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Explainers: भारत में कैसे मजबूत हुआ लोकतंत्र और पड़ोसी मुल्कों में कमजोर?

Explainers: कर्नाटक चुनाव को नतीजों को कैसे देखा जाना चाहिए? इसे लेकर लगातार विश्लेषण जारी है। पॉलिटिकल पंडितों ने भी नतीजों के हिसाब से अपनी दलीलें गढ़ ली हैं। लेकिन, दुनिया के ज्यादातर देशों के बुद्धिजीवी भारत के किसी भी प्रांत या हर चुनावी नतीजों के बाद क्या सोचते होंगे? क्या ये बात कभी आपके […]

Anurradha Prasad Show
Explainers: कर्नाटक चुनाव को नतीजों को कैसे देखा जाना चाहिए? इसे लेकर लगातार विश्लेषण जारी है। पॉलिटिकल पंडितों ने भी नतीजों के हिसाब से अपनी दलीलें गढ़ ली हैं। लेकिन, दुनिया के ज्यादातर देशों के बुद्धिजीवी भारत के किसी भी प्रांत या हर चुनावी नतीजों के बाद क्या सोचते होंगे? क्या ये बात कभी आपके जहन में आई है? संभवत:,उनके दिमाग में ये सवाल जरूर आता होगा कि भारतीय लोकतंत्र में ऐसा क्या है? जिससे बगैर किसी जोर-आजमाइश के सत्ताधारी पार्टियां लोगों के फैसले को बिना किसी सवाल के कुबूल कर लेती हैं। राजनीतिक पार्टियां चुनावों में लोगों से विचारधारा के आधार पर वोट मांगती हैं और सत्ता में आने के बाद अपने चुनावी वादे के हिसाब से लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरने की कोशिश करती हैं। यही भारतीय लोकतंत्र का मूल चरित्र है। जहां विचारधारा के आधार पर चुनाव में उतरा जाता है और जनता के फैसले को पूरे आदर के साथ स्वीकार किया जाता है। भारत के साथ आजाद हुए पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में लोकतंत्र की स्थिति क्या है? दुनिया को आधुनिक लोकतंत्र की राह दिखाने वाले अमेरिका में भी सत्ता संघर्ष की तस्वीरें पूरी दुनिया देख चुकी है। ऐसे में भारतीय लोकतंत्र की मजबूती और पड़ोसी मुल्कों के हालातों की सटीक तस्वीर पेश करती News24 की एडिटर इन चीफ अनुराधा प्रसाद स्पेशल रिपोर्ट पढ़िए लोकतंत्र...जरूरी या मजबूरी। इसमें हम जानेंगे कि क्या शासन व्यवस्था में धर्म का वर्चस्व जनतंत्र की सेहत के लिए हानिकारक है? क्या चुनावों में धार्मिक ध्रुवीकरण से लोकतंत्र की आत्मा को ठेस पहुंचती है? क्या एक धर्म, एक सोच और एक व्यक्ति के वर्चस्व वाली व्यवस्था लोकतंत्र को कमजोर कर रही है? क्या सोशल मीडिया के जरिए डेमोक्रेसी में नैरेटिव बदलने का खेल हो रहा है?

