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क्या सूखने लगी है भारत की लोकतांत्रिक धारा! चुनाव के बाद ठगा सा महसूस क्यों करती है जनता?

Assembly Election 2023 Lok Sabha Election Anti Defection Law: चुनाव के बाद ठगा सा महसूस करती है जनता चुनाव आयोग के ज़रिए तय समय पर मतदान कराकर नई सरकार देश में स्थापित हो जाना ही असली लोकतंत्र नहीं है।

Assembly Election 2023
वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल की कलम से Assembly Election 2023 Lok Sabha Election Anti Defection Law: जनता चुनाव आयोग के ज़रिए तय समय पर मतदान कराकर नई सरकार देश में स्थापित हो जाना ही असली लोकतंत्र नहीं है। न चुनाव आयोग एक इवेंट एजेंसी है और न राजनीतिक दल उस इवेंट एजेंसी के सजावटी सामान, लेकिन आज़ादी के बाद हम पाते हैं कि चुनाव दर चुनाव भारत पर शासन करने वालों के नैतिक और राष्ट्रीय सरोकार हाशिए पर जा रहे हैं और सामूहिक शासन प्रणाली की अवधारणा सिकुड़ती जा रही है। महात्मा गांधी ने इस आशंका को सौ बरस पहले ही भांप लिया था। इसीलिए उन्होंने गांव-गांव में पंचायती राज का तंत्र मज़बूत करने पर ज़ोर दिया था। यदि स्वतंत्रता के बाद भारत ने उस पंचायत राज को अपनाया होता तो आज लोकतंत्र वाकई में एक हरे भरे वृक्ष के रूप में होता। हम पत्तों को सींचकर पेड़ की हरियाली बनाए रखने के नक़ली प्रयास नहीं कर रहे होते। जिस स्वरुप में आज गांधी का पंचायत राज हमारे सामने है , वह भ्रष्टाचार का एक विकृत और वीभत्स रूप है। स्थानीय स्तर से लेकर शिखर तक वर्तमान प्रजातंत्र से सेवा भाव नदारद है और मेवा लूटने के लिए सिर्फ़ कुछ गिरोह दिखाई देते हैं। तंत्र हावी है और प्रजा ग़ायब। ऐसा लोकतंत्र भला किस काम का, जिसमें लोक की भूमिका केवल एक वोट तक सिमटकर रह जाए।

टिकट नहीं मिलने पर उग्र हो रहे कार्यकर्ता

इन दिनों पांच प्रदेशों में विधानसभा चुनाव का प्रचार चरम पर है। लोकसभा के अगले निर्वाचन के लिए भी अब केवल कुछ महीने बचे हैं।उस चुनाव का चरित्र और चेहरा कैसा होगा,हम इन पांच राज्यों के निर्वाचन से अनुमान लगा सकते हैं। यक़ीनन वे दिल और दिमाग़ को ठंडक तो देने वाले नहीं ही होंगे। मैंने अपनी पत्रकारिता के सैंतालीस साल के दौरान कभी भी जम्हूरियत के इस पवित्र अनुष्ठान की इतनी नापाक शक़्ल नहीं देखी। संसार की सबसे बड़ी पार्टी के एक दफ़्तर में केंद्रीय मंत्री और उनके साथ मारपीट की नौबत आ जाती है,गनमैन अपनी रक्षा में रिवॉल्वर तान लेता है,आए दिन धरने,प्रदर्शन, उग्र विरोध के नज़ारे दिखाई देते हों तो आप क्या समझेंगे ? मौजूदा मुख्यमंत्री गालियों जैसी अभद्र भाषा का इस्तेमाल करें,अपनी सभा से पहले घर घर साड़ियां बंटवाने पर उतर आएं तो इससे बहुत धवल छबि तो नहीं बनती। इसी तरह भारत की सबसे पुरानी पार्टी के कार्यालय में पूर्व मुख्यमंत्री और उनके बेटे के पुतले जलें,तस्वीरों पर गोबर पोता जाने लगे ,दो पूर्व मुख्यमंत्री सार्वजनिक रूप से माइक पर एक दूसरे के कपड़े फाड़ने पर बहस करें तो आम मतदाता के मन में क्या छवि उभरती है। कार्यकर्ताओं और नेताओं में यह ग़ुस्सा विधानसभा का टिकट नहीं मिलने के कारण कमोबेश सारी पार्टियों में दिखाई दे रहा है।

