Flash Back K Asif: भारतीय सिनेमा के ‘मूवी मुगल’; एक मामूली दर्जी से महान फिल्मकार बनने की दास्तां
Flash Back K Asif: हिंदी सिनेमा के महान फिल्मकारों में से एक थे के.आसिफ। उनके नाम एक ऐसी फिल्म दर्ज है, जिसे फिल्म की भव्यता, गीत संगीत, नामी कलाकार के चलते एक शिलालेख के तौर पर याद किया जाता है। ये फिल्म है भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे प्रतिष्ठित फिल्मों में से एक मुगल-ए-आज़म। इस महान फिल्मकार की एक बार फिर चर्चा हो रही है। वजह बने हैं जाने-माने निर्माता तिग्मांशु धूलिया, जिन्होंने महान निर्देशक के.आसिफ की बायोपिक पेश करने के लिए बीड़ा उठाया है। आइये, एक नजर डालते हैं के.आसिफ के सिनेमाई संसार पर...
एक मामूली कपड़े सिलने वाला दर्जी
बहुत कम फिल्में हैं और बहुत ज्यादा प्रसिद्धि हासिल करने वाले फिल्मकारों में के. आसिफ का नाम शायद अकेला है। भारतीय फिल्म जगत के इस महान फिल्मकार का पूरा नाम करीम आसिफ था। उनकी जीवन कहानी वैसी ही रोचक है, जैसी कई सफल व्यक्तियों की हुआ करती है। एक मामूली कपड़े सिलने वाले दर्जी के रूप में उन्होंने अपना कैरियर शुरू किया था। बाद में लगन और मेहनत से महान निर्माता-निर्देशक बन गए।
मुगल-ए-आजम: हिन्दी फिल्म इतिहास का शिलालेख
अपने 30 वर्ष के लम्बे फिल्मी-जीवन में के. आसिफ ने सिर्फ तीन मुकम्मल फिल्में बनाईं- 'फूल' (1948), 'हलचल' (1981) और 'मुगल-ए-आजम' (1960)। ये तीनों ही बड़ी फिल्में थीं और तीनों में सितारे भी बड़े थे। 'फूल' जहां अपने युग की सबसे बड़ी फिल्म थी। वही 'हलचल' ने भी अपने समय में काफी हलचल मचाई थी और 'मुगल-ए-आजम' तो हिन्दी फिल्म इतिहास का शिलालेख है।
मोहब्बत को मानते थे कायनात की सबसे बड़ी दौलत
मोहब्बत को के. आसिफ कायनात की सबसे बड़ी दौलत मानते थे। इसी विचार को कैनवास पर लाते अगर वे चित्रकार होते और इसी को पर्दे पर लाने के लिए उन्होंने 'मुगल-ए-आजम' का निर्माण किया। इस फिल्म को बनाते समय हर कदम पर बाधाओं के जैसे पहाड़ खड़े हो गए थे। मगर हार मानना के. आसिफ जानते ही न थे। वे यह जानते हुए भी कि इसी विषय पर 'अनारकली' जैसी फिल्म बन चुकी है। रत्ती भर भी विचलित नहीं हुए। उनका आत्मविश्वास इस फिल्म के बारे में कितना जबरदस्त था, यह बाद में फिल्म ने साबित करके दिखा दिया। भव्य सेट, नामी कलाकार और मधुर संगीत की त्रिवेणी 'मुगल-ए-आजम' की सफलता के राज हैं। शकील बदायूंनी ने इस फिल्म में 12 गीत लिखे। नौशाद के संगीत में नहाकर बड़े गुलाम अली खां, लता मंगेशकर, शमशाह बेगम, मोहम्मद रफ़ी की आवाज का जादू फिल्म के प्राण हैं। पृथ्वीराज कपूर, दिलीप कुमार और मधुबाला के फिल्मी जीवन की यह सर्वोत्तम कृति है। श्रेष्ठ फिल्मों की श्रेणी में 'मुगल-ए-आजम' वाकई महान है।
वे 'मोहब्बत और खुदा' में देना चाहते थे लैला-मजनू जैसा आनंद
'मुगल-ए-आजम' के बाद के. आसिफ ने 'लव एंड गॉड' नामक भव्य फिल्म की शुरुआत की। वैसे तो के. आसिफ कोई बड़े धार्मिक व्यक्ति नहीं थे, 'मोहब्बत और खुदा' में वे लैला-मजनू की पुरानी भावना प्रधान प्रेम-कहानी के द्वारा दुनिया को कुछ ऐसा ही आनंद प्रदान करने वाला दर्शन देना चाहते थे। इस फिल्म को अपने जीवन का महान स्वप्न बनाने के लिए उन्होंने बहुत पापड़ भी बेले, मगर फिल्म के नायक गुरुदत्त की असमय मौत के कारण फिल्म रुक गई।
फिर के. आसिफ ने बड़े सितारों को लेकर एक और बड़ी फिल्म 'सस्ता खून महंगा पानी' शुरू की। किन्हीं कारणोंवश बाद में यह फिल्म भी बंद हो गई। तत्पश्चात उन्होंने 'लव एंड गॉड' फिर से शुरू की। इसमें संजीव कुमार को गुरुदत्त की जगह लिया गया। मगर इससे पहले की के. आसिफ यह फिल्म पूरी कर पाते 9 मार्च 1971 को दिल के दौरे से उनका दुखद निधन हो गया। 'लव एंड गॉड' को के. आसिफ जितना बना गए थे, उसे उसी रूप में प्रदर्शित किया। अधूरी 'लव एंड गॉड' देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि के. आसिफ इस फिल्म को कैसा रूप देना चाहते थे। अगर यह फिल्म उनके हाथों से पूर्ण हो जाती, तो निश्चित ही वह भी एक यादगार फिल्म बन जाती।
फिल्मों से ऐसा लगाव, जैसे भक्त को भगवान से होता है
के. आसिफ को फिल्म कला से सामान्य रूप में और अपनी फिल्म से विशेष रूप से ऐसा लगता था, जैसे किसी भक्त को भगवान से होता है। उनकी धुन और लगन में पूजा जैसी पवित्रता और जुनून की सीमाओं तक बढ़ती हुई एकाग्रता थी। अपनी इन्हीं खूबियों की बदौलत वे 'मूवी मुगल' के नाम से मशहूर हुए। कई लोग उन्हें भारतीय फिल्म जगत के 'सिसिल बी. डिमिल' भी कहते हैं। के. आसिफ कि एक विशेषता यह भी थी कि वे एक फिल्म के निर्माण में बरसों लगा देते थे। कई बार आधी से अधिक फिल्म बनाकर उसे रद्द कर देना और फिर से शूटिंग करना उनकी आदत में शुमार था। जिस शान-ओ-शौकत से वे फिल्में बनाते थे और जिस शाही अंदाज में खर्च करते थे उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।
के. आसिफ ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे। यही कोई 5वीं तक पढ़े थे। खुद उन्होंने भी कभी शिक्षित होने का दावा नहीं किया। बावजूद इसके वे महान फिल्मकार बने और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा के मंच पर अपनी एक अलग पहचान और जगह कायम की। हिंदी सिनेमा के इस महान फिल्मकार का जन्म 14 जून 1922 को इटावा में हुआ था। जबकि, 9 मार्च 1971 को मुंबई में इंतकाल हुआ।
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