Dandeshwar Temple Story: दंडेश्वर मंदिर उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में स्थित एक अत्यंत प्राचीन और पूजनीय शिव तीर्थधाम है. यह मंदिर जागेश्वर धाम के पास जटागंगा नदी के तट पर स्थित है. इस मंदिर के चारों ओर घने देवदार के वृक्षों की शांत वातावरण देने वाली छाया फैली रहती है. माना जाता है कि 7वीं से 14वीं शताब्दी के बीच बनी नागर शैली की प्रसिद्ध जागेश्वर मंदिर श्रृंखला का यह मंदिर भव्य प्रवेश द्वार है, जहां से पवित्र जागेश्वर धाम यात्रा आरम्भ होती है.'
यहां 18,000 ऋषियों ने किया था तप
इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहां पारम्परिक शिवलिंग के स्थान पर भगवान शिव एक बड़ी प्राकृतिक शिला के रूप में स्थापित हैं. बिना तराशी हुई यह पिंडी शिव के विश्राम या दंडधारी स्वरूप का प्रतीक मानी जाती है. लोकमान्यता के अनुसार इसी पावन स्थल पर 18,000 ऋषियों ने कठोर तप किया था. उनकी तपस्या के एक प्रसंग से जुड़ी कथा के कारण यह स्थान 'दंडेश्वर महादेव' नाम से प्रसिद्ध हुआ. आइए जानते हैं, यह अनोखी कथा क्या है?
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शिव का दिगंबर नीला रूप
कहानी उस समय की है जब सप्त ऋषि सहित 18,000 ऋषि जागेश्वर घाटी में गहरी तपस्या कर रहे थे. पूरा क्षेत्र शांत, पवित्र और देवदार के जंगलों से घिरा हुआ था. एक दिन भगवान शिव वहां अपने विरक्त और अनोखे रूप में प्रकट हुए. शरीर पर भस्म, गले में सर्प, जटाएँ बिखरी हुईं और दिगम्बर स्वरूप में उनके शरीर से नीली आभा निकल रही थी. महादेव की यह दिव्य छवि देखकर ऋषियों की पत्नियां आश्चर्यचकित रह गईं. वे कभी सम्मान, तो कभी आकर्षण के भाव से शिवजी को छुप-छुप के निहारा करती थीं.
गलतफहमी में दे दिया श्राप
जब ऋषियों ने इस घटना को जाना और अपनी पत्नियों को शिवजी की ओर देखते हुए पाया, तो उन्हें यह गलतफहमी हुई कि यह 'दिगम्बर योगी' उनके परिवार की मर्यादा भंग कर रहा है. बिना सच्चाई जाने, वे क्रोध में भर गए. महादेव के तेज और दिव्यता को समझने के बजाय, उन्होंने जल्दबाज़ी में भगवान शिव को श्राप दे दिया. श्राप इतना कठोर था कि उसके प्रभाव से शिवजी तुरंत एक अचल शिला (पत्थर) के रूप में परिवर्तित हो गए और गहरी ध्यानावस्था में स्थिर हो गए.
शिव का दंडेश्वर शिला-रूप
श्राप की वजह से मिला यह रूप आगे चलकर दंडेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध हुआ. माना जाता है कि शिव को जो 'दंड' मिला, वह उनकी किसी गलती के कारण नहीं था, बल्कि ऋषियों की एक बड़ी गलतफहमी का परिणाम था. फिर भी महादेव, जो करुणा और सरलता के प्रतीक माने जाते हैं, इस दंड को शांत मन से स्वीकार कर लिया. इसी कारण इस स्थान का नाम 'दंडेश्वर' पड़ा, जहां भगवान शिव ने ऋषियों द्वारा दिया गया दंड भी सहजता और धैर्य से सहा. यह कथा सिखाती है कि कभी-कभी भ्रम और ग़ुस्सा बड़े निर्णयों को गलत दिशा में ले जा सकते हैं, जबकि सच्ची महानता विनम्रता में है.
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डिस्क्लेमर: यहां दी गई जानकारी धार्मिक शास्त्र की मान्यताओं पर आधारित है तथा केवल सूचना के लिए दी जा रही है। News24 इसकी पुष्टि नहीं करता है।