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Karnataka Assembly Election 2023: क्या कन्नड़ लोगों ने क्षेत्रीय राजनीति को खारिज कर दिया? देखें कर्नाटक युद्ध में तीसरी ताकत

Karnataka Assembly Election 2023: कर्नाटक में चुनाव प्रचार अब आखिरी दौर में है। हवा किसके पक्ष में थी और अब किसके पक्ष में चल रही है…इसे लेकर सबके अपने-अपने आंकलन हैं। कर्नाटक में पहले भ्रष्टाचार के मुद्दे पर वोट की फसल तैयार करने की कोशिश हुई, फिर आरक्षण के नाम पर वोट बैंक बढ़ाने का दांव-पेंच […]

Edited By : Bhola Sharma | Updated: May 8, 2023 15:29
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Karnataka Assembly Election 2023

Karnataka Assembly Election 2023: कर्नाटक में चुनाव प्रचार अब आखिरी दौर में है। हवा किसके पक्ष में थी और अब किसके पक्ष में चल रही है…इसे लेकर सबके अपने-अपने आंकलन हैं। कर्नाटक में पहले भ्रष्टाचार के मुद्दे पर वोट की फसल तैयार करने की कोशिश हुई, फिर आरक्षण के नाम पर वोट बैंक बढ़ाने का दांव-पेंच चला। आखिर में बजरंग बली की भी एंट्री हो गई। जिसका जिक्र मैं अपने पिछले कार्यक्रमों में कर चुकी हूं। लेकिन, जब मैं कर्नाटक के नक्शे को देखती हूं, उसके पड़ोसी राज्यों की ओर देखती हूं तो मेरे दिमाग में एक और सवाल घूमने लगता है कि आखिर कर्नाटक की जमीन पर क्षेत्रीय पार्टियां मजबूत क्यों नहीं हो पायीं? जिस तरह से महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी है, आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस हैं, तेलंगाना में बीआरएस है, तमिलनाडु में DMK और AIADMK है। इस चुनाव में भी कर्नाटक में बीजेपी और कांग्रेस को छोड़ दें तो सीरियर प्लेयर के तौर पर सिर्फ जेडीएस ही खड़ी दिख रही है। दूसरी किसी मजबूत क्षेत्रीय पार्टी की मौजूदगी वहां महसूस नहीं की जा रही है।

अब सवाल उठता है कि क्या कर्नाटक की जमीन क्षेत्रीय दलों के लिए उपजाऊ नहीं है या कन्नड लोगों ने क्षेत्रीय राजनीति को खारिज कर दिया? ऐसे में आज मैंने आपको कर्नाटक पॉलिटिक्स में क्षेत्रीय दलों की भूमिका और मौजूदगी के पन्ने को पलटने का फैसला किया है। आज मैं News24 की एडिटर इन चीफ अनुराधा प्रसाद आपको बताने की कोशिश करूंगी कि इस बार कर्नाटक की चुनावी रणभूमि में कांग्रेस-बीजेपी के अलावे कौन-कौन सी पार्टियां खड़ी हैं? क्या उनमें दोनों बड़ी पार्टियों को चुनौती देने की क्षमता है? इस बार देवगौड़ा की जेडीएस पावरहाउस बनेगी या सन्नाटे में पहुंच जाएगी? जी.जर्नादन रेड्डी की पार्टी किसका खेल बिगाड़ेगी? क्या फिल्म एक्टर उपेंद्र राव की उत्तम प्रजाकिया पार्टी लोगों के दिल में जगह बना पाएगी? कर्नाटक में मुस्लिम वोट की पॉलिटिक्स किधर शिफ्ट हो रही है? ऐसे सभी सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे अतीत और वर्तमान के आइने में अपने स्पेशल शो– कर्नाटक युद्ध में तीसरी ताकत में।

30 सीटों पर हार-जीत का अंतर पांच हजार से कम रहा

कर्नाटक के वोट युद्ध में सीधी लड़ाई कांग्रेस और बीजेपी के बीच दिख रही है। जेडीएस की भी गाहे-बगाहे चर्चा नेशनल मीडिया मंन हो जाती है। ये भी भविष्यवाणी की जा रही है कि ये विधानसभा चुनाव जेडीएस के वजूद के लिए बहुत अहम है। कर्नाटक के अखाड़े में दूसरी कई पार्टियां भी अपने लिए बड़ा राजनीतिक आसमान तलाश रही हैं। इसमें केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी है, मायावती की बीएसपी है, वामपंथी दल भी हैं। कर्नाटक राष्ट्र समिति भी है, एक्टर उपेंद्र राव की उत्तम प्रजाकिया पार्टी भी। जी. जर्नादन रेड्डी की कल्याण राज्य प्रगति पक्ष भी, SDPI भी और AIMIM भी।

