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क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव का सिस्टम बदलने वाला है?

One nation One election Updates: मैं हूं अनुराधा प्रसाद। हिमालय की ऊंची चोटियों से लेकर दक्षिण में समंदर के किनारों तक लोगों के बीच इस बात को लेकर चर्चा जोरों पर है कि क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव का सिस्टम बदलने वाला है? क्या लोकसभा के साथ ही सभी राज्यों में विधानसभाओं […]

Anurradha Prasad Show On One nation One election
One nation One election Updates: मैं हूं अनुराधा प्रसाद। हिमालय की ऊंची चोटियों से लेकर दक्षिण में समंदर के किनारों तक लोगों के बीच इस बात को लेकर चर्चा जोरों पर है कि क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव का सिस्टम बदलने वाला है? क्या लोकसभा के साथ ही सभी राज्यों में विधानसभाओं के भी चुनाव होंगे? ये भी सवाल हवा में उड़ रहा है कि क्या संसद का विशेष सत्र एक देश, एक चुनाव की दिशा में आगे बढ़ने के लिए बुलाया गया है? राजनीति में कुछ भी नामुमकिन नहीं। लेकिन, पॉलिटिकल साइंस की स्टूडेंट और एक पत्रकार के रूप में मेरी समझ कहती है कि मोदी सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में सिर्फ एक कमेटी बनाई है। इस कदम के जरिए मोदी सरकार ने एक देश, एक चुनाव की बहस को सुपरसोनिक रफ्तार दे दी है। लेकिन, 2024 से पहले ऐसा कुछ भी होने की संभावना बहुत कम दिख रही है। ऐसे में आज मैं आपको बताने की कोशिश करूंगी कि एक देश, एक चुनाव की राह में अभी कहां-कहां स्पीड ब्रेकर हैं? एक देश, एक चुनाव का सिस्टम लागू करने के लिए संविधान में कहां-कहां बदलाव करना पड़ सकता है? अगर चुनाव का पूरा सिस्टम बदल जाता है तो इससे फायदा होगा या नुकसान? क्या इससे हमारे देश के संघीय ढांचे की आत्मा पर भी कोई असर पड़ेगा? दुनिया के वो कौन से देश हैं जहां चुनाव एक साथ होते हैं? साथ ही उन राजनीतिक कयासों की बात करेंगे, जिनके Parliament के स्पेशल सेशन में आगे किए जाने की बातें उठ रही हैं। ऐसे सभी सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे अपने खास कार्यक्रम बदल जाएगा चुनाव का सिस्टम में।

रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनी कमेटी

एक अरब चालीस करोड़ आबादी वाले विशालकाय लोकतंत्र में शायद ही कोई ऐसा मौसम गुजरे जिसमें कहीं न कहीं चुनावी सरगर्मियां न चल रही हों। एक चुनाव खत्म होता है और दूसरे को लेकर तैयारियां शुरू हो जाती हैं। चुनाव का मतलब होता है- चर्चा और खर्चा। चुनाव मतलब होता है- एक तय समय के लिए आचार संहिता का लगना। प्रधानमंत्री मोदी बहुत पहले ही वन नेशन, वन इलेक्शन की बात कह चुके हैं लेकिन, पूर्व राष्ट्रपति कोविंद की अध्यक्षता में कमेटी बनाकर मोदी सरकार ने साफ कर दिया है कि अब वो इस मसले पर गंभीरता से आगे बढ़ना चाहती है। ऐसे में पहले ये समझने की कोशिश करते है कि मौजूदा राजनीति मोदी सरकार के इस कदम को किस तरह से देखती है।

क्या संसद के स्पेशल सत्र में बिल लाएगी सरकार?

विपक्ष हिसाब लगा रहा है कि आखिर एक देश, एक चुनाव की सरकार को अचानक जरूरत क्यों पड़ी? संसद का स्पेशल सत्र बुलाने का फैसला करने से पहले सरकार ने अनौपचारिक रूप से ही सही देश की दूसरी पार्टियों से राय-मशवरा क्यों नहीं किया? क्या संसद के स्पेशल सत्र में ही सरकार एक देश, एक चुनाव पर बिल लाएगी? इसके चांस बहुत कम लग रहे हैं। क्योंकि, सरकार को अगर इस मुद्दे पर बिल लाना होता तो फिर रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में कमेटी नहीं बनाती। कमेटी को स्टडी करने और रिपोर्ट तैयार करने के लिए समय भी दिया जाएगा। मतलब, अभी इस काम में समय लग सकता है। साल 2018 में लॉ कमीशन ने देश में एक साथ चुनाव कराए जाने के मसले पर एक रिपोर्ट तैयार की थी। रिपोर्ट में दलील दी गई थी कि एक साथ लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव कराए जाने से समय और सार्वजनिक धन की बचत होगी। लेकिन, भारत में एक साथ चुनाव की व्यवस्था लागू करने के लिए संविधान में कई बदलाव करने पड़ेंगे। इस मुद्दे पर बगैर राज्य और केंद्र की राजनीति में सक्रिय ज्यादातर पार्टियों को साथ लिए किसी नतीजे तक पहुंचना मुमकिन नहीं दिख रहा है। ऐसे में ये समझना जरूरी है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव का सिस्टम बदलने के लिए संविधान में कहां-कहां बदलाव करने की जरूरत पड़ सकती है?