स्वर्गीय राजीव गांधी लाए थे दल-बदल विरोधी कानून

एक ज़माने में राजीव गांधी सरकार ने दल बदल विरोधी क़ानून लाकर इस देश की सियासत को साफ़ सुथरा बनाने की कोशिश की थी। उस समय राजीव गांधी की पार्टी बहुमत के ऐतिहासिक शिखर पर बैठी थी। उसे सरकार गिरने का दूर दूर तक ख़तरा नहीं था। लेकिन उस समय हरियाणा समेत अनेक राज्यों में दलबदल की महामारी का विकराल प्रकोप समूची सियासत को गन्दा बना रहा था। लोकतंत्र के लिए उस ख़तरे को भांप कर उस सरकार ने इस क़ानून को जन्म दिया। पर बाद में इस क़ानून का मख़ौल उड़ाया जाने लगा। वर्तमान में और बीते वर्षों में जिस तरह पार्टियां नेताओं का शिकार कर रही हैं और सत्ता की मलाई के लिए नेता जिस तरह दल बदल कर रहे हैं ,वह साफ़ साफ़ मतदाताओं के साथ धोखा है। हम पाते हैं कि इस क़ानून के तहत पाला बदलने वाले विधायकों और सांसदों को अयोग्य घोषित करने में सियासतदान झिझकते रहे।

दल-बदल पर तुरंत फैसला लें सभापति

सत्ताधारी दलों के हित देखते हुए लोकसभा अध्यक्ष,राज्यसभा के सभापति और विधानसभा अध्यक्ष दलबदलू नेताओं के ख़िलाफ़ सख़्त निर्णय टालते रहते हैं। यह फ़ैसला तब तक टलता रहता है ,जब तक कि सत्तारूढ़  पार्टी अपना उल्लू सीधा नहीं कर लेती। कभी कभी न्यायालयों का भी इस मक़सद के लिए इस्तेमाल कर लिया जाता है। संविधान से बंधी न्यायपालिका बेबस हो जाती है। राज्यसभा के पूर्व सभापति और उपराष्ट्रपति रहे वेंकया नायडू ने दलबदल में सभापतियों के देर करने पर गहरा अफ़सोस जताया था। उनका कहना था कि विलंब से फ़ैसला दल बदल विरोधी क़ानून की मंशा का अपमान है। उनका दुःख जेडीयू सांसद शरद यादव और अली अनवर अंसारी की सदस्यता समाप्त करने के मामले में लिए गए निर्णय में प्रकट हुआ था। उनकी राय थी कि सभापति लंबे समय तक फ़ैसले नहीं लेते और विधायक दल बदल कर दूसरी पार्टी में मंत्री तक बन जाते हैं।

दल-बदल पर धन बल हावी

अब छिपा नहीं है कि दल बदल के पीछे धनबल ही काम करता है। विधायक और सांसद बिकते हैं। उन्हें खरीदने वाली पार्टी बोली लगाती है। जो पैसा वह उनको बाँटती है ,वह सरकारी ठेकों और सौदों में मिले कमीशन से कमाती है। बिके हुए लोगों की कोई विचारधारा नहीं होती। वे ख़ुद भी इसे धंधा समझते हैं। मुझसे निजी चर्चा में अनेक सांसद और विधायक स्वीकारते रहे हैं कि वे पार्टी का टिकट पाने के लिए पैसे देते हैं। फिर चुनाव लड़ने में पूंजी लगाते हैं। जीत गए तो फिर उसका तीन गुना निकालना पड़ता है। ज़ाहिर है कि इसके लिए भ्रष्टाचार करना होता है। यदि हार गए तो सब डूब जाता है और पूंजी निवेश बेकार चला जाता है। चुनाव से पहले अब तो छोटी और प्रादेशिक पार्टियां भी करने लगी हैं। वे नए प्रदेश में जाती हैं तो उनका जनाधार कुछ नहीं होता। वे उन लोगों पर नज़र रखती हैं ,जिन्हें बड़ी पार्टियां टिकट नहीं देती।
उम्मीदवार भी इन छोटे दलों में एडवांस बुकिंग कराकर रखते हैं। उधर सूची जारी हुई और टिकटार्थी ने अपना नाम नहीं देखा तो वह तुरंत तीसरे दल को हां करता है और वह छोटा दल पांच मिनट में ही उसके नाम का ऐलान कर देता है। इन प्रादेशिक दलों के वरिष्ठ पदाधिकारियों से मेरी चर्चा हुई तो उन्होंने यह अंतर कथा सुनाई। ऐसे में लोकतंत्र का वैचारिक आधार तहस नहस हो जाता है। धन बल और बाहुबल के आगे योग्य और ईमानदार प्रत्याशी हार जाता है। हमारे पूर्वजों ने लोकतंत्र का यह रूप देखने के लिए तो संविधान नहीं रचा था।


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