आजादी के बाद से मजबूत हुआ भारत

दुनिया के नक्शे पर भारत एक ऐसा विशालकाय देश है, जिसमें कई अलग-अलग संस्कृति, परंपराएं और भाषा का मेल है। इसे Political Scientists Multicultural Society का नाम देते हैं...जो भारत की विविधता में अनेक देशों जैसे लक्षण और उप-राष्ट्रवाद जैसी प्रवृति को महसूस करते रहे हैं। लेकिन, आजादी के बाद ही से भारत एक राष्ट्र के रूप में लगातार मजबूत हुआ है। लोकतंत्र की जड़ें और मजबूत हुई हैं। Comparative International Politics की स्टूडेंट और एक पत्रकार के रूप में मुझे मोटे तौर पर इसकी तीन वजह लगती है। पहली, भारतीय संविधान में सभी शक्तियों का स्त्रोत लोगों को बनाया जाना। दूसरी , संवैधानिक संस्थाओं में लोगों की आस्था और तीसरी, निष्पक्ष चुनाव। भारत के लोगों की सोच और परंपरा में हमेशा से ही दूसरों से विमर्श और आपसी सहमति से फैसला लेने की परंपरा रही है। लेकिन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान का मिजाज अलग रहा है। वहां के ज्यादातर हिस्सों में तलवार और बंदूक से फैसला करने का चलन रहा। इन दोनों देशों में धर्म ड्राइविंग सीट पर है... सत्ता में बदलाव की कहानी तैयार करने में धर्म ने बड़ी भूमिका निभाई है। भारत के लोगों पर भी धर्म का गहरा प्रभाव है। यहां भी सियासत ने धर्म में अपने लिए संभावना तलाशने की कोशिश की है... लेकिन, संविधान के जरिए धर्मनिरपेक्ष रखने की एक बहुत ईमानदार कोशिश की है।

पंडित नेहरू ने वैचारिक मतभेद को कभी मनभेद नहीं बनने दिया

आजादी के बाद भारत की लोकतंत्रीय परंपराओं को आगे बढ़ाने में सबसे बड़ा योगदान पंडित नेहरू का रहा। पंडित नेहरू पश्चिम और पूरब दोनों के मिजाज से अच्छी तरह वाकिफ थे। इसलिए, उन्होंने आजादी के बाद भारत में राजनीतिक व्यवस्था को एक साझी जवाबदेही का रूप देने की कोशिश की। उनकी सोच थी कि अनगिनत चुनौतियों से जूझ रहे भारत को कोई एक विचारधारा या सोच नहीं उबार सकती है। ऐसे में एक समावेशी राजनीतिक संस्कृति विकसित करने की कोशिश की। जिसमें हर तरह के विचार और विचारधारा के अच्छे तत्वों को भारत की जरुरतों के हिसाब से इस्तेमाल किया जा सके। वो एक ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था सींचने में लगे रहे, जहां सभी तरह की विविधताएं और विरोधाभास आपस में घुल-मिल जाएं। जहां सभी देश के महत्व को खुद समझें । यह नेहरू की लोकतंत्र में आस्था ही थी कि 1952, 1957 और 1962 के आम चुनावों में प्रचंड जीत के बाद भी विपक्ष को पूरा सम्मान दिया। वैचारिक मतभेद को कभी मनभेद नहीं बनने दिया।

दुनिया में लोकतंत्र के कई मॉडल

भारत के लिए लोकतंत्र सिर्फ एक शासन प्रणाली नहीं है। ये लोगों की जीवन शैली का हिस्सा रहा है। जिसका एक रूप संसद और विधानसभा में दिखता है। लेकिन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में लोकतंत्र लोगों के आचार-विचार का हिस्सा नहीं रहा है। उसे मजबूरी में या कहें कई बार दिखावे के लिए शासन प्रणाली में जोड़ने की कोशिश हुई है। भारत में सत्ता में आने के बाद सियासी पार्टियों का मिजाज चाहे जो भी रहा हो, केंद्र की सत्ता का मसला हो या फिर राज्यों में सत्ता का, लोगों ने अपनी वोट की ताकत के जरिए फैसला सुनाया है और सियासी पार्टियों ने लोगों के फैसले को कुबूल किया। इतिहास गवाह है कि इमरजेंसी के बाद लोगों ने अपनी वोट की ताकत के इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल कर दिया और दो साल के भीतर ही उन्हें दोबारा सत्ता में पहुंचा दिया। मतलब, लोगों के पास हर पांच साल में अपने फैसले पर पनुर्विचार के लिए मौका होता है। लेकिन, दुनिया के कई देशों ने लोकतंत्र को मजबूरी में अपनाया। किसी ने अपने यहां के गृह युद्ध का खत्म करने के लिए। किसी ने बंदूक के दम पर सत्ता हासिल की और चुनाव के जरिए लोगों से रजामंदी की मुहर लगवाई। किसी ने बड़ी ताकतों के प्रभाव में आकर लोकतंत्र का लवादा ओढ़ा। ऐसे में ये समझना भी जरूरी है कि पूरी दुनिया में लोकतंत्र के किस तरह के मॉडल काम कर रहे हैं? दुनिया को आधुनिक लोकतंत्र की रहा दिखाने में अमेरिका का बड़ा योगदान रहा है। तेजी से बदलते Global Order में अमेरिका और कम्युनिस्ट चाइना के बीच वर्चस्व की लड़ाई चल रही है। चीन में लंबे समय तक लोकतंत्र की अनदेखी हुई है लेकिन, बदली परिस्थितियों में चाइनीज हुक्मरानों को भी लोकतंत्र की जरूरत महसूस हो रही है। ऐसे में चीन के भीतर एक सोच ये भी आकार ले रही है कि अगर अमेरिका लोकतंत्र की बीजिंग की परिभाषा को नहीं मानता है तो फिर चाइना को भी लोकतंत्र की अमेरिकी परिभाषा को नहीं मानना चाहिए। दरअसल, नए दौर में लोकतंत्र के नाम पर गोलबंदी और तनातनी को Cold War 2.0 की तरह देखा जा सकता है।