पिछले कर्नाटक विधानसभा चुनाव के आंकड़ों के विश्लेषण ये एक बात और पता चलती है कि सूबे में करीब 30 सीटें ऐसी रहीं, जहां जीत-हार के बीच का अंतर पांच हजार वोटों से भी कम का रहा। 11 सीटों पर अंतर तीन हजार वोटों से भी कम का था और पांच सीटों पर हजार वोटों से भी कम का अंतर रहा। ऐसे में अगर कर्नाटक युद्ध के छोटे खिलाड़ी भले ही चुनाव जीतने की क्षमता न रखते हों लेकिन, दो से पांच हजार के बीच वोट हासिल कर बड़े खिलाड़ियों का खेल बिगाड़ने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। ऐसे में कई सीटों पर बड़ी पार्टियों के दिल की धड़कन क्षेत्रीय पार्टियों के उम्मीदवार बढ़ाए हुए हैं। ऐसे में सबसे पहले ये समझने की कोशिश करते हैं कि इस बार के कर्नाटक युद्ध में क्षेत्रीय पार्टियों की मौजूदगी के मायने क्या हैं?

जेडीएस तीसरी सबसे सीरियस प्लेयर

कर्नाटक में बीजेपी और कांग्रेस के सामने मजबूती से जेडीएस के उम्मीदवार डटे हुए हैं। इसके उम्मीदवार विधानसभा पहुंचने के इरादे से लड़ रहे हैं, यानी कर्नाटक पॉलिटिक्स में बीजेपी-कांग्रेस के बाद जेडीएस तीसरी सबसे सीरियस प्लेयर है। इस बार के देवगौड़ा खानदान की तीसरी पीढ़ी यानी एचडी कुमारस्वामी के पुत्र निखिल कुमारस्वामी भी चुनाव में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। देवगौड़ा अच्छी तरह समझ रहे होंगे कि ओल्ड मैसूर में भी गढ़ बचाना कितना मुश्किल है। क्योंकि, इस क्षेत्र में बीजेपी लंबे समय से वोक्कालिगा वोटबैंक में चुंबक लगाने के लिए काम कर रही थी। ऐसे में जेडीएस वोक्कालिगा और मुस्लिम वोटों के साथ खासतौर से महिला वोटरों को साधने की रणनीति पर आगे बढ़ी है। जेडीएस ने सरकार बनने पर सूबे की महिलाओं को कई तरह की आर्थिक मदद का वादा किया है। किसान से शादी करने वाली लड़कियों को दो लाख रुपये कि सब्सिडी देने का वादा है। इसलिए, ओल्ड मैसूर के अलावा दूसरे क्षेत्रों में भी जेडीएस उम्मीदवारों की दमदार मौजूदगी कांग्रेस और बीजेपी दोनों की ही टेंशन बढ़ाए हुए हैं। दूसरी ओर, खनन कारोबारी जी. जर्नादन रेड्डी की पार्टी कल्याण राज्य प्रगति पक्ष ने 49 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं, जिसमें से KRPP ने 25 सीटें जीतने का टारगेट रखा है। जर्नादन रेड्डी ने जिन क्षेत्रों में अपने ज्यादातर उम्मीदवार खड़े किए हैं, वो बीजेपी गढ़ माने जाते हैं।

