आठ अरब से अधिक आबादी वाली इस दुनिया में हर पल कुछ न कुछ ऐसा हो रहा है – जिस पर घंटों चर्चा की जा सकती है. देश के भीतर भी पॉलिटिक्स से लेकर इकोनॉमी तक के मोर्चे पर हर पल ऐसा कुछ न कुछ हो रहा है– जिस पर चौक-चौराहों से लेकर न्यूज़ चैनलों में चर्चा चल रही है. राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले ये मायने भी निकालने में जुटे हैं कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि नीतीश कुमार ने गृह मंत्रालय बीजेपी को सौंप दिया और वित्त मंत्रालय जेडीयू के खाते में आ गया ? लेकिन, इन सब हलचलों से इतर एक खबर ने भीतर से झकझोंका. वो है-दिल्ली में एक 16 साल के स्कूली बच्चे की सुसाइड की खबर . शौर्य पाटिल, दिल्ली के एक नामी स्कूल में पढ़ता था. खबरों के मुताबिक, पहले से शौर्य के जेहन में आत्महत्या का ख्याल आ रहा था. उसने मेट्रो स्टेशन से छलांग लगा कर अपनी जीवन लीला खत्म कर दी . इसी तरह कुछ दिनों पहले जयपुर में चौथी क्लास में पढ़ने वाली एक बच्ची अमायरा ने स्कूल की चौथी मंजिल से कूद कर जान दे दी अमायरा की उम्र महज नौ साल थी. माता-पिता की इकलौती संतान. राजस्थान के कोटा से भी बच्चों के सुसाइड की ख़बरें अक्सर आती रहती हैं . ऐसे में मन में अक्सर सवाल उठता रहता है कि आखिर ये कैसा प्रेशर है? किसका प्रेशर है..जिसमें बच्चे अपनी जिंदगी खत्म कर देते हैं ? हमारी युवा पीढ़ी प्रेशर क्यों नहीं झेल पा रही है ? परवरिश में कमी है या फिर स्कूल-कॉलेज की ट्रेनिंग में? भीड़ में भी ज्यादातर युवा खुद को तन्हा क्यों महसूस करते हैं? आखिर जेन जी की खुशियों पर कौन डाका डाल रहा है? हमारी युवा पीढ़ी किसी बड़ी अदृश्य बीमारी की चपेट में तो नहीं है? आज ऐसे ही सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे.
सबसे पहले बात दिल्ली के शौर्य पाटिल की . जो अब इस दुनिया में नहीं है . खबरों के मुताबिक, शौर्य के मन में पिछले कुछ दिनों से सुसाइड का विचार आ रहा था. आरोप है कि स्कूल में उसे टॉर्चर किया जा रहा था. इसी महीने जयपुर में स्कूल की चौथी मंजिल से अमायरा नाम की बच्ची ने छलांग लगा कर जान दी. उसकी वजह भी स्कूल में उत्पीड़न और मौखिक दुर्व्यवहार बताया जा रहा है. दिल्ली-जयपुर जैसी घटनाएं देश के अलग-अलग हिस्सों से आती रहती है. लेकिन, ऐसी घटनाओं को हमारा समाज और सिस्टम कितनी गंभीरता से लेता है . Stress- Anxiety एक बीमारी है या शरीर में होने वाली एक सामान्य प्रक्रिया? मनोचिकित्सक इसे अपने-अपने चश्मे से देखते है. कुछ थोड़ा Stress और Anxiety को बेहतर प्रदर्शन के लिए अच्छा मानते हैं . लेकिन, जब ये ज्यादा बढ़ जाते तो इसे गंभीर बीमारी मानते हैं. Stress-Anxiety एक ऐसी अदृश्य वैश्विक बीमारी है.जिसकी चपेट में थोड़ा कम या ज्यादा दुनिया का हर आठवां शख्स है .
