बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ… सरकारी अभियान रहा विफल
डॉ. केपी द्विवेदी शास्त्री
Beti Bachao, Beti Padhao Campaign Failed: इस पुरुष प्रधान देश में महिलाओं को सिर्फ वंश को चलाने वाला साधन मात्र माना गया है, लेकिन ये सत्य से परे है। स्त्री और पुरुष दोनों के प्रयास से ही सन्तानों की प्राप्ति होती है। अधिकांशतः परिवार चाहते हैं कि सन्तान में पुत्र ही उत्पन्न हो, क्योंकि हमारी संस्कृति में बिना पुत्र के पितृ ऋण से उऋण नहीं होता है। एक यह भी सत्य है कि हमारे धर्म और संस्कृति में पुत्रियों को पिता के अंतिम संस्कार करने का अधिकार नहीं दिया है। परन्तु इसके बाद पुत्री का भी होना अनिवार्य है। यदि पुत्री नहीं होगी तो परिवार कैसे चलेंगें?
इस शब्द को भी झुठलाया नहीं जा सकता और यदि छोटा परिवार है तो पुत्र व पुत्री का होना अनिवार्य है। जैसे परिवार चलाने के लिए स्त्री और पुरुष का होना भी अनिवार्य है। बिना मेल और फीमेल के कोई भी उत्पादन नहीं होता। हमारे समाज के स्त्री और पुरुष दोनों अन्योनाश्रित सत्य हैं। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक तरफ यदि सिक्का नहीं होगा तो उसे खोटा माना जायेगा और उसे चलन से अलग कर दिया जायेगा। फिर यह समाज केवल पुत्र को ही प्राथमिकता क्यों देता है? किसी भी परिवार में कोई नववधु आती है, यदि सन्तान के रूप में उसे सिर्फ बेटियां ही होती हैं उस वधु को परिवारजन हेय दृष्टि से क्यों देखते हैं? इसलिए कि उसने सन्तान के रूप में पुत्र को जन्म नहीं दिया है।
गर्भ की जांच
इसी समाज में कुछ परिवार ऐसे भी हैं जो गर्भ की जांच करा के एक महीने से तीन महीने के बीच गर्भस्थ बेटी की हत्या करवा देते हैं जिसे भ्रूण हत्या कहा जाता हैं। यह समाज के 60 प्रतिशत लोग ऐसी हत्यायें निरन्तर कर रहे हैं जबकि भारत सरकार ने इस कृत्य को दण्डनीय अपराध घोषित किया है। गर्भावस्था में भ्रूण की जाँच करना व कराना दोनों ही अपराध हैं फिर भी प्राइवेट नर्सिंग होम और अस्पतालों में तथा कुछ सरकारी अस्पतालों में भी चोरी छिपे यह अपराध निरन्तर किये जा रहे हैं। सरकार द्वारा जन जागरण हेतु प्रिन्ट मीडिया इलैक्ट्रोनिक मीडिया के माध्यम से नागरिकों को जाग्रत अवश्य किया है जिसके फलस्वरुप इसके नियंत्रण में 10 से 20 प्रतिशत तक रोक लगी है जो बहुत कम है।
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बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ
बेटी बचाओ अभियान में गैर सरकारी संस्थान, संगठन जन जागरण अभियान नहीं चलायेंगे और परिवारजनों की सोच को बदले बिना बेटी (नारी) के बिना यह समाज अधूरा है। हमारे पुराने धर्म शास्त्रों ने स्वयं धर्म शास्त्रों में लिखा है "यत्र नारियत्र पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता" अर्थात् जिस परिवार में नारी का सम्मान व पूजा होती है, उस परिवार में सभी देवता निवास करते हैं और वहाँ अक्षय रूप से लक्ष्मी निवास करती है फिर भी हम नारी के महत्व को नहीं समझा पा रहे हैं। इसमें आत्म मंथन की विशेष आवश्यकता है। देश में कुछ प्रान्त ऐसे है जो बेटियों को कोख में मारने के लिए ही कुख्यात हैं।
मारने का कारण कहीं-कहीं तो गरीबी होता है परन्तु इन प्रान्तों में ऐसा नहीं है क्योंकि सबसे पहले लिंग जांच करने वाली तकनीक पंजाब में आई थी। सवाल यह उठता है कि बेटी के लिए बनी इतनी योजनाओं के बावजूद स्थितियों में अभी तक बदलाव क्यों नहीं है? क्या इस योजना में "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" की योजना में कोई दम खम है क्योंकि एतिहासिक नगरी से उठा हुआ यह हुँकारा खोखला है।
बेटियों का स्कूल में दाखिल
सच्चाई यह है कि पैसे के लालच में बेटियों को स्कूल में दाखिल करा देते हैं और कक्षा 3 अथवा 4 के बाद उनकी पढ़ाई बन्द करा देते हैं। इसी प्रकार दिल्ली सरकार ने भी सन 2008 में लाडली योजना का आरम्भ किया था। कक्षा 12वीं तक की पढ़ाई का जिम्मा सरकार ने लिया था। और एक लाख रुपया कन्या के खाते में सरकार ने जमा कराया व 18 वर्ष पूरा होने पर वह लड़की यह पैसा निकाल सकती है। इस प्रकार से लालच के माध्यम से बेटियों को पढ़ाना और उन्हें बचाना असंभव है बल्कि लालची माता-पिता पैसे मिलने तक ही बेटियों का सम्मान करते हैं। कुछ गरीब प्रान्तों में तो बेटियां परिवार के भरण पोषण का कार्य कर रही हैं।
सरकारी अभियान विफल रहा
कुछ परिवार के माता-पिता मानव अंग के खरीदने वाले व्यापारियों को बेटियों के अंग बेचकर पैसों की भूख क्षुब्धा शांत कर रहे हैं। ऐसे घृणित कार्य करने वाले माता-पिता के प्रति जांचोंपरांत कठोर से कठोर दण्ड देकर उदाहरण प्रस्तुत करें। समाज को समाज के कर्ता-धर्ता व परिवार जन अपनी सोच नहीं बदलेंगें तब तक "बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ" का सरकार का अभियान विफल रहेगा।
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