रिश्ते तीन तरह से बनते हैं. भाव में, अभाव में और प्रभाव में लेकिन, राजनीति में रिश्ते सत्ता समीकरण बैठाने के लिए जोड़े या तोड़े जाते हैं. बड़ी चतुराई से उस रिश्ते यानी गठबंधन पर विचारधारा, विकास और लोगों की बेहतरी का मुलम्मा चढ़ा दिया जाता है. बिहार की राजनीति ने गठबंधन के कई अजब-गजब प्रयोग दिखे हैं. बिहार में चुनाव की तारीख तय हो चुकी है. वोटों की गिनती के लिए 14 नवंबर की तारीख तय है. यहां तक की नॉमिनेशन की प्रक्रिया भी जारी है लेकिन, उम्मीदवारों को लेकर कन्फ्यूजन अभी पूरी तरह खत्म नहीं हो पाया है. दिल्ली से पटना तक कई राउंड मीटिंग के बाद भी तय नहीं हो पाया है कि कौन कितनी सीटों पर लड़ेगा ? किस सीट पर मुकाबला किन उम्मीदवारों के बीच होगा?
ये गठबंधन पॉलिटिक्स का ही कमाल है कि...
ये गठबंधन पॉलिटिक्स का ही कमाल है कि पिछले 20 वर्षों से नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जमे हुए हैं. ये गठबंधन की राजनीति का ही कमाल है, जिसने चिराग पासवान के पिता स्वर्गीय रामविलास पासवान को राजनीति का मौसम वैज्ञानिक के नाम से मशहूर कर दिया. ये गठबंधन की राजनीति का ही कमाल है जिसने 58 साल पहले ही सात राजनीतिक दलों को एक छतरी के नीचे ला दिया, जिससे कांग्रेस को सत्ता से दूर किया जा सके. ये गठबंधन की राजनीति का ही कमाल है जिसमें गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति से निकले लालू प्रसाद यादव ने पहली बार बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की. ये गठबंधन की राजनीति का ही कमाल है कि आज की तारीख में बिहार में आरजेडी के पीछे कांग्रेस खड़ी है. ये गठबंधन की राजनीति का ही कमाल है जिसमें कुछ सीमित क्षेत्र या जातीय वोट बैंक पर पकड़ रखने वाले राजनीतिक दल भी बड़े-बड़े राजनीतिक दलों को सौदेबाजी की टेबल पर बैठने के लिए मजबूर कर देते हैं? भले ही बिहार में दूर से चुनाव त्रिकोणीय दिख रहा है लेकिन, एक सच्चाई ये भी है कि टक्कर एनडीए और महागठबंधन के बीच है. दोनों गठबंधन के बीच सीटों के बंटवारे पर भीतर खाने बहुत खींचतान चल रही है. ऐसे में आज यह जानना जरूरी है कि राजनीति में रिश्ते किस तरह परिस्थितियों के मुताबिक बदलते रहते हैं.
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दो तरह का होता है गठबंधन
हिंदू परंपरा में शादी के दौरान एक लड़का और लड़की जब सात जन्मों तक साथ निभाने का वादा करते हैं तो दोनों की गांठ बांध दी जाती है, जिसे गठबंधन कहा जाता है लेकिन, राजनीति में गठबंधन सात जन्मों का नहीं, सात साल का नहीं, सात महीने का नहीं। सब परिस्थितियों पर निर्भर करता है. राजनीतिक नफा-नुकसान और सहूलियत के हिसाब से रिश्ते तोड़े और जोड़े जाते हैं. गठबंधन दो तरह से होता है, एक चुनाव से पहले और दूसरा चुनाव के बाद. बिहार के चुनावी अखाड़े में एक ओर महागठबंधन है और दूसरी ओर एनडीए. सीटों के बंटवारे पर भीतर खाने कड़ी सौदेबाजी चल रही है. बंद कमरों में माथापच्ची चल रही है कि डील कितनी सीटों पर सील होगी? किसके खाते में कौन-कौन सी सीटें आएंगी? ऐसे में सबसे पहले ये समझते हैं कि बिहार के दोनों बड़े गठबंधन यानी महागठबंधन और एनडीए के बीच सीटों के बंटवारे पर अब तक पेंच कितना सुलझा और अभी कितना उलझा हुआ है?