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शौर्य पाटिल अब इस दुनिया में नहीं है . परिवार के लोग और दोस्त अपने शौर्य के लिए न्याय की मांग करते हुए सड़कों पर उतरे . जमकर नारेबाजी की . दरअसल, आरोपों के मुताबिक, दबाव और मानसिक प्रताड़ना से गुजरते हुए शौर्य ने दिल्ली के एक मेट्रो स्टेशन से छलांग लगाकर जान दे दी . ऐसे में सवाल उठता है कि वो कौन से हालात थे.किसका दबाब था.कैसा दबाव था? जिसमें एक 16 साल के बच्चे ने अपनी जिंदगी खत्म करने का फैसला लिया?
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इसी तरह एक नवंबर को जयपुर में 9 साल की अमायरा ने भी स्कूल की चौथी मंजिल से छलांग लगा कर जान दे दी . आरोप है कि बुलिंग और तानों से परेशान होकर अमायरा से खुदकुशी की.अब उसके माता-पिता न्याय की मांग कर रहे हैं .
आखिर शौर्य और अमायरा के साथ किसने अन्याय किया? किसने दोनों को प्रताड़ित किया ? शौर्य और अमायरा जैसी खुदकुशी की कई कहानियां देश के अलग-अलग हिस्सों में हैं. जो शायद सुर्खियां नहीं बन पायीं, जिनके बारे पर बहुत कम लोगों को पता है. लेकिन, एक बड़ा सच ये भी है कि शौर्य और अमायरा जैसी मानसिक स्थिति से देश को करोड़ों बच्चे जूझ रहे हैं . कोई थोड़ा कम.तो कोई ज्यादा ?
NCERT की एक स्टडी के मुताबिक, देश में 81 फीसदी छात्रों ने पढ़ाई, परीक्षा और नतीजों की वजह से गंभीर बेचैनी और घबराहट की चपेट में आए . इतना ही नहीं 45% छात्रों पर नकारात्मक विचारों और भावनाओं का प्रभाव देखा गया . आज की तारीख में हर माता-पिता और स्कूल बच्चों को तेजी से बदलती दुनिया के हिसाब से ट्रेंड करना चाहते हैं . बहुत स्मार्ट बनाना चाहते हैं . ऐसे में बच्चों पर पढ़ाई के साथ दूसरे कई तरह के दबाव तेजी से बढ़ रहे हैं . जैसे- अधिक पढ़ाई का दबाव, अच्छे नबंर लाने का दबाव, समय-समय पर प्रोजेक्ट बनने का दबाव, एक्टिविटी में हिस्सा लेने और बेहतर प्रदर्शन का दबाव, स्कूल के कड़े अनुशासन में रहने का दबाव और माता-पिता दोनों कामकाजी हैं तो अकेलेपन का दर्द.
तकनीक ने बच्चों को बहुत स्मार्ट बना दिया है . उनके सामने दुनिया भर की जानकारियां एक क्लिक पर मौजूद हैं . लेकिन, पूरी दुनिया से जुड़ने के चक्कर में अपनों से ही कटते जा रहे हैं .
एकल परिवारों के बढ़ते चलन सामाजिक सपोर्ट सिस्टम और भावनात्मक लगाव को कमजोर कर दिया है . ऐसे में बच्चों की जिंदगी में तनाव, डर, अविश्वास और अकेलापन इस कदर दाखिल होता जा रहा है-जिसमें उनका बचपन कहीं गुम होता जा रहा है . वो धीरे-धीरे मानसिक बीमारियों की चपेट में आते जा रहे हैं - जो खुली आंखों से दिखाई नहीं देती है .
