राजशेखर त्रिपाठी
विनोद कुमार शुक्ल आखिरकार चले ही गए। कवि केदार नाथ सिंह की पंक्ति उधार लूं तो… 'ये जानते हुए भी कि जाना हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है'। ये आशंका तो पैदा हो ही गयी थी कि अब वो कभी भी जा सकते हैं। अफसोस अंतिम दिनों में जिन भी वजहों से विनोद जी चर्चा में रहे हों, उनमें उनका गिरता स्वास्थ्य कहीं चर्चा में नहीं था। सहारा लिए बगैर कहीं भी उनका जाना असंभव था, मगर वो जा रहे थे। जब अस्पताल से उनकी आखिरी दिनों की तस्वीरें सामने आयीं, तभी तय हो गया था कि महाकवि अब साहित्य के महाकाश से महाप्रस्थान को तैयार हैं।
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अब तो खैर हमारे समय का सबसे दुर्लभ कवि चला ही गया। पृष्ठभूमि में जैसे कवि ज्ञानेंद्रपति का आर्त स्वर सुनायी दे रहा हो…
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“विराट धक्-धक् में एक धड़कन कम है
कोरस में एक कंठ कम है।
देखता हूं अबके शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है।“
विनोद जी ने कविताएं लिखीं, कहानियां और उपन्यास लिखे, लेकिन जो निचुड़ कर आया वो ये कि मूलत: उनका स्वर एक कवि का ही स्वर है। ‘नौकर की कमीज’ उनका ज्यादा जमीनी और तकरीबन एकरंगा उपन्यास था। जिलियन राइट ने उसको तब के भारतीय निम्न मध्यवर्ग की प्रतिनिधि रचना मानकर उसका अनुवाद किया था। मगर वक्त के साथ जैसे-जैसे उनका कवि और मजबूत हुआ उन्होंने ‘खिलेगा तो देखेंगे’ और ‘दीवार में एक खिड़की रहती है’ जैसी महाकाव्यात्मक और ‘मल्टी डायमेंशनल’ रचनाएं दीं। विनोद जी के इस रचना संसार में बाल साहित्य भी थोड़ी जगह घेरता है, और पूरी गंभीरता से घेरता है। यह उनके कवि का बड़प्पन है,याद करिए सत्यजित राय जैसे महान फिल्मकार ने बाल साहित्य में कितना काम किया। उनके पिता सुकुमार राय ने तो बाल साहित्य में जो रचा उसका आज
भी एक मेयार है।
खैर विनोद जी जब तक निरंतरता से रच रहे थे, दिल और दिमाग साथ दे रहा था, किसी विवाद में नहीं रहे। जो रचेगा वही बचेगा की तर्ज पर खामोशी से रचते रहे। उनका बचपन भी वंचितों सा ही बचपन है, मां बंटवारे के वक्त उनको लेकर बांग्लादेश से राजनांद गांव आयीं। पिता भी नहीं रहे थे। यहां बड़े परिवार का सहारा तो मिला लेकिन मां हमेशा रोकती टोकती रहीं कि बोझ नहीं बनना है।
विनोद जी ने संभवत: बीबीसी को दिए इंटरव्यू में ये सब बताया है। यह भी कि लिखने की शुरुआती प्रेरणा उन्हें मां से ही मिली। कह सकते हैं कि विनोद जी का वंचित बचपन साहित्य की संभावनाओं से समृद्ध था। युवा अवस्था में ही उन्हें मुक्तिबोध का आशीर्वाद मिल गया जो उनके कवि का हौसला बुलंद करने वाला था।
यूं तो छत्तीसगढ़ में रहते हुए विनोद जी किसी तरह की खेमेबंदी से दूर ही रहे, मगर उन्हें हिंदी साहित्य में अशोक वाजपेयी के भोपाल घराने वाला ही माना गया। वाजपेयी के घराने में शुक्ला, मिश्रा, त्रिपाठियों की भरमार थी, तो इसी क़तार में विनोद कुमार शुक्ल भी गिने जाते रहे। हालांकि उनके लेखन को देखें तो वो उतना अमूर्त लेखन नहीं है, जितना भोपाल घराने के कलावादियों पर आरोप लगता रहा है।
“वो आदमी चला गया
नया गरम कोट पहन कर
विचार की तरह”
या
“हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था
इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया”
ये और ऐसी न जाने कितनी पंक्तियां और सूक्तियां - क्या आपको कहीं से लगता है कि विनोद जी इंसानी संवेदना के पड़ोसी कवि नहीं थे ? हां, उनकी कविता नारे लगाती और मुनादी करती कविता नहीं है। हां, उनके नजरिए में एक जादुई यथार्थवाद जरूर है।
अब दुर्भाग्य देखिए हिंदी में खेमेबाज़ी का, जो एक दौर में विचारधाराओं के आतंक से संचालित थी। विनोद जी के जाने से पहले लौटकर उन्हीं के सामने आ खड़ी हुई। मैंने अस्पताल में आख़िरी बार उनके भर्ती होते ही लिखा – “अभिनेता मानव कौल ने जब एक बड़े प्रकाशक की शुक्ल जी साथ की गयी 'तथाकथित ठग्गी' को उजागर किया - तब तक वो दया के पात्र थे। 'ग़रबीली ग़रीबी' के दायरे से बाहर नहीं निकले थे। मगर हिंद युग्म के 30 लाख की रॉयल्टी देते ही खलनायक हो गये।“
करेला और नीम चढ़ा की कहावत तब और चरितार्थ की जाने लगी जब छत्तीसगढ़ के स्पीकर रमन सिंह कार्यक्रम में पहुंच गए। यही नहीं बीमार शुक्ल की मिजाज़ पुर्सी के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें खुद फोन किया। साहित्य प्रेमियों और सेवियों का एक धड़ा उनके 50-55 साल के पूरे रचनाकर्म को सिरे से खारिज करने लगा। अफ़सोस कि देश-काल-पात्र पर इन लोगों की पकड़ कितनी कमजोर है ! बीते कुछ वर्षों में मैंने महसूस किया कि वो हिंदी पट्टी के उन कवियों में शुमार हो गए थे जो युवाओं में सबसे अधिक लोकप्रिय थे। ये तब था जब हिंदी घटते पाठकों का रोना रो रही है, जबकि उर्दू में जॉन ऐलिया अपनी अनोखी ‘कहन’ से जेन-जी के बीच एक ‘फ़ेनोमेना’ बन गए। हालांकि विचारधाराओं के अंत का ऐलान कब का हो चुका, मगर हिंदी में कुछ लोग अभी भी लकीर पीट रहे हैं और पिट रहे हैं। जब बात करनी है गरीबी की रेखा पर, वो बात करने लगते हैं रेखा की गरीबी पर। उम्मीद है युवा पाठकों का दबाव उन्हें पटरी पर लाएगा। युवा ही विनोद कुमार शुक्ल को अपनी स्मृति में बचाएगा।
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News24 उत्तरदायी नहीं है.)