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NDA में चिराग पासवान एक टफ बार्गेनर की तरह उभरे हैं. इसी महागठबंधन के बीच कांग्रेस और मुकेश सहनी की VIP ने भी कड़ी सौदेबाजी कर रहे हैं. विकल्पों के खुले खिड़की-दरवाजे इशारों में दिखाए जा रहे हैं. भीतर खाने से जो खबरें निकल रही हैं – उसमें सीटों पर डील सील होने के साथ-साथ कुछ और भी ऑफर दिया जा रहा है. भविष्य में एक MLC सीट तो किसी को एक राज्यसभा सीट और किसी को दोनों यानि MLC प्लस राज्यसभा सीट भविष्य में देने का वादा जैसी बातें निकल रही हैं. भीतर खाने जिस तरह कड़ी सौदेबाजी चल रही है, उसमें पाला बदलने की गुंजाइश लगातार बनी हुई है. ऐसे में अगर कोई चुनाव से पहले इधर-उधर नहीं हुआ तो महागठबंधन के सात दल बनाम एनडीए के पांच दलों के बीच मुकाबला तय है. ऐसे में समझते हैं कि चुनाव से पहले राजनीतिक दलों के बीच गठबंधन के जरिए क्या साधने की कोशिश चल रही है ? किसी के इधर-उधर होने से कितना फर्क पड़ता है?
बिहार में 2020 में चिराग का असर
लोकतंत्रीय राजनीति में चुनाव गणित से नहीं रसायन से जीता जाता है. इस बात की गारंटी नहीं कि राजनीतिक दलों के बीच गठबंधन से एक-दूसरे का वोट ट्रांसफर हो जाए. लोकतंत्र में आखिरी फैसला जनता का होता है लेकिन, गठबंधन की वजह से वोटों के कटने के चांस जरूर कम हो जाते हैं. अगर 2020 में हुए बिहार चुनाव को देखा जाए तो चिराग पासवान की पार्टी अकेले चुनावी अखाड़े में उतरी. तब उनकी लोक जनशक्ति पार्टी का चुनाव चिन्ह बंगला था. बिहार की 243 सीटों में से 137 पर उम्मीदवार खड़े करने के बाद चिराग की पार्टी के सिंबल से सिर्फ एक उम्मीदवार विधानसभा पहुंच पाया लेकिन, चिराग पासवान के आक्रामक तरीके से बिहार के चुनावी अखाड़े में उतरने का साइड इफेक्ट ये रहा कि नीतीश कुमार की जेडीयू 43 सीटों पर सिमट गई और तीसरे नंबर की पार्टी बन गयी. एक स्टडी के मुताबिक, एलजेपी ने 54 सीटों पर नतीजों को प्रभावित किया. जेडीयू उम्मीदवार 25 सीटों पर दूसरे नंबर पर रहे. इन सीटों पर एलजेपी के वोट जीत के अंतर से अधिक थे. चिराग फैक्टर ने एनडीए को 30 और महागठबंधन को 24 सीटों पर हार की ओर धकेल दिया था. ऐसे में 2020 और 2015 में बिहार में हुए चुनावी गठबंधन का जिक्र करना जरूरी है.
