जाति जनगणना पर घमासान; किसको नफा-किसको नुकसान?
Bihar Caste Census Anyalsis (प्रशांत देव) : भारत की चुनावी राजनीति में जाति का महत्व कितना है, ये सभी राजनैतिक पार्टियां खूब समझती हैं। ये भी कहा जा सकता है कि बिना जाति समीकरण के देश में न तो चुनाव जीते जा सकते हैं और ना ही राजनीति की जा सकती है। बिहार सरकार ने जाति जनगणना के आंकड़े जारी कर देश में एक नई बहस की शुरुआत कर दी है। आपको बता दें कि देश में जातिगत जनगणना की आखिरी रिपोर्ट 1931 में सार्वजनिक की गई थी। हालांकि 10 साल बाद होने वाले 1941 की जनगणना में जातिगत जनगणना की गई थी, लेकिन उसे सरकार ने कभी सार्वजनिक नहीं किया। अब सवाल उठता है कि बिहार सरकार ने जातिगत आंकड़े क्यों जारी किए? जातिगत आंकड़े जारी करने से किसको फायदा होगा किसको नुकसान?
क्या जातिगत आंकड़े से राजनैतिक दल अनजान हैं?
ऐसा लगता है बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार की जाति आंकड़े जारी कर इंडिया गठबंधन की ओर से बीजेपी को अगड़ा पिछड़ा की राजनीति की चुनौती देना चाहते हैं। ये संदेश देना चाहते हैं कि पिछड़े और दलितों का वो और उनका गठबंधन सबसे ज्यादा ख्याल रखने वाला है। बिहार में जारी आंकड़ों के मुताबिक ओबीसी 27 फीसदी, अत्यंत पिछड़ा वर्ग 36 फीसदी, अनुसूचित जाति 19 फीसदी है।
आपको बता दें कि देश में 1931 के बाद जाति जनगणना जारी नहीं की गई, लेकिन जो आंकड़े 1931 के थे लगभग उसी के आसपास बिहार सरकार द्वारा जारी ताजा जाति आंकड़े है। यानि जातीय समीकरण पर चुनाव लडने वाले राजनीतिक पार्टियों के लिए ये आंकड़े बहुत चौकाने वाले या नए नही हैं। फर्क बस इतना है कि सालों बाद आंकड़ा आधिकारिक रूप में आया। जहां तक फायदे नुकसान की बात है तो इस जातिगत आंकड़े के जारी होने से आने वाले चुनावी राजनीति में क्या असर पड़ेगा किस पर पड़ेगा ये तो आने वाल वक्त बताएगा, लेकिन इन्हीं आंकड़ों के हिसाब से पिछले चुनावों में ओबीसी और दलित किसके साथ थे ये जानना भी दिलचस्प है।
बीजेपी की बात करें तो बिहार में 36 फीसदी अत्यंत पिछड़ा वर्ग से ज्यादातर वोट बीजेपी को पिछले 10 सालों में मिले, 19 फीसदी दलित वोट का लगभग 50 फीसदी बीजेपी को मिला। सवर्ण जाति का लगभग पूरा वोट बीजेपी को मिलता है, यानि 2014 के बाद से लोकसभा और विधानसभा के हुए चुनाव में जिस तरह से बीजेपी को जीत मिली, उससे ये लगता है कि बीजेपी ने इन जातियों में अपनी मजबूत पैठ पहले ही बना चुकी है।
आंकड़ा बिहार बनाम उत्तरप्रदेश
जातिगत चुनावी राजनीति की बात करें तो बिहार और यूपी की राजनीति में कोई बहुत फर्क नहीं है। इन दोनों राज्यों में जाति समीकरण का मुद्दा सबसे बड़ा होता है। यूपी के जातीय समीकरण पर डालें तो ओबीसी 45 फीसदी, दलित 21 फीसदी, सवर्ण 20 फीसदी, मुसलमान 18 फीसदी हैं। ये जानना दिलचस्प होगा कि पिछड़े और दलितों की राजनीति करने वाले बड़े नेताओं सवर्गीय मुलायम सिंह, उनके बेटे अखिलेश, दलित नेता मायावती जैसे कद्दावर नेताओं के रहते बीजेपी ने कैसे इनके वोटबैंक में अपनी पैठ बनाई।
ये बात सच है कि यूपी में मुसलमान और यादव बीजेपी को वोट नहीं देते हैं। फिर भी लोकसभा और विधानसभा में बीजेपी बार बार प्रचंड जीत हासिल कर रही है। इसका मतलब यूपी में सिर्फ 20 फीसदी सवर्णों के भरोसे तो बीजेपी को जीत नहीं मिल रही, जबकि 18 फीसदी मुसलमान और यादव बीजेपी के साथ नहीं है, यानि की पिछड़ी और दलित जातियों में बीजेपी की मजबूत पैठ है। इसको इस बात से समझा जा सकता है कि यूपी में 2017 के विधासभा चुनाव में एससी-एसटी के आरक्षित 86 सीट में से बीजेपी ने 70 सीट पर जीत हासिल की। 2022 के विधान सभा चुनाव में भी बीजेपी ने एससी एसटी सीट पर दबदबा बनाए रखा। उसी तरह से लोकसभा चुनाव में। नीतीश कुमार जाति जनगणना की राजनीति की बात भले आज उठा रहे हैं, लेकिन बीजेपी ने यूपी में छोटी जातियों को पकड़ने का फार्मूला 2017 की विधानसभा में प्रयोग की तरह किया और भारी कामयाबी हासिल की। परिणाम स्वरूप पटेल, निषाद, मौर्य राजभर जातियों के नेता बीजेपी के साथ है। पिछड़े, दलित और छोटी जातियों के इस फार्मूले को बीजेपी ने अपने सभी चुनाव में लागू किया। अपने मंत्रिमंडल में भी खूब जगह दी है।
बिहार के जातिगत आंकड़े और 2024 का चुनाव
माना जा रहा है कि नीतीश कुमार ने जातिगत आकड़े जारी कर 2024 का चुनाव अगड़ा बनाम पिछड़ा के मुद्दे की ओर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि आंकड़ों का पता भले ही सरकार की रिपोर्ट से 1931 के बाद सार्वजनिक नहीं हुई, लेकिन सभी राजनीतिक दल जातिगत आंकड़े खूब समझते है और चुनावी राजनीति के केंद्र में जाति समीकरण हमेशा रहे है। बिहार सरकार के जातिगत आंकड़े आने वाले I.N.D.I.A. गठबंधन के कितने काम आएंगे ये तो वक्त बताएगा, लेकिन ऐसा मालूम पड़ता है-इन आंकडों की ताकत को 2024 के चुनाव की तैयारी में जुटी बीजेपी बहुत पहले समझ चुकी है।
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