अधिकतर देशों में जनता के दम पर आया लोकतंत्र

कम्युनिस्ट विचारधारा वाले देश लोकतंत्र को अपने चश्मे से देखते हैं। अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन जैसे देश अपने चश्मे से...लेकिन, एक सच ये भी है कि लोकतंत्र का चरित्र तय करने में आजादी, समानता और मानवाधिकार के साथ दो और चीजें अहम भूमिका निभाती हैं – एक न्यायिक स्वतंत्रता और दूसरा संपत्ति का अधिकार। भारतीय लोकतंत्र सबको साथ लेकर चलने के फलसफे पर बढ़ता है। अगर दुनिया के इतिहास को देखे तो पता चलता है कि लोकतंत्र जब शासन पद्धति का हिस्सा बना तो उसके केंद्र में सामान्य जनता नहीं थी। दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में लोकतंत्र जनता के द्वारा नहीं...जनता के दम पर आया है। लोकतंत्र का रूप-रंग और तौर-तरीका कैसा हो? इसे ज्यादातर हिस्सों में समाज के ताकतवर और प्रभावशाली लोगों ने तय किया है। दुनिया के हर हिस्से में लोकतंत्र को सोशल मीडिया बहुत हद तक प्रभावित कर रहा है। इससे आधुनिक लोकतंत्र को उम्मीद भी है और खतरा भी। राजनीतिक विमर्श को प्रभावित करने में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। ये भारत में भी हो रहा है। पाकिस्तान में भी...अमेरिका समेत दूसरे देशों में भी।

सोशल मीडिया से लोकतंत्र को फायदा या नुकसान?

सोशल मीडिया से लोकतंत्र को फायदा है या नुकसान...ये इस बात पर निर्भर करता है कि सोशल मीडिया को कौन और किस मकसद से इस्तेमाल कर रहा है। मौजूदा समय में दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में लोकतंत्र लोक-कल्याणकारी योजनाओं, धर्म, मीडिया और बाजार से प्रभावित हो रहा है। लेकिन, एक सच ये भी है कि दुनिया के हर हिस्से में लोग एक ऐसी शासन प्रणाली की चाह रखते हैं–जिसमें सरकार उनकी रोजमर्रा की मुश्किलों को आसान करने में अहम भूमिका निभाए। ऐसे में लोकतंत्रीय व्यवस्था में सत्ता में आने के लिए बहुसंख्यक यानी Majority को साधने की नई रेस शुरू हो गई है। कहीं मजहब के नाम पर तो कहीं राष्ट्रवाद के नाम, कहीं बेहतर सुविधाएं देने के नाम पर। ऐसे में लोकतंत्र की सही मायनों में कामयाबी के लिए जरूरी है कि चुनावी राजनीति को एक धर्म, एक सोच और एक व्यक्ति के वर्चस्व से जितना दूर रखा जाए उतना ही बेहतर रहेगा। स्क्रिप्ट और रिसर्च- विजय शंकर

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