देशभर के छात्रों में मेंटल हेल्थ की समस्या तेजी से बढ़ती जा रही है . एक स्टडी के मुताबिक 65 से 70 फीसदी छात्र किसी न किसी प्रकार की मेंटल हेल्थ से जूझ रहे हैं - जिसे डॉक्टर स्ट्रेस-एंग्जाइटी या ड्रिपेशन का नाम देते हैं . ग्रामीण से शहरी इलाकों तक में इस समस्या की अलग-अलग वजह महसूस की जा रही है. अगर महानगरों में मिडिल क्लास और अपर मिडिल की बात करें - तो वहां बच्चों में स्ट्रेस की वजह अलग तरह की दिखती है . पहले बच्चों के सामने सबसे बड़ी समस्या होती थी – मनपसंद की चीजें खाने की . लेकिन, शहरों में खाने-पीने की चीजों की Online Delivery ने बहुत हद तक बच्चों की इस समस्या को खत्म कर दिया है . महानगरीय जिंदगी में अगर माता - पिता दोनों ही नौकरीपेशा हैं – तो बच्चा आराम से घर बैठे Online Order कर पिज्जा, बर्गर, फ्रेंचफाई, पास्ता जैसी चीजें मंगा कर अपना पेट भरता रहता है. वो धीरे-धीरे आरामतलब.बहुत आरामतलब बन जाता है. वो किसी भी बात का तनाव नहीं लेना चाहता . अगर किसी बात को लेकर माता-पिता के बीच कहा सुनी होती है – तो उसे सिर्फ तनाव इस बात का होता है कि कहीं उसकी सुख-सुविधा पर संकट तो नहीं आएगा ? इसी तरह स्कूल में भी बच्चा तनाव से बिल्कुल मुक्त रहना चाहता है . उसके भीतर बहुत हद तक ये बात भी बैठ जाती है कि स्कूल में उसे इस लिए पढ़ाया जाता है . क्योंकि, उसके मम्मी-पापा मोटी फीस चुकाते हैं . मतलब, छात्र स्कूल Service Place की तरह देखने लगे हैं. जिससे टीचर की सख्ती या अनुशासन उन्हें Poor Service Quality लगता है . ऐसे में बच्चों के ट्रेनिंग मॉड्यूल में घर से लेकर स्कूल तक बदलाव बहुत जरूरी है.
आजकल के बच्चे बहुत स्मार्ट हो गए हैं . बहुत टेक्नोफ्रेंडली हैं . स्मार्टफोन और टैब पर दुनिया की कोई भी जानकारी पल भर में निकाल लेते हैं. जिस माहौल में बच्चे पलबढ़ रहे हैं, उसमें उन्हें लगता है कि अगर पैसा है-तो सबकुछ है. अगर पैसा है तो खाने-पीने की मनपसंद चीजों कि एक क्लिक पर कुछ मिनटों में होम डिलिवरी हो जाएगी,अच्छे कपड़े या दूसरे शौक भी एक क्लिक पर पूरा हो जाएगा. बस पास में पैसा होना चाहिए . इस सोच ने बच्चों को बहुत आरामतलब बना दिया है . वो जरा भी तनाव नहीं लेना चाहते हैं-हर समस्या का समाधान इंटरनेट पर खोजने के तेजी से आदी होते जा रहे हैं .
दरअसल, हमारे सामाजिक ताने-बाने में पैसा केंद्रित सोच तेजी से आगे बढ़ रही है . इससे पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों की डोर कमजोर हो रही है . शहरों में बच्चों की परवरिश बहुत सुरक्षित माहौल में हो रही है . शहरों में नौकरी की जद्दोजहद में फंसे माता-पिता सोचते हैं कि बच्चे का अच्छे स्कूल में दाखिला करा दिया . आर्थिक क्षमता से बढ़कर सुख-सुविधा के इंतजाम कर दिए.बच्चे को और क्या चाहिए? बदले में माता-पिता बच्चे से उम्मीद करते हैं कि वो पढ़ाई में बेहतर करे . हमेशा क्लास में टॉप करे . लेकिन, बेहतर सुविधाओं का इंतजाम की जद्दोजहद में माता - पिता बच्चे के लिए बहुत समय नहीं निकाल पाते हैं . ऐसे में बच्चों का गुरू, गाइड और दोस्त इंटरनेट बन गया है .जो हर तरह की राय देने में माहिर है .
नए दौर की लाइफ-स्टाइल में बच्चे भी माता-पिता को कुछ हद तक अपनी जरूरतों को पूरा करने वाले ATM की तरह देखने लगे हैं. वहीं, बच्चे की स्कूलिंग, पढ़ाई-लिखाई और हॉवी को अपने स्टेटस सिंबल से जोड़ कर देखने लगे हैं . इसका साइड इफेक्ट ये हुआ है कि बच्चे इंटरनेट पर अपने तरीके से जिंदगी जी रहा है और माता-पिता अपने तरीके से . साइड इफेक्ट ये है कि परिवार में भावनात्मक रिश्ते कमजोर पड़ने लगे हैं . परिवार के सदस्यों के बीच रिश्तों की मर्यादा, अनुशासन, शिष्टाचार और सहनशीलता सब दिनों की कम होते जा रहे हैं .