2018 में मौजूद थीं 80 से ज्यादा क्षेत्रीय पार्टियां

कर्नाटक में चुनाव की घोषणा से पहले SDPI और AIMIM बहुत एक्टिव थे। लेकिन, मुस्लिम वोटों की राजनीति करने वाली दोनों पार्टियां सिर्फ गिनती के उम्मीदवार ही चुनावी अखाड़े में उतार पायीं। इसी तरह आम आदमी पार्टी की नजर खासतौर से शहरी वोटरों पर है। वहीं, कर्नाटक के सियासी आसमान में बीएसपी और समाजवादी पार्टी भी अपने विस्तार के लिए हाथ-पैर मार रही हैं पर कर्नाटक के लोग किसे कुबूल करेंगे और किसे खारिज? इस सवाल के जवाब के लिए 13 मई तक का इंतजार करना होगा। इतिहास गवाह रहा है कि कर्नाटक के लोगों ने क्षेत्रीय पार्टियों की जगह राष्ट्रीय पार्टियों को ही प्रमुखता दी है। 2018 के कर्नाटक चुनाव में करीब 75 फीसदी वोट राष्ट्रीय पार्टियों के खाते में गए। शेष सब 25 फीसदी में सिमट गए। आपको शायद ये जान कर हैरानी होगी कि 2018 के कर्नाटक युद्ध में 80 से ज्यादा राजनीतिक पार्टियों की मौजूदगी थी। कन्नड़ भाषी क्षेत्रों के मिलाकर अलग राज्य के रूप में भारत के नक्शे पर उभरने वाले कर्नाटक में सत्ता शुरुआती दौर में कांग्रेस के हाथों में रही, हालांकि, आंदोलन के गर्भनाल से निकली एक और पार्टी ने साल 1962 के चुनावों में अपनी दमदार मौजूदगी का एहसास कराया। महाराष्ट्र एकीकरण समिति, जिसका मकसद था मैसूर स्टेट के बेलगाम जिले को बॉम्बे स्टेट में मिलाकर महाराष्ट्र राज्य की स्थापना। इस पार्टी का प्रभाव कुछ ऐसा रहा कि 1962 में छह सीटों उम्मीदवार उतारे और सभी सीटें जीतने में कामयाब रही।

जनता पार्टी से जनता दल निकला

महाराष्ट्र एकीकरण समिति जैसी पार्टियों का दायरा बहुत सीमित था। वो सूबे के एक बहुत छोटे हिस्से के लोगों की आवाज बुलंद कर रही थीं। ऐसे में ऐसी छोटी पार्टियां एक बड़ी राजनीतिक ताकत या पूरे प्रदेश की नुमाइंदगी करने वाली छतरी नहीं तान पायीं। साल 1983 में कर्नाटक में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी या कहें गठबंधन सरकार बनी, जिसके मुखिया बने रामकृष्ण हेगड़े। जनता पार्टी से जनता दल निकला। बाद में पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा ने जनता दल सेक्युलर नाम अलग पार्टी बनाई। जिसमें कभी सिद्धारमैया जैसे नेता भी थे। जिसकी छतरी तले कई बार उनके पुत्र कुमारस्वामी किंग या किंगमेकर की भूमिका में रहे हैं। एक और नाम का जिक्र करना जरूरी है– वो है कर्नाटक जनता पक्ष। साल 2012 में जब बीएस येदियुरप्पा की मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर ठन गई तो उन्होंने बीजेपी के रथ से उतरकर इस पार्टी की शुरुआत की।

लोगों ने क्षेत्रीय दलों से ज्यादा राष्ट्रीय दलों को दी तरजीह

येदियुरप्पा ने अपनी पार्टी का बीजेपी में विलय कर दिया लेकिन, एक और बात का जिक्र करना जरूरी है कि बीजेपी से अलग होकर येदियुरप्पा ने जो राजनीतिक लकीर खींचने की कोशिश की थी। उसका चरित्र बहुत हद तक सेक्युलर रखा। कर्नाटक के सियासी आसमान में भी समय के साथ नई-नई पार्टियां बनती रहीं, चुनावी अखाड़े में उतरती रहीं। लेकिन, ज्यादातर के राजनीतिक विकल्प नहीं बनने की एक बड़ी वजह उनके नेताओं की तंग सोच को भी माना जा सकता है।  कर्नाटक के गठन के बाद संभवत: कोई ऐसी क्षेत्रीय पार्टी नहीं बन पाई जो पूरे सूबे के मुद्दों की बात करती हो, जो पूरे कर्नाटक को एक सूत्र और एक एजेंडे के साथ जोड़ सके। कर्नाटक की ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं ने संगठन का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के इस्तेमाल के लिए किया। ऐसे में सूबे के लोगों ने क्षेत्रीय पार्टियों की जगह राष्ट्रीय पार्टियों में ज्यादा भरोसा किया।

स्क्रिप्ट और रिसर्च : विजय शंकर

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Written By

Bhola Sharma

First published on: May 08, 2023 03:29 PM

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