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आज़ाद भारत के वो अहम न्यायिक फैसले, जिन्होंने लोकतंत्र की इमारत को बुलंद किया

नई दिल्ली: स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ पर पूरा देश ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ के रंग में सराबोर है। एक प्रगतीशील देश होते हुए भारत ने साल 1947 से लेकर अब तक विकास के कई आयाम छुए और दुनियाभर में एक मिसाल कायम की। कृषि, विज्ञान, शिक्षा, चिकित्सा, व्यवसाय और कला से लेकर न्यायिक मोर्चे तक […]

नई दिल्ली: स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ पर पूरा देश 'आज़ादी का अमृत महोत्सव' के रंग में सराबोर है। एक प्रगतीशील देश होते हुए भारत ने साल 1947 से लेकर अब तक विकास के कई आयाम छुए और दुनियाभर में एक मिसाल कायम की। कृषि, विज्ञान, शिक्षा, चिकित्सा, व्यवसाय और कला से लेकर न्यायिक मोर्चे तक हर क्षेत्र में भारत ने एक मिसाल पेश की है। आबादी के मामले में दूसरे स्थान पर काबिज भारत में सभी को एक समान न्याय मिल पाना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। ऐसे में देश के सर्वोच्च न्यायलय ने साल 1947 से लेकर अबतक कई अभूतपूर्व फैसले दिए, जिसने देश और देशवासियों कि दशा और दिशा बदलकर रख दी। आपको बताते हैं सुप्रीम कोर्ट ने उन वर्डिक्ट्स के बारे में, जिसे सालों तक याद किया जाता रहेगा। इतना ही नहीं आगे जब भी न्याय की बात चलेगी तो न्यायपालिका द्वारा दिए गए इन फैसलों को एक मिसाल के रूप में पेश किया जाएगा। भारतीय लोकतंत्र के भविष्य को आकार देने वाले उन 7 शीर्ष परिभाषित निर्णयों पर नज़र डालें यहां-
1. एके गोपालन बनाम मद्रास राज्य, 1950:
एके गोपालन एक कम्युनिस्ट नेता थे। उन्हें प्रिवेंटिव डिटेंशन लॉ के तहत साल 1950 में मद्रास जेल में रखा गया था। दिसंबर 1947 से नजरबंद गोपालन की सजाओं को बाद में खारिज कर दिया गया। 1 मार्च 1950 को, जब वे मद्रास जेल में थे, गोपालन को निवारक निरोध अधिनियम, 1950 की धारा 3(1) के तहत एक आदेश दिया गया था। यह प्रावधान केंद्र सरकार या राज्य सरकार को किसी को भी रोकने के लिए हिरासत में लेने की अनुमति देता है। गोपालन ने अपनी नजरबंदी के खिलाफ भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट के लिए एक याचिका दायर की । गोपालन को उन आधारों का खुलासा करने से प्रतिबंधित कर दिया गया था जिनके तहत उन्हें अधिनियम की धारा 14 के कारण हिरासत में लिया गया था, जो कानून की अदालत में भी इस तरह के प्रकटीकरण को प्रतिबंधित करता था। उन्होंने दावा किया कि उन्हें हिरासत में लेने के आदेश ने संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन किया है और अधिनियम के प्रावधानों ने संविधान के अनुच्छेद 22 का उल्लंघन किया है। यह मामला छह जजों की बेंच के सामने रखा गया था। एमके नांबियार , एसके अय्यर और वीजी राव ने गोपालन का प्रतिनिधित्व किया। के. राजा अय्यर, मद्रास राज्य के महाधिवक्ता, सी.आर. पट्टाबी रमन और आर. गणपति के साथ मद्रास राज्य का प्रतिनिधित्व करते थे। एमसी सीतलवाड़ ने भारत संघ का प्रतिनिधित्व किया, जो मामले में हस्तक्षेप करने वाला था। अंत में सभी छह न्यायाधीशों ने अलग-अलग राय लिखी। बहुमत ने माना कि अधिनियम की धारा 14, जो निरोध के आधारों के प्रकटीकरण को प्रतिबंधित करती है, असंवैधानिक थी।
2. केशवानंद भारती श्रीपादगलवरु बनाम केरल राज्य, 1973:
