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इतिहास गवाह है! दक्षिण में मंदिर ‘सरकार’, महज आस्था के केंद्र नहीं, समाज को भी बेहतर बनाया, देखिए अनुराधा प्रसाद के साथ

News24, इतिहास गवाह है! सरकार का क्या काम होता है? लोगों की परेशानियों को कम करना। समाज की बेहतरी के लिए स्कूल-कॉलेज चलाना। लोगों के बेहतर इलाज के लिए अस्पताल खोलना। इस तरह के काम तो दक्षिण भारत के बड़े मंदिर भी करते रहे हैं- वो भी सैकड़ों साल से। आज की तारीख में तिरुमला […]

Anurradha Prasad, Editor In Chief, News 24
News24, इतिहास गवाह है! सरकार का क्या काम होता है? लोगों की परेशानियों को कम करना। समाज की बेहतरी के लिए स्कूल-कॉलेज चलाना। लोगों के बेहतर इलाज के लिए अस्पताल खोलना। इस तरह के काम तो दक्षिण भारत के बड़े मंदिर भी करते रहे हैं- वो भी सैकड़ों साल से। आज की तारीख में तिरुमला तिरुपति देवस्थानम कई कॉलेज और स्कूल चलाता है। अस्पताल चलाने से लेकर जल और जंगल के संरक्षण के लिए भी काम करता है। दक्षिण भारत के कई मंदिर लोगों की जिंदगी बेहतर बनाने के लिए दिन -रात काम कर रहे हैं। कई मंदिरों में तो प्रसाद के रूप में दोपहर में खाना खिलाने की भी परंपरा है और ये कोई आज और कल से नहीं....सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। जानिए दक्षिण भारत के देवालयों के प्रति आस्था और उनका सामाजिक सरोकार News24 की एडिटर-इन -चीफ अनुराधा प्रसाद (Anurradha Prasad) के साथ...

चोल राजवंश ने दिया मंदिरों के निर्माण पर जोर

दक्षिण भारत की बुलंद कहानी तैयार करने में मंदिरों की भूमिका समझने के लिए समय की सुई को सैकड़ों साल पीछे ले जाना होगा। कम से कम चोल राजवंश के राजाओं के दौर में, उस दौर के हिंदू राजाओं ने विशालकाय मंदिर बनाने पर खासतौर से जोर दिया। मसलन, तंजौर का बृहदेश्वर मंदिर, गांगेयकोंड का चोलपुरम मंदिर और दरासुरम का एरावतेश्वर मंदिर। समय चक्र के साथ दक्षिण भारत के नक्शे पर नए-नए मंदिर बनते गए, जो आन-बान-शान के प्रतीक बन गए, जो लोगों को अध्यात्म के सूत्र से तो जोड़ ही रहे थे। लोगों को रोजगार दिलाने में भी अहम भूमिका निभा रहे थे। बड़े मंदिरों में लोग बतौर पुजारी, उप-पुजारी, कलाकार, फूल-प्रसाद विक्रेता, रसोईया और दूसरे रूप से जुड़े थे। मंदिर लोगों को सामाजिक व्यवस्था से जोड़ने का अहम जरिया थे।

हर एक गांव में मंदिर, पथ प्रदर्शक के साथ मददगार भी

दक्षिण भारत में शायद ही आपको कोई ऐसा गांव मिलेगा- जहां मंदिर न हो। मंदिर गांव के लोगों की जिंदगी को संचालित करने में पथ-प्रदर्शक और मददगार दोनों की ही भूमिका में थे। चाहे लोगों को नियम-कायदे की डोर में बांधना हो या फिर सामूहिक कल्याण के लिए सबको साथ लाना। मंदिर हर तरह से लोगों की जिंदगी को आसान बनाने में लगे थे। उत्तर की तुलना में दक्षिण भारत में प्राचीन और बड़े मंदिरों की संख्या ज्यादा दिखने की एक और वजह है। विदेशी आक्रमणकारियों से दक्षिण भारत का बचा रहना। इतिहास गवाह रहा है कि मध्य काल में उत्तर पश्चिम में आक्रमण मंदिरों की अकूत दौलत लुटने के इरादे से हुए। ऐसे में दक्षिण भारत के मंदिर बाहरी आक्रमणकारियों के प्रभाव से करीब-करीब मुक्त रहे। मध्यकाल में दक्षिण भारत के मंदिर आर्थिक रूप से बहुत संपन्न थे। राजाओं के संरक्षण में कई मंदिरों का विकास हुआ। उस दौर में मंदिरों की संपन्नता को राज्य की ताकत के साथ जोड़कर भी देखा जाता था। मंदिरों की आमदनी के कई स्त्रोत थे जिनमें से एक दान भी था। मंदिर को दान में जमीन भी मिलती थी, जिसे देवदान कहा जाता था। मंदिर अपने खजाने से शिक्षा के प्रचार-प्रसार में अहम भूमिका निभाते थे। मैसूर क्षेत्र का बेलगाम शिक्षा के बड़े केंद्रों में से एक हुआ करता था। जहां वेद, वेदान्त, मीमांसा और काव्य की शिक्षा-दीक्षा होती थी। ब्राह्मण विद्वानों द्वारा मंदिर, मठ और अग्रहारम में कक्षाएं लगती थीं। उस दौर में मंदिरों में शिक्षा का इंतजाम ग्राम सभा की ओर से किया जाता था।

कर्नाटक में लिंगायत समुदाय की चर्चा क्यों?

