अपना-अपना लोकतंत्र: क्या भारत में लिखी जा रही है लोकतंत्र की नई परिभाषा?
Anurradha Prasad Show
Anurradha Prasad Show: मैं अनुराधा प्रसाद। किसी भी मुल्क के लिए 76 साल का समय कोई बहुत लंबा नहीं होता है लेकिन, इतना छोटा भी नहीं कि बदलावों को महसूस न किया जा सके, तरक्की की नई कहानियां न लिखी जा सकें। 15 अगस्त 1947 को आजादी के बाद से भारत में भी बहुत बदलाव हुआ है। दूर-दराज के गांवों से लेकर अंतरिक्ष तक, लोगों के पहनावा-ओढावा से सोच तक में दुनियाभर के बुद्धिजीवियों में अक्सर इस बात को लेकर चर्चा होती रहती है कि भारत में लोकतंत्र की कामयाबी का राज क्या है? भारत की आजादी की 77वीं वर्षगांठ से पहले पॉलिटिकल साइंस की स्टूडेंट और एक पत्रकार होने के नाते मेरे मन में सवाल उठ रहा है कि पिछले 75 वर्षों में भारतीय लोकतंत्र के स्वरूप में किस हद तक बदलाव आया है? संसद और विधानसभाओं की कार्यवाही जिस तरह से चल रही है, वो लोकतंत्र की सेहत के लिए अच्छी है बुरी? आजादी के बाद जिन संसदीय परंपराओं को स्थापित किया गया क्या वो अब Outdated हो चुकी हैं या फिर उन्हें एक खास सोच के साथ बदलने की कोशिश की जा रही है? क्या प्रचंड बहुमत से लैस किसी सरकार के लिए विपक्ष की सोच के लिए कोई जगह नहीं है? आखिर संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका क्या होनी चाहिए? क्या विपक्ष को भी सरकार की तरह ही 24x7 एक्शन में रहना होगा? क्या प्रचंड बहुमत की आड़ में संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर किया जा रहा है या उनमें अपने लोगों को बैठाने का रास्ता निकाला जा रहा है? आखिर बदली परिस्थितियों में लोग सरकार से क्या चाहते हैं और सत्ताधारी पार्टियां लोगों से क्या चाहती हैं? क्या फ्रीबीज के नाम पर सरकारें लोगों से सीधा रिश्ता जोड़ और दूसरों से संवाद की कड़ियां तोड़ रही हैं? ऐसा करना किसी सत्ताधारी पार्टी के सत्ता के मद में चूर होना है या बेहतर Performance का दबाव? ऐसे सभी सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे -अपने खास कार्यक्रम अपना-अपना लोकतंत्र में...
सरकार और विपक्ष के बीच रिश्ते हुए कमजोर
अगर आप किसी शख्स से पूछेंगे कि लोकतंत्र को कैसे परिभाषित करेंगे तो ज्यादातर का जवाब आएगा कि Democracy is a government of the people, by the people, and for the people। लोकतंत्र की इस परिभाषा को गढ़ा था अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने। उसके बाद देश-काल के हिसाब से लोकतंत्र की परिभाषा भी बदलती गई। इसमें Equality, Justice…Distributive Justice, Social Justice, Human Rights, Authoritative allocation of Values जैसी सोच भी समय के साथ जुड़ती गई। अब्राहम लिंकन को दुनिया छोड़े 158 साल से ज्यादा बीत चुके हैं लेकिन, उनकी ये परिभाषा दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में दोबारा नए रूप में स्थापित होती दिख रही है। सरकार और जनता के बीच रिश्तों का आधार Give & Take बनता जा रहा है। लोग उसी को अपना वोट देना चाहते हैं, जहां से उन्हें कुछ सीधा मिलने की उम्मीद दिखती है। सरकार और विपक्ष के बीच रिश्तों की डोर भी कमजोर पड़ती जा रही है। एक-दूसरे पर कटाक्ष और तीखे तंज तेजी से बढ़ रहे हैं। ऐसा लगता है कि सत्ताधारी पार्टियां भीतरखाने एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था बनाने की कोशिश कर रही हैं, जिसमें प्रतिस्पर्धा के लिए कोई जगह न बचे। लोगों के पास सत्ता के लिए दूसरे विकल्प की गुंजाइश ही न बचे। न सत्ता पक्ष विपक्ष के साथ तालमेल के साथ आगे बढ़ना चाहता है न ही विपक्ष सत्ता पक्ष को सुनना चाहता है। ये एक ऐसी होड़ चल रही है, जिसकी एक तस्वीर संसद में विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव और सरकार की ओर आए जवाब में भी दिखी।
क्या संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर कर रहे पीएम मोदी?