बच्चों की दबाव और तनाव झेलने की ट्रेनिंग दिनों-दिन कम होती जा रही है . ऐसे ईको-सिस्टम में पलते-बढ़ते बच्चा जब 10वीं-12वीं में पहुंचता है तो उसपर बेहतर प्रदर्शन का दबाव एकाएक कई गुना बढ़ जाता है . उस पर बोर्ड में बेहतर प्रदर्शन का दबाव रहता है . अच्छे प्रोफेशनल कोर्स में दाखिला के लिए कंपीटिशन क्रैक करने का दबाव रहता है . जहां बहुत कड़ा कंपीटिशन है और आरक्षण भी है. ऐसे में छात्रों के जेहन ये बाते भी आने लगती हैं कि कड़ी मेहनत और पढ़ाई से क्या फायदा? जब आरक्षण कैटगरी वालों का कम नंबर के बाद भी आराम से एडमिशन हो जाएगा? कड़ी प्रतियोगिता और आरक्षण सिस्टम भी स्कूली छात्रों के तनाव को कुछ हद तक बढ़ा रहा है . अगर अच्छे प्रोफेशनल कोर्स के लिए कंपीटिशन क्रैक कर भी दिया तो मोटी फीस का कहां से इंतजाम होगा? अगर पढ़ाई के लिए लोन लिया- तो वो चुकेगा कैसे? ऐसे में वर्तमान और भविष्य की चिंता ने युवाओं का Stress Level कई गुना बढ़ा दिया है.
छात्रों के Stress Level को कम करने के लिए माता-पिता को चाहिए कि 10वीं-12वीं की पढ़ाई के दौरान बच्चों को मनपसंद करियर विकल्प चुनने की आजादी दें.ना की अपनी मर्जी को थोपें . बच्चों को उचित समय पर इतनी आजादी देनी चाहिए - जिससे वो अपनी क्षमता के हिसाब से करियर विकल्प बिना किसी दवाब और प्रभाव के चुन सकें . विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी WHO की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में करीब एक अरब लोग मानसिक बीमारियों से जूझ रहे हैं . आंकड़े बताते हैं कि हर 100 मौत में एक मौत की वजह आत्महत्या है . Stress-Anxiety-Depression अब घर से दफ्तर से स्कूल से पार्टियों तक में सुनाई देने वाला बहुत सामान्य शब्द हो गया है. आखिर ये Stress क्यों? ये Anxiety कहां से आई? जिस उम्र में बच्चों में खेलना-कूदना चाहिए.खुलकर जीना चाहिए. भविष्य की चुनौतियों के लिए खुद तैयार करना चाहिए..उस उम्र में बच्चे और युवा खुद को Depression का शिकार क्यों बताते हैं? घर में अक्सर क्यों कहते हैं कि जीने की इच्छा नहीं है? उनका कोई दोस्त नहीं है? युवा बात-बात पर उग्र यानी Hyper हो जाते है? दरअसल, तकनीक ने दुनिया की रफ्तार को बहुत तेज कर दिया है . कंपीटिशन भी कई गुना बढ़ा दिया है . रिश्तों को नए मायने दिए हैं . स्मार्टफोन बच्चे से बुर्जुग तक सबकी सोच, समझ और संस्कार को प्रभावित कर रहा है..ऐसे में दुनिया की बड़ी आबादी दो तरह की जिंदगी जी रही है. एक वर्चुअल और दूसरी रियल. जब रील जैसी जिंदगी रियल में नहीं मिलती..तो तनाव और दबाव बढ़ना तय है.