केशवानंद भारती श्रीपादगलवरु एंड अन्य बनाम केरल राज्य एंड अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को ऐतिहासिक इसलिए माना जाता है, क्योंकि इस निर्णय ने भारत के संविधान की रक्षा की और भारत में अधिनायकवादी शासन या एक दलीय सरकार के शासन को आने से रोका। वर्ष 1973 में केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों की अब तक की सबसे बड़ी संविधान पीठ ने अपने फैसले में स्पष्ट कर दिया था कि भारत में संसद नहीं बल्कि संविधान सर्वोच्च है। साथ ही, न्यायपालिका ने टकराव की स्थिति को खत्म करने के लिये संविधान के मौलिक ढाँचे के सिद्धांत को भी पारित कर दिया। इसमें कहा गया कि संसद ऐसा कोई संशोधन नहीं कर सकती है जो संविधान के मौलिक ढाँचे को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित करता हो। न्यायिक पुनरावलोकन के अधिकार के तहत न्यायपालिका संसद द्वारा किये गए संशोधन की जाँच संविधान के मूल ढाँचे के आलोक में करने के लिये स्वतंत्र है।
3. मेनका गांधी बनाम भारत संघ, 1977:
वर्ष 1977 में मेनका गांधी (वर्तमान महिला और बाल विकास मंत्री) का पासपोर्ट वर्तमान सत्तारूढ़ जनता पार्टी सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया था। इसके जवाब में उन्होंने सरकार के आदेश को चुनौती देने के लिये सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की। हालाँकि, कोर्ट ने इस मामले में सरकार का पक्ष न लेते हुए एक अहम फैसला सुनाया। यह निर्णय सात न्यायाधीशीय खंडपीठ द्वारा किया गया, जिसमें इस खंडपीठ द्वारा संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को दोहराया गया, जिससे यह फैसला मौलिक अधिकारों से संबंधित मामलों के लिये एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण बना।
4. शायरा बानो बनाम भारत संघ और अन्य, 2017:
साल 2016 की फ़रवरी में तीन तलाक के खिलाफ याचिका दायर कर अपने मौलिक अधिकारों के लिए लड़ने वाली शायरा बानो को कैसे भूला जा सकता है। शायरा अपना इलाज कराने के लिए उत्तराखंड अपनी मां के घर हुई थीं, जब उन्हें टेलीग्राम के जरिए तीन बार तलाक कहकेर उनसे उनका सबकुछ छीन लिया गया। उन्होंने कई बार कोशिश की अपने पति और बच्चों से मिलने की लेकिन हर बार उन्हें निराशा हाथ लगी। अपनी याचिका में शायरा ने तीन तलाक की प्रथा को पूरी तरह प्रतिबंधित करने की मांग उठाई। उन्होंने हलाला और एक से अधिक पत्नियों के होने को भी गैर कानूनी बताया। लेकिन उनके धर्म के मौलवियों का कुछ और ही कहना है। ये पहला मौका था जब किसी मुस्लिम महिला ने खुद से खुद के साथ हुए अनन्या के खिलाफ आवाज उठाई। लेकिन शायरा से कहा गया कि, "आपके धर्म की वजह से आपके पास मूल अधिकार नहीं हैं" लेकिन शायरा ने हार नहीं मानी और कोर्ट में जाकर अपने संवैधानिक अधिकारों के हनन की बात रखी और तीन तलाक ही नहीं बल्कि हलाला जैसे कुरीतियों को भी चुनौती दी। लगभग 18 महीने के बाद इस मामले पर फैसला आया और अगस्त 2017 में कोर्ट ने तीन तलाक को गौर कानूनी करार दिया।
5. एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ, 1994:
