केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 2026 विधानसभा चुनाव से पहले मतुआ समुदाय को लेकर बड़ा राजनीतिक और रणनीतिक संदेश दिया है. उन्होंने कहा कि मतुआ समाज के लोगों को किसी भी तरह से डरने की जरूरत नहीं है. उन्होंने साफ किया कि भारतीय जनता पार्टी का रुख पूरी तरह साफ है और बंगाल में आए शरणार्थियों की नागरिकता, पहचान और अधिकार सुरक्षित हैं. अमित शाह का ये बयान ऐसे समय पर आया है, जब पश्चिम बंगाल में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) और नागरिकता संशोधन कानून (CAA) को लेकर मतुआ समाज के बीच भ्रम, आशंका और असुरक्षा की भावना देखी जा रही है. गृह मंत्री ने इन तमाम आशंकाओं को खारिज करते हुए कहा कि बीजेपी की नीति और नीयत दोनों साफ हैं और किसी भी मतुआ परिवार की नागरिकता पर आंच नहीं आने दी जाएगी. उन्होंने कहा कि बीजेपी का वादा है कि बंगाल में आए सभी शरणार्थी देश के नागरिक हैं.
बीजेपी ने मतुआ समाज को दिया सम्मान
दरअसल, 1947 के बाद बड़ी संख्या में मतुआ समाज के लोग पूर्वी पाकिस्तान, अब बांग्लादेश, से भारत आए. दशकों तक उन्हें शरणार्थी के रूप में देखा गया और न तो स्थायी नागरिकता मिली और न ही राजनीतिक पहचान. मोदी सरकार के कार्यकाल में पहली बार केंद्र की बीजेपी सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून के जरिए इन शरणार्थियों को कानूनी और स्थायी समाधान देने का दावा किया है. सरकार का कहना है कि सीएए उन लोगों के लिए है, जिन्हें सालों तक बाहरी माना गया, लेकिन अब वे भारत के सम्मानित नागरिक हैं. मतुआ समाज का इतिहास सामाजिक सुधार, आत्मसम्मान और समानता की लड़ाई का इतिहास रहा है. हरिचांद ठाकुर और गुरुचांद ठाकुर द्वारा शुरू किए गए मतुआ आंदोलन ने दलित और वंचित समाज को सामाजिक चेतना दी. बीजेपी सरकार ने इन सामाजिक सुधारकों की विरासत को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने का काम किया है और मतुआ समाज को मुख्यधारा में सम्मान के साथ जोड़ने की कोशिश की है.
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बंगाल में कितने मतुआ शरणार्थी?
राजनीतिक रूप से मतुआ समाज को पश्चिम बंगाल के उत्तर और दक्षिण 24 परगना, नादिया और सीमावर्ती जिलों में निर्णायक माना जाता है. जमीनी आकलन के मुताबिक मतुआ आबादी 50 से 60 लाख के बीच बताई जाती है, जबकि राजनीतिक मंचों से इसे इससे कहीं ज्यादा बताया जाता रहा है. 2011 की जनगणना के मुताबिक नामशूद्र समुदाय की संख्या लगभग 35 लाख है, जिसमें मतुआ समाज का बड़ा हिस्सा शामिल है. विशेषज्ञों का मानना है कि यह समुदाय अकेले दम पर कई दर्जन विधानसभा सीटों के नतीजों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है.
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वोटिंग पैटर्न में आया बदलाव
पिछले कुछ वर्षों में मतुआ समाज का वोटिंग पैटर्न भी बदला है. 2011 से पहले यह समाज वाम दलों के साथ रहा, इसके बाद तृणमूल कांग्रेस के उभार के साथ इसका बड़ा हिस्सा ममता बनर्जी के साथ गया. 2019 और 2021 में बीजेपी ने सीएए को मतुआ पहचान से जोड़ते हुए इस समाज में सीधा राजनीतिक दखल बनाया, जिससे मतुआ वोट पहली बार बंटा.हालांकि, मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण के दौरान बड़ी संख्या में नाम कटने की खबरों ने मतुआ समाज में असंतोष भी पैदा किया. करीब एक लाख मतुआ नाम कटने के दावे सामने आए, जिससे बीजेपी के सामने भरोसे की चुनौती खड़ी हुई. इसी वजह से अमित शाह का ये बयान मतुआ समाज को भरोसा दिलाने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है.