एक अरब 40 करोड़ आबादी वाले भारत में सोशल मीडिया लोगों के लिए सबसे सस्ता मनोरंजन और आसानी से पूरी दुनिया से जुड़ने का जरिया है . सोशल मीडिया पर जरूरत से ज्यादा सक्रियता को ड्रमस्क्रॉलिंग नाम दिया जाता है. युवाओं में तेजी से ड्रमस्क्रॉलिंग की बीमारी तेजी से बढ़ती जा रही है. ये हमारी बड़ी आबादी की मानसिक सेहत पर नकारात्मक असर डाल रही है . स्कूल में पढ़ाई के बाद बच्चा घर लौटता है- तो स्मार्टफोन में अपना मनपसंद कंटेंट देखकर मनोरंजन करता है . इससे असर ये हुआ है कि बच्चे बाहर घर से बाहर निकलने की अगर अराम तलब हो गए हैं . स्मार्टफोन में ही उन्हें ज्यादा मजा आता है. ऐसे में बच्चे इंटरनेट के जरिए पूरी दुनिया से जुड़ रहे हैं. लेकिन, अपनों से दूर होते जा रहे हैं .
लोगों को देश-दुनिया की नई जानकारियां, नए फैशन, नए ट्रेंड से रू-ब-रू कराने में सोशल मीडिया अहम भूमिका निभा रहा है.इंस्टाग्राम पर फ़िल्टर्ड तस्वीरें, ट्विटर पर तेज़-तर्रार राय और फेसबुक पर आदर्श जीवनशैली दिखाने की रेस दिख रही है .भले ही उसका हकीकत से कोई लेना-देना नहीं हो..भले ही वो मुश्किल जिंदगी से लिए गए उधार के कुछ सेकेंड की तस्वीरें हों.लेकिन, सोशल मीडिया रील जैसी लाइफस्टाइल के लिए दूसरों को उकसा रहा है..युवा हो या बुर्जुग,महिला हो या पुरुष सबको अपनी आर्थिक हैसियत से अधिक खर्च के लिए प्रोत्साहित कर रहा है.जो ऐसा नहीं कर पाते- वो घंटो रील और वीडियों के समंदर में अपना वक्त खर्च कर रहे हैं .
दूसरों की सोशल मीडिया पर सफल और खुशहाल जिंदगी की तस्वीरें देख कर लोग खुद को अधूरा और असंतुष्ट महसूस कर रहे हैं.सोशल मीडिया के दबाव और वायरल होने की चाह में इंसान अपनी मूल पहचान खोता जा रहा है . सोशल मीडिया और रील लोगों को क्षणिक खुशी देता है.लेकिन, उनकी 24 घंटे की दिनचर्या में कब घंटों चुरा लेता है.इसका पता ही नहीं चलता . ऐसे में जो समय आर्फिस में काम का था.जो समय दोस्तों के साथ हंसी-मजाक का था.जो समय पार्क या खेल के मैदान का था . जो समय परिवार के सदस्यों के साथ उठने-बैठने और बातचीत का था.उन सबमें तेजी से कटौती हो रही है . परिवार के सदस्य भी एक साथ, एक छत के नीचे बैठे होने के बाद भी अपने-अपने स्मार्टफोन में अपनी दुनिया में अक्सर खोए दिखते हैं . इसका सबसे अधिक नकारात्मक असर छोटे बच्चों पर पड़ता है - जो परिवार के बीच होते हुए भी खुद को अकेला महसूस करते हैं .
