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70 साल से लोहे के फेफड़ों से जिंदा है ये शख्स, काबिलियत जानकर दिल से करेंगे सैल्यूट

Paul Alexander survived inside an iron lung: हम अपने फेफड़ों सांस लेते हैं। लेकिन क्या कोई लोहे के फेफड़े के सहारे जिंदा रह सकता है? इस सवाल का जवाब हां है। अमेरिका में रहने वाले पॉल अलेक्जेंडर इसके जीता जागता उदाहरण हैं। वे 70 साल से लोहे के फेफड़ों वाली मशीन में बंद हैं। इस […]

Paul Alexander
Paul Alexander survived inside an iron lung: हम अपने फेफड़ों सांस लेते हैं। लेकिन क्या कोई लोहे के फेफड़े के सहारे जिंदा रह सकता है? इस सवाल का जवाब हां है। अमेरिका में रहने वाले पॉल अलेक्जेंडर इसके जीता जागता उदाहरण हैं। वे 70 साल से लोहे के फेफड़ों वाली मशीन में बंद हैं। इस समय उनकी उम्र 77 साल है। आमतौर पर लोग उन्हें पोलियो पॉल के नाम से जानते हैं। 1952 में अमेरिका में जब पोलियो का प्रकोप फैला तो पॉल की उम्र महज 6 साल थी। डलास, टेक्सास में वे पोलियो का शिकार हुए। बाद में उनका शरीर लकवाग्रस्त हो गया। रिपोर्ट के मुताबिक, अगस्त में उन्हें गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने आयरन लंग में सबसे लंबे समय तक जीवित रहने वाला मरीज घोषित किया है।

शरीर ने नहीं दिया साथ, फिर भी पूरे किए सपने

पॉल अलेक्जेंडर का जन्म 1946 में हुआ था। वे डलास में अपने घर में 24 घंटे निगरानी में रहते हैं। उनके पास हाई स्कूल डिप्लोमा है, कानून की परीक्षा भी पास की है। उन्होंने थ्री मिनट्स फॉर किताब भी लिखी है। द मिरर के अनुसार, इस समय उनका शरीर दुर्बल हो चुका है। उन्होंने इलाज लेने से इंकार कर दिया है।

अचानक बुखार आया, फिर लकवा मार गया शरीर

दरअसल, 1950 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका में पोलियो का एक बड़ा प्रकोप हुआ था। उस वक्त 58,000 केस सामने आए थे। 1952 में जब पॉल एलेक्जेंडर घर के बाहर खेल रहे थे, तभी उन्हें अचानक बुखार आया। परिवार ने उन्हें पार्कलैंड अस्पताल पहुंचाया, जहां पोलियो की पुष्टि हुई। इसके बाद उनका शरीर लकवाग्रस्त हो गया। उनका शरीर गर्दन के नीचे सुन्न है।

सांस लेने में मदद करती है मशीन

दरअसल, जिस मशीन में पॉल बंद हैं, वह एक एमर्सन रेस्पिरेटर है, जिसे अनौपचारिक तौर पर आयरन लंग भी कहा जाता है। जब सांस लेने वाली मांसपेशियां नियमित रूप से काम नहीं कर रही हों, तो आयरन फेफड़ा किसी को सांस लेने में सहायता कर सकता है। 1928 में डॉ. फिलिप ड्रिंकर ने इस मशीन को बनाया था। 1931 में जॉन एमर्सन ने इसका सफलतापूर्वक परीक्षण किया। यह भी पढ़ें: Chandrayaan-3 के रोवर की चांद पर 100 नॉट आउट पारी, ISRO चीफ ने दी खुशखबरी


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