2015 के बिहार चुनाव में लालू यादव ने अपने धुर विरोधी नीतीश कुमार से हाथ मिला लिया था. इस गठबंधन को लेकर बिहार के वोटर कैसे लेंगे? कोई भी दावे के साथ कुछ कहने की स्थिति में नहीं था. ना पॉलिटिशियन और ना ही पॉलिटिकल पंडित, जब चुनाव के नतीजे आए तो लालू-नीतीश की अगुवाई वाली जोड़ी को लोगों ने प्रचंड बहुमत से चुनाव में जीत दिलाई. लालू प्रसाद यादव जब पहली बार मुख्यमंत्री बने,तब भी उनकी सरकार गठबंधन के पायों पर खड़ी थी. इसमें एक पाया बीजेपी का भी था. साल 2005 में जब नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ थी, तब भी गठबंधन के जोड़ से ही सरकार चली. साल 1977 में इमरजेंसी के बाद बिहार ने गठबंधन का अद्भुत प्रयोग देखा, साल 1967 में बिहार में सोशलिस्टों ने गैर-कांग्रेसवाद की छतरी तानी तो उसमें सात राजनीतिक पार्टियां शामिल थी जिन्होंने अलग-अलग चुनाव लड़ा था और कांग्रेस को रोकने के लिए हाथ मिला लिया. दलबदल और गठबंधन बिहार की राजनीति का अभिन्न हिस्सा रहा है। शायद यही वजह रही कि साल 1967 से 1972 के बीच बिहार में 9 सरकारें बनीं.
चार हिस्सों में बिहार गठबंधन पॉलिटिक्स
ये बिहार की गठबंधन राजनीति का चरित्र दोष है जिसमें कोई मुख्यमंत्री की कुर्सी पर 5 दिन रहा, कोई 7 दिन, कोई 12 दिन, कोई 17 दिन. पिछले 35 वर्षों से बिहार की राजनीति लालू यादव और नीतीश कुमार की परिक्रमा कर रही है लेकिन, बिहार की गठबंधन पॉलिटिक्स को चार हिस्सों में बांटा जा सकता है. पहला, साल 1967 का गठबंधन- जिसके केंद्र में सोशलिस्ट विचारधारा थी और कांग्रेस का विकल्प बनने के लिए सबको एक छतरी के नीचे लाना था. दूसरा, साल 1977 का गठबंधन – इमरजेंसी के बाद गैर-कांग्रेसी दल जनता पार्टी के झंडा तले आए. तीसरा, साल 1990 में बीजेपी के समर्थन से लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे. इस दौर में जेपी आंदोलन से निकले युवा नेताओं की पीढ़ी सेंटर स्टेज पर आने लगी. पिछड़ों की राजनीति नया आकार लेने लगी. जातीय राजनीति की गर्भनाल से ही नीतीश कुमार की राजनीति का उदय हुआ और समता पार्टी बनी. लालू विरोध की राजनीति करते-करते नीतीश कुमार एनडीए के जहाज पर सवार हो गए. चौथा, साल 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद बिहार में नीतीश कुमार की राह, जिसे अवसरवादी गठबंधन कहा जा सकता है.
मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए नीतीश कुमार ने कभी आरजेडी तो कभी बीजेपी के साथ गठबंधन किया. 2025 में अभी गठबंधन की जो तस्वीर सामने है, उसमें एक ओर महागठबंधन में 7 राजनीतिक दल हैं. दूसरी ओर, एनडीए में पांच दल शामिल हैं. छोटी-बड़ी पार्टियां अपने-अपने तरीके से सौदेबाजी कर रही हैं. अपनी ताकत बढ़ा रही हैं. वहीं, एनडीए में शामिल दलों को बीजेपी ने नाता तोड़ने पर तुरंत नुकसान का खतरा दिख रहा है. डर ये भी है कि अगर ज्यादा ना-नूकुर हुआ तो कहीं पार्टी में ही दो फाड़ न हो जाए. सवाल ये भी है कि क्या गठबंधन साझीदार 14 नवंबर के बाद पाला नहीं बदलेंगे? क्या 2025 में बिहार को गठबंधन पॉलिटिक्स से आजादी मिलेगी? इसकी संभावना बहुत कम दिख रही है.