दुनिया से कनेक्शन जोड़ने की वर्चुअल कोशिश में इंसान तेजी से परिवार और समाज से कटता जा रहा है. भावनात्मक रिश्तों के लिए जगह कम होती जा रही है . जो छोटी-छोटी बातों पर लोगों को चिंता, अवसाद और अकेलापन की ओर धकेल रहा है . इसका साइडइफेक्ट हमारे सामाजिक ताने-बाने में परिवार के भीतर से लेकर दफ्तरों की कार्यसंस्कृति तक पर साफ-साफ महसूस किया जाने लगा है . कुछ दिनों पहले मैंने अपनी टीम के एक मिड लेवल के सहयोगी से पूछा कि यंग टीम के साथ काम करने का अनुभव कैसा है ? जवाब आया – जेन जी.बहुत टेक्नोफ्रेडली है. लेकिन, धैर्य की बहुत कमी है . ये छोटी-छोटी बातों पर उग्र हो जाते हैं . ये बीमार भी बहुत पड़ते हैं. इन्हें सबकुछ चाहिए और बहुत जल्दी चाहिए . इनके पास वक्त की बहुत कमी है . इनके लिए रिश्ते खास मायने नहीं रखते. My Way or Highway यानी थोड़ा भी इनकी सोच से इधर-उधर हुआ तो बैग उठा लेते हैं . इसी तरह हाल ही में मेरी 20 से 22 साल की कुछ लड़कियों से मुलाकात हुई. जिन्होंने मुश्किल से साल भर पहले करियर शुरू ही किया था . मैंने पूछा कि आखिर जेन जी इतनी Hyper क्यों है? ज्यादातर का जवाब था कि ये ऐसी पीढ़ी है – जिसे इंटरनेट पर सुना जाता है . घर में बहुत कम . ये वो पीढ़ी है – जो स्मार्ट फोन के साथ बड़ी हुई. कामकाजी मम्मी-पापा के बीच घर में होते हुए भी तन्हा जिंदगी जीने को मजबूर रही . अपने दर्द को Reel और Jokes में छिपाया . अपने अकेलेपन को Mood swings का नाम देती है. शायद ये महानगरीय समाज की भागदौड़ में पली-बढ़ी पीढ़ी का दर्द है.जिसे लगता है कि उसे परिवार में सुना नहीं गया. उसे पालने-पोसने और पढ़ाने की सामाजिक रस्म अदायगी की गई. आज की तेजी से बदलती दुनिया और गलाकाट प्रतियोगिता के बीच बच्चे जिस माहौल में पल-बढ़ रहे हैं. उसमें उन पर हमेशा घर से लेकर स्कूल तक प्रेशर रहता है. Fast बनो..Smart बनो..Perfect बनो . थोड़ा बड़े होने पर दुनियादारी में सफल होने के लिए Practical बनने का भी प्रेशर होता है . कदम-कदम पर प्रेशर एक बहुत बड़ी और अदृश्य बीमारी का रूप ले चुका है. जो हमारे सामाजिक ताने-बाने के लिए बहुत खतरनाक संकेत है .
स्मार्टफोन का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल की वजह से बच्चों में सोशल कॉन्टेक्ट में कमी, ऑनलाइन दोस्तों में अधिक समय देना, आपसी संबंधों और लगाव में कमी, अकेलापन महसूस करना और चिड़चिड़ापन जैसे लक्षण दिखने लगते हैं . इंटरनेट एडिक्शन बहुत हद तक बच्चों की शारीरिक और मानसिक सेहत पर बुरा असर डाल रहा है.सोशल मीडिया पर जरूरत से ज्यादा एक्टिव बच्चों में एंग्जायटी, डिप्रेशन, ईटिंग डिसऑर्डर जैसी बीमारियां तेजी से बढ़ रही है .
स्क्रीन टाइम लगातार बढ़ने का असर बच्चों की आंखों की रौशनी पर भी पड़ रहा है . वर्चुअल वर्ल्ड में जरुरत से ज्यादा लगाव दिनों-दिन बच्चों की नींद कम रहा है. सोशल मीडिया का नशा बच्चों को साइबर बुलीइंग की ओर धकेल रहा है . मनोचिकित्सकों का कहना है कि Stress कोई बीमारी नहीं बल्कि शरीर में एक सामान्य प्रक्रिया है..Anxiety को लेकर भी डॉक्टरों की कुछ ऐसी ही सोच है . मनोचिकित्सकों की सोच है कि बेहतर प्रदर्शन के लिए थोड़ा दबाव जरुरी है.लेकिन, जब Stress-Anxiety जरूरत से बहुत ज्यादा हो तो ये मानसिक बीमारी में बदल जाता है .
