खासकर कश्मीर क्षेत्र और भारत अभी तक चुका रहा है।
अन्य हस्तक्षेप
कश्मीर को भारत का अंग बनाने के लिए कालक्रम में कई अतिरिक्त हस्तक्षेप भी किए गए, जो दुविधा में पड़े हरि सिंह और उत्सुक नेहरू के पुराने तौर-तरीकों को प्रदर्शित करता है। नए तथ्यों और दस्तावेजों (कुछ हाल में ही सार्वजनिक हुए हैं) का संपूर्णता में अध्ययन करने से कश्मीर के विलय के कालक्रम को लेकर नया दृष्टिकोण सामने आता है। नेहरू के लेखन और भाषण इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि उस घटना के वक्त हकीकत में क्या हुआ था।
अंत में, कांग्रेस ने एक लेख पर पूर्वानुमान के मुताबिक ही प्रतिक्रिया दी है, जिसमें नेहरू के भाषणों को प्राथमिक साक्ष्य मानते हुए लिखा गया है। इतिहास को झुठलाने की कांग्रेस की इच्छा रही है, जिस वजह से उन्होंने जयराम रमेश का समर्थन किया। जयराम रमेश ने बड़े ही बेतरतीब तरीके से डॉक्टर कर्ण सिंह को पार्टी में उनके असली रुख की याद दिलाई, जिसे उन्होंने जिंदगी भर माना। मैं इस लेख पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त हूं, जो एक बार फिर से नेहरू के खुद के लेखन और भाषणों पर आधारित होगा। कांग्रेस एक बार फिर से तथ्य मुक्त इतिहास की बात करेगी। पिछले 7 दशक से कांग्रेस का यही तौर-तरीका रहा है कि ऐसी किसी भी विद्वतापूर्ण बहस को बंद कर दिया जाए, जो नेहरू खानदान के महिमामंडन को चुनौती देती हो। मैं इस बात को लेकर भी पूरी तरह से आश्वस्त हूं कि इस बार फिर से ऐसा ही किया जाएगा। शोध का जवाब शोध से नहीं, बल्कि गाली-गलौज से दिया जाएगा।
हालांकि, एक राष्ट्र के तौर पर यह हमारी जिम्मेदारी है कि इतिहास को झूठा करार देने के प्रयास को नाकाम किया जाए और जम्मू, कश्मीर एवं लद्दाख की जनता के साथ पूरी सच्चाई के साथ खड़े रहें। इस क्षेत्र की जनता के साथ ही देशवासियों को भी यह जानने का पूरा अधिकार है कि उन कठिन महीनों और वर्षों के दौरान सच में हुआ क्या था!
लेख में उल्लेखित लोगों के बयान का सोर्स...
1. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा 24 जुलाई 1952 में लोकसभा में दिया गया भाषण।
2. जवाहरलाल नेहरू द्वारा सितंबर 1946-मई 1949 के बीच दिया गया भाषण- वॉल्यूम 1
3. जवाहरलाल नेहरू के चयनित कार्य, सीरीज 2, वॉल्यूम 3 जून 1947-अगस्त 1947
4. जवाहरलाल नेहरू के चयनित कार्य. सीरीज 2, वॉल्यूम 4 अगस्त 1947-दिसंबर 1947
5. एमसी महाजन की किताब। लुकिंग बैक: द ऑटोबायोग्राफी ऑफ मेहर चंद महाजन
6. JS (SG), MSS, NMML, 1946 (हरि सिंह द्वारा डिटेन करने के बाद जवाहरलाल नेहरू के व्यवहार पर उनके सहयोगी की टिप्पणी)
7. 20 मई 1947 को प्रकाशित द ट्रिब्यून समाचारपत्र।
साभार- NEWS18.COM
(नोट: ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए News24 उत्तरदायी नहीं है।)
Get Breaking News First and Latest Updates from India and around the world
on News24. Follow News24 and Download our - News24
Android App. Follow News24 on Facebook, Telegram, Google
News.