कर्नाटक में इन दिनों लिंगायत समुदाय की बड़ी चर्चा हो रही है। इस समुदाय का जन्म 12वीं शताब्दी में समाज सुधार आंदोलन के तौर पर हुआ, जिसकी अगुवाई बसवन्ना ने किया। बसवन्ना खुद एक ब्राह्मण परिवार से आते थे लेकिन, उन्होंने ब्राह्मणवादी व्यवस्था का विरोध किया। इस समुदाय के मठों ने कर्नाटक के लोगों में ज्ञान का प्रकाश फैलाने में बड़ी भूमिका निभाई है। आज की तारीख में तुमकुर में सिद्धगंगा मठ, गडग में तोंतदरिया मठ, मैसूर में सुत्तूर मठ, चित्रदुर्ग में मुरुघा मठ प्रभावशाली लिंगायत समुदाय के प्रमुख आध्यात्मिक केंद्रों में से हैं। मांड्या में आदि चुनचनागिरी मठ वोक्कालिगा समुदाय की आध्यात्मिक गतिविधियों का केंद्र हैं, तो कागिनेले में कनक गुरु पीठ कुरुबाओं का प्रतिनिधित्व करता है। दक्षिण भारत के ज्यादातर हिस्सों में ऐसे मंदिर और मठ हैं, जो समाज के हर वर्ग की जिंदगी आसान और बेहतर बनाने में पतवार की भूमिका में हैं। आपको ये जानकर हैरानी होगी कि मध्यकाल में दक्षिण भारत के मंदिर बैंक की भी भूमिका में थे। लोग अपनी कीमती चीजे, गहने और रुपया-पैसा मंदिरों में जमा करते थे। संभवत: ये दक्षिण भारत के मंदिरों की उस दौर की पारदर्शी व्यवस्था रही होगी, जिसमें लोग अपनी पूंजी को सबसे ज्यादा सुरक्षित मंदिरों में समझते थे।

राजा भी मंदिरों में सुरक्षित रखते थे अपनी धन-संपदा

दक्षिण भारत के राजा भी अपनी धन-संपदा मंदिरों में सुरक्षित रखते थे और आपातकाल में मंदिरों से भी उधार लेने की भी परंपरा थी। कर्ज देने के बदले मंदिर प्रशासन ब्याज वसूलता था। हालांकि, कर्ज चुकाने के लिए उस दौर में भी किस्त यानी EMI जैसी व्यवस्था के संकेत मिलते हैं। दक्षिण भारत के मंदिर कितने संपन्न है- इसकी एक बुलंद तस्वीर बयां कर रहा है- केरल का पद्मनाभ स्वामी मंदिर। जिसके छह तहखानों से अबतक एक लाख बत्तीस हजार करोड़ से ज्यादा का अकूत खजाना मिल चुका है। तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम की कुल संपत्ति ढाई लाख करोड़ रुपये से अधिक होने का अनुमान है। दुनिया के नक्शे पर कई ऐसे देश हैं जिनकी जीडीपी से ज्यादा भारत के किसी बड़े मंदिर की दौलत है। चूंकि, भारत के एक कृषि प्रधान देश रहा है। मध्यकाल में दक्षिण भारत में अर्थव्यवस्था का आधार कृषि थी। ऐसे में खेती के लिए जमीन तैयार करने से लेकर बेहतर पैदावार के लिए सिंचाई के इंतजाम करने में मंदिरों ने अहम भूमिका निभाई है। इतिहास गवाह रहा है कि चोल और विजयनगर साम्राज्य में कृषि विकास और सिंचाई के लिए अलग से कोई विभाग नहीं थे लेकिन, ऐसी योजनाएं मंदिरों और दूसरी स्वतंत्र इकाइयों द्वारा संचालित की जाती थीं।

सोने की चिड़िया बनाने में मंदिरों का योगदान कैसे?

भारत को सोने की चिड़िया बनाने में दक्षिण भारत के मंदिरों का एक बड़ा योगदान माना जा सकता है। क्योंकि, वहां के मंदिरों ने उपजाऊ जमीन तैयार करने से लेकर सिंचाई के इंतजाम करने तक में अहम भूमिका निभाई। समाज के सभी वर्गों की तरक्की और सामाजिक समरसता के लिए लोगों को जोड़ने में भी मंदिर ड्राइविंग सीट पर दिखे। दक्षिण भारत में कई ऐसे मंदिर हैं, जहां लोगों को रोजाना दिन में खाना खिलाया जाता है। संभवत: इसके पीछे सोच रही होगी कि भगवान की बनाई इस दुनिया में किसी को भूखा न रहना पड़े। साथ ही समाज में पिछड़े और वंचितों को शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने में भी दक्षिण भारत के राज्य किसी कल्याणकारी राज्य या सरकार की तरह दमदार भूमिका निभा रहे हैं। अगर मध्यकाल में भी मंदिरों के राजाओं से बेहतर रिश्तों के सबूत मिलते हैं तो मौजूदा राजनीति और मंदिर-मठ एक-दूसरे के साथ बेहतर तालमेल में अपने मकसद को आगे बढ़ता देखते हैं। दक्षिण भारत के मंदिरों के एक और योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। वहां के बड़े मंदिरों ने तिरुपति, मदुरै, चिदांबरम, कांचीपुरम, उडुपी जैसे बड़े शहरों के बसने में शक्ति स्त्रोत का काम किया है। यानी मंदिर सिर्फ आस्था के केंद्र नहीं रहे हैं-वो शहरीकरण के बढ़ावा देने में भी पॉवरहाउस की भूमिका में रहे हैं और आज की तारीख में भी आस्था का अर्थशास्त्र भी हमारे देश में तीन लाख करोड़ से ज्यादा का है। स्क्रिप्ट और रिसर्च : विजय शंकर

यहां देखिए पूरा VIDEO...

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