एस.आर. बोम्मई जनता दल सरकार के मुख्यमंत्री थे। वह 13 अगस्त, 1988 और 21 अप्रैल, 1989 के बीच कर्नाटक में सेवा में थे। 21 अप्रैल, 1989 को, राज्य सरकार के शासन को संविधान के अनुच्छेद 356 का हवाला देते हुए खारिज कर दिया गया था जो कि राज्य आपातकाल है या व्यापक रूप से राष्ट्रपति शासन के रूप में जाना जाता है। विपक्षी दलों को नियंत्रण में रखने के लिए इस रणनीति का सबसे अधिक इस्तेमाल किया गया था। राज्यपाल के फैसले के खिलाफ बोम्मई ने कर्नाटक उच्च न्यायालय का रुख किया, जिसमें राज्य में अनुच्छेद 356 की सिफारिश की गई थी। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने उनकी रिट याचिका खारिज कर दी। इसके बाद मंत्री मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गए। यह सर्वोच्च न्यायालय की नौ-न्यायाधीशों की संविधान पीठ थी जिसने 11 मार्च, 1994 को ऐतिहासिक आदेश जारी किया था। फैसले में कहा गया कि राज्य सरकार को बर्खास्त करने की राष्ट्रपति की शक्ति पूर्ण नहीं है। इसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति को संसद के दोनों सदनों से इसे मंजूरी मिलने के बाद ही इसका इस्तेमाल करना चाहिए। इसने राष्ट्रपति को तब तक केवल विधानसभा को निलंबित करने की अनुमति दी। निर्णय पढ़ा गया, "विधान सभा का विघटन निश्चित रूप से कोई मामला नहीं है। इसका सहारा केवल तभी लिया जाना चाहिए जब उद्घोषणा के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक हो।" यह निर्णय महत्वपूर्ण है क्योंकि इसने प्रतिबंधों की ओर इशारा करते हुए अनुच्छेद 356 के तहत राज्य सरकारों की मनमानी बर्खास्तगी को समाप्त कर दिया।
6.नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ, 2018:
नवतेज जौहर और एलजीबीटी समुदाय के पांच अन्य लोगों ने जून 2016 में भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की। 6 सितंबर, 2018 को, भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को सर्वसम्मति से पांच लोगों ने खारिज कर दिया। -जज बेंच। अदालत ने एलजीबीटी समुदाय के व्यक्तियों के बीच सहमति से संबंधों की अनुमति दी जिसने इसे सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णयों में से एक बना दिया। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि एलजीबीटी व्यक्तियों का समान लिंग के व्यक्तियों के साथ शारीरिक संबंध बनाने का विकल्प उनकी पसंद है। वे अपने मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के समान रूप से हकदार हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने सहमति से समान लिंग में संबंधों को भी अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया। हालांकि, न्यायालय ने धारा 377 के प्रावधानों को बरकरार रखा, जो जानवरों पर किए गए गैर-सहमति वाले कृत्यों को अपराधी बनाते हैं।
7.इंद्रा साहनी और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य, 1992:
इस मामले ने एक बड़े मुद्दे को उजागर किया और भारतीय संविधान ने सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को मान्यता दी। हालांकि, आर्थिक पिछड़ापन छूट गया। साल 1993 में इंदिरा साहनी ने नरसिम्हा राव सरकार के खिलाफ केस दर्ज कराया था। मामला विभिन्न सरकारी नौकरियों में उच्च जातियों के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए सिर्फ 10% आरक्षण की अनुमति देने वाली सरकार के खिलाफ था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि जाति-आधारित आरक्षण पर 50% की सीमा लगाई जानी थी। शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी के लिए अलग आरक्षण को बरकरार रखा लेकिन क्रीमी लेयर को बाहर रखा। फैसले में यह भी कहा गया कि संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत नियुक्तियों में आरक्षण पदोन्नति पर लागू नहीं होगा। ओबीसी के लिए 27% केंद्र सरकार के आरक्षण के साथ निर्णय लागू हुआ।    


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