सोशल मीडिया ने समाज के एक बड़े वर्ग के भीतर असंतोष का भाव पैदा कर दिया है . ऐसे में लोग रील जैसी जिंदगी की कल्पना हकीकत में करने लगे हैं. इस प्रवृति की वजह से लोगों को अपनी जिंदगी खराब और दूसरों की अच्छी लगती है .सोशल मीडिया हमारे समाज के एक बड़े वर्ग को हीन भावना से ग्रस्त और असंतुष्ट बनाता जा रहा है . ये एक ऐसी मृगतृष्णा है-जिसमें लोगों को रियल लाइफ की चुनौतियां तो नहीं दिखाई देती . बेहतर जिंदगी हासिल करने की जद्दोजहद के पीछे का कड़ा संघर्ष दिखाई नहीं देता.संघर्षों से जूझने का रास्ता दिखाई नहीं देता.लेकिन, दूसरों की रील जैसी जिंदगी की कमी जरूर महसूस होती है . बच्चों के भीतर भी यही भावना उनकी टेंशन को बढ़ा रही है - दूसरों के पास बड़ा घर, बड़ी गाड़ी, लेटेस्ट आईफोन सब है. हमारे पास क्यों नहीं? दोस्त विदेश छुट्टियां मनाने गया.हम क्यों नहीं? ऐसी कई वजह हैं - जो बच्चों से युवाओं तक के तनाव को बढ़ा रही हैं .
My Life.My Style.My Choice वाली सोच को बढ़ावा देने में सोशल मीडिया ने बड़ी भूमिका निभाई है.जिसमें दूसरों के प्रति समर्पण और त्याग वाली सोच कहीं-न-कहीं कमजोर हुई है . सोशल मीडिया रिश्तों में अविश्वास, असुरक्षा और भावनात्मक दूरी की एक वजह बनता जा रहा है . स्मार्टफोन, इंटरनेट और सोशल मीडिया वक्त की जरूरत है . तकनीक से दूरी बनाते हुए दुनिया के साथ कदमताल करना नामुमकिन जैसा है . अब सवाल उठता है कि Stress-Anxietyऔर Depression का इलाज क्या है? अगर बचपन से ही परिवार के भीतर बच्चों को ये सिखाया जाए कि अनुशासन बोझ नहीं है बल्कि हर व्यक्ति की आजादी की पहली सीढ़ी है. जो अनुशासित नहीं होगा वो अपनी पसंद और आदतों का गुलाम बन जाएगा.अगर खान-पान को लेकर अनुशासित नहीं होंगे तो शरीर बीमारियों का गोदाम बन जाएगा . अगर स्कूल में पढ़ाई और अनुशासन को बोझ और तनाव की तरह लेंगे तो बेहतर भविष्य के रास्ते नहीं खुलेंगे. नौकरी में अनुशासित नहीं होंगे और चुनौतियों को स्ट्रेस की तरह लेंगे - तो कभी आगे नहीं बढ़ पाएंगे . स्टेस कितना लेना और स्ट्रेस को किस तरह मैनेज करना है.इसकी ट्रेनिंग बहुत जरुरी है. ऐसे में स्कूल में बच्चों को किताबी ज्ञान के साथ शारीरिक और नैतिक शिक्षा दोनों पर पूरा फोकस करना चाहिए. अगर छात्र शारीरिक रूप से रफ-टफ नहीं होंगे.नैतिक रूप से अनुशासित नहीं होंगे तो समाज की चुनौतियों का किस तरह सामना करेंगे? समाज एक प्रयोगशाला है- जिसमें हर तरह. हर स्वभाव के लोग मिलेंगे . ऐसे में सबके साथ तालमेल बैठाते हुए आगे बढ़ने की ट्रेनिंग परिवार से स्कूल तक होनी चाहिए . जिससे युवा भारत को मानसिक बीमारियों से बचाया जा सके . बच्चों से लेकर युवाओं तक को Stress-Anxiety को कदम-कदम पर मैनेज करने का हुनर सिखाना जरूरी है.जिससे Depression की नौबत न आए . वर्चुअल रिश्तों के साथ रियल जिंदगी के रिश्तों को निभाने के लिए वक्त निकालना जरूरी है. जिससे सही मायने में सोशल कनेक्ट और सपोर्ट सिस्टम मजबूत हो सके . जब तक लोग भावनात्मक रूप से एक-दूसरे से जुड़ेंगे नहीं.एक-दूसरे के दुख में दुख और सुख में सुख महसूस नहीं करेंगे. तब तक मानसिक बीमारियों से आजादी संभव नहीं है . आज के इस एपिसोड में बस इतना ही.फिर मिलेंगे किसी ऐसे ही मुद्दे के साथ, जिसे जानना और समझना हम सबके लिए जरूरी होगा .