फायदा और नुकसान क्या है?

संविधान की प्रस्तावना में भारत को Union of States कहा गया है। संघीय ढांचे को संविधान में मान्यता दी गई है। राज्य और संघ दोनों के अपने अधिकार और शक्तियां संविधान में साफ-साफ लिखे गए हैं। मान लीजिए कि बीजेपी शासित राज्य इस बात पर पूरी तरह तैयार हो जाते हैं कि विधानसभा भंग कर लोकसभा के साथ ही आम चुनाव कराए जाएं लेकिन, विरोधी पार्टियों की सरकार वाले प्रदेश मसलन दिल्ली, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, बिहार, आंध्र प्रदेश समय से पहले विधानसभा भंग कराने के लिए क्यों तैयार होंगे? संसद को संविधान के मूल ढांचे को तोड़ने का अधिकार नहीं है। संविधान के संरक्षक की भूमिका में सुप्रीम कोर्ट है। ऐसे में एक देश, एक कानून की राह में अभी बहुत रोड़े हैं। आजादी के बाद चार लोकसभा चुनाव और राज्यों में विधानसभा चुनाव साथ-साथ हुए उसके बाद ये सिलसिला टूटने लगा। थोड़ी देर के लिए मान लीजिए कि मोदी सरकार ने नामुमकिन जैसे इस काम को कर दिया यानी देश में चुनाव का पूरा सिस्टम बदल दिया तो ये कब तक चल पाएगा? इससे फायदा और नुकसान क्या है?

कई देशों में होते हैं एक साथ चुनाव

दुनिया के नक्शे पर कई ऐसे देश हैं जहां एक साथ चुनाव होते हैं। दक्षिण अफ्रीका में संसद, प्रांत और स्थानीय निकाय तीनों ही चुनाव साथ-साथ होते हैं। यूनाइटेड किंगडम के संविधान में भी एक साथ चुनाव की व्यवस्था है। इंडोनेशिया, जर्मनी, ब्राजील जैसे देशों में भी एक साथ चुनाव होते हैं। लेकिन, इनमें से किसी भी देश की आबादी भारत जितनी बड़ी नहीं है। हमारे देश जितनी विविधता भी नहीं है। अगर तमाम झंझावातों के बाद भी हमारा लोकतंत्र मजबूती से खड़ा है और लगातार आगे बढ़ते हुए मजबूत हो रहा है तो इसमें एक बड़ी भूमिका निष्पक्ष चुनाव और चुनाव आयोग दोनों की है। क्योंकि, हर राजनीतिक दल ने जनता के फैसले को बड़ी विनम्रता के साथ कुबूल किया है। अब मैं उस सवाल की ओर लौटती हूं जिसे लेकर सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है कि आखिर मोदी सरकार ने अचानक संसद का विशेष सत्र क्यों बुलाया है? आजाद भारत में कई बार संसद का विशेष सत्र बुलाया जा चुका है। अब इस विशेष सत्र में क्या होगा इसे जानने के लिए पूरा देश बेकरार है?

इस रास्ते को अपना सकती है सरकार

एक देश, एक चुनाव पर सरकार ने कमेटी के सदस्यों के नाम का भी ऐलान कर दिया है। इसमें केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी, लंबा संसदीय अनुभव रखने वाले गुलाम नबी आजाद, पूर्व नौकरशाह एन के सिंह, संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप, कानून के जानकार हरीश साल्वे जैसी हस्तियों को शामिल किया गया है। आने वाले दिनों में सरकार संविधान संशोधन के जरिए संसद या विधानसभाओं में अविश्वास प्रस्ताव लाने जैसी स्थितियों को कम करने का रास्ता निकाल सकती है। साथ ही त्रिशंकु लोकसभा या विधानसभा की स्थिति में अगर कोई सरकार गिर जाती है और दोबारा चुनाव कराने की नौबत आती है तो ऐसी स्थिति में चुनाव विधानसभा के शेष बचे समय के लिए ही कराने की बात सामने आ रही है। दल-बदल से जुड़े मुद्दों को भी तय समय यानी 6 महीने के भीतर सुलझाने का रास्ता संविधान के दायरे में निकालने की कोशिश दिख सकती है। ये भी संभव है कि संविधान के दायरे में एक देश, एक चुनाव की व्यवस्था को चरणबद्ध तरीके से लागू करने का श्रीगणेश अगले साल से हो जाए। स्क्रिप्ट और रिसर्च- विजय शंकर यह भी पढ़ें: HIV का इलाज खोजने में वैज्ञानिकों को मिली बड़ी सफलता, संक्रमित सेल्स को मारने में हुए सफल


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