10 अगस्त को राज्यसभा में एक विधेयक पेश हुआ। उस विधेयक का तानाबाना मुख्य निर्वाचन आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से जुड़ा था। प्रस्तावित बिल के मुताबिक, भविष्य में Chief Election Commissioner और Election Commissioner की नियुक्ति प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाला तीन सदस्यीय पैनल करेगा। जिसमें नेता प्रतिपक्ष और एक कैबिनेट मंत्री होगा। इसमें पहले Chief Justice of India भी हुआ करते थे। विपक्ष अक्सर सरकार पर संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करने का आरोप जड़ता रहता है। सवाल EVM पर भी उठाए जाते रहे हैं। ऐसे में पीएम मोदी ने विपक्ष पर प्रहार करते हुए कहा कि लोकतंत्र की बात करने वाले EVM को खत्म करने की साजिश रच रहे हैं। ऐसे में विरोधियों के तीरों को उनकी ओर मोड़ने का कोई मौका मोदी नहीं छोड़ते हैं।
इतिहास गवाह रहा है कि जब भी भारत की लोकतंत्रीय व्यवस्था में प्रचंड बहुमत से लैस कोई सरकार बनी है, जब भी कोई बहुत ही मजबूत लीडरशीप उभरी है विपक्ष लोगों के बीच अपनी मौजूदगी दमदार तरीके से दर्ज करवा पाने में सक्षम नहीं होता है। ऐसी स्थिति में विपक्ष के भीतर सरकार के तौर-तरीकों को लेकर अविश्वास की स्थिति बहुत अधिक महसूस की गई है। भले ही प्रचंड बहुमत से लैस और मजबूत नेतृत्व वाली सरकारों की नीयत साफ हो। लेकिन, उनकी नीति को विपक्ष शक की नज़रों से देखता रहा है। संवैधानिक संस्थाओं पर मजबूत नेतृत्व के इशारे पर चलने के आरोप गाहे-बगाहे लगते रहे हैं। चाहे इंदिरा गांधी का दौर रहा हो या राजीव गांधी का या फिर मौजूदा नरेंद्र मोदी की सरकार हो।
हमारा लोकतंत्र अगर मजबूती से खड़ा है तो इसमें संवैधानिक संस्थाओं की भी बड़ी भूमिका रही है। इन संस्थाओं ने संविधान के मुताबिक देश को चलाने में बड़ी भूमिका निभाई है। हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबसूरती यहां की संसदीय परंपराओं में छिपी मानी जाती है। जिसमें विपक्ष को रौंदने वाली सोच नहीं, विपक्ष को सहयोगी के रूप में देखने की परंपरा रही है। विरोधी पार्टी के नेताओं के साथ संवाद में लोकतंत्र की जड़ों को मजबूती और लोगों का ज्यादा से ज्यादा भला देखा जाता रहा है।
पुरानी लोकतंत्रीय परंपराएं ठीक हैं या नए दौर का लोकतंत्र?
पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह की राजनीति आगे बढ़ी है, उसमें राजनीतिक पार्टियों का सबसे बड़ा काम चुनाव जीतना बन चुका है। चुनावी सिस्टम को पैसा और एक बड़ा संगठित तंत्र काम कर रहा है। एक-एक वोटर को साधने की ऐसी मुहिम चल रही है, जिसमें छोटी पार्टियों और Common Man के लिए दिनों-दिन जगह कम होती जा रही है। तेजी से बदलते चुनावी Eco system के बीच वोटर भी वहीं EVM दबाता है, जिसके चुनाव जीतने के चांस ज्यादा होते हैं। भले ही हमारे संविधान में लिखा गया है कि विधायक अपने नेता यानी मुख्यमंत्री का चुनाव करेंगे। लोकसभा सांसद अपने नेता यानी प्रधानमंत्री का चुनाव करेंगे। लेकिन, वोट मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के चेहरे पर मांगने की परंपरा मजबूत हुई है। ऐसे में मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री की कुर्सी पर चाहे जिसे बैठने का मौका मिला, उसके ऊपर लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरने की बड़ी चुनौती रहती है। लोग भी अपने वोट के बदले सरकार से बेहतर से बेहतर सुविधाएं चाहते हैं। जिंदगी की मुश्किलों को आसान करने में सरकार की मददगार के रूप में भूमिका चाहते हैं। ऐसे में ज्यादातर सियासी पार्टियां पुराने दौर की संसदीय परंपराओं की जगह Performance को ड्राइविंग सीट पर रखे हुए हैं। ये एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें लोग इस बात से खुश हैं कि उन्हें वोट के बदले मुफ्त राशन, मुफ्त इलाज, बच्चों को मुफ्त शिक्षा मिल रही है। राजनीतिक पार्टियां इस बात से खुश हैं कि उनकी सरकार की लोक-लुभावन और मुफ्त की योजनाओं की वजह से वोट मिल रहा है। ऐसे में इस सवाल पर भी मंथन जरूरी है कि पुरानी लोकतंत्रीय परंपराएं ठीक हैं या नए दौर का Performance based लोकतंत्र?
सोच-समझकर जनता करती है अपने वोट का इस्तेमाल
लोगों का वोट हासिल करने के लिए सरकारें मुफ्त की योजनाओं की घोषणा पर घोषणा कर रही हैं। ऐसी योजनाएं चलाई जा रही हैं, जिसमें गरीब लोगों को उन्हें मुफ्त अनाज, मुफ्त बिजली, मुफ्त पढ़ाई, मुफ्त दवाई जैसी सुविधाएं दी जा सकें। इतना ही नहीं खाते में कैश मदद भी पहुंचाई जा रही है। जो राजनीतिक दल सत्ता में अपनी पारी का इंतजार कर रहे हैं, वो भी लोगों को बड़े-बड़े सपने दिखा रहे हैं। ऐसे में तेजी से बदलते हालात में भारतीय लोकतंत्र में लेन-देन यानी Give & Take की प्रवृति मजबूत हुई है। इसे अगर एक आंख से देखें तो लगेगा कि सरकार का मूल काम है लोगों की मदद करना जो सरकार कर रही है। लेकिन, दूसरी आंख से देखें तो ये लगेगा कि फ्रीबीज से देश की आर्थिक सेहत से खिलवाड़ करते हुए लोगों में मुफ्तखोरी की आदत डाली जा रही है हमारे लोकतंत्र की एक और खास बात है जनता अपने वोट का बहुत सोच-समझ कर इस्तेमाल करती है।
मसलन, जिस इंदिरा गांधी को गरीबी हटाओ नारे के बाद लोग प्रचंड बहुमत से सत्ता के शिखर पर पहुंचा देते हैं तो पब्लिक इमरजेंसी के बाद उन्हें सियासत की मुख्यधारा से किनारे लगा देती है और जिन लोगों को शासन के लिए चुनती है उनके चाल, चरित्र और चेहरे को देखते हुए दो साल में ही हटाने में भी देर नहीं लगाती। खंडित जनादेश देकर देश के लोग वैचारिक रूप से अलग पार्टियों को साथ आने पर मजबूर करते हैं तो सत्ता के लिए सौदेबाजी की सियासत भी देखते हैं। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास के पन्नों में वीपी सिंह लेकर चंद्रशेखर तक, एचडी देवेगौड़ा से आईके गुजराल तक, नरसिम्हा राव से अटल बिहारी वाजपेयी तक का जिक्र है।
10 साल तक मनमोहन सिंह ने भी गठबंधन सरकार चलाई। गठबंधन की राजनीति की सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि सत्ताधारी दल की डोर हमेशा उसके सहयोगियों की हाथों में रहती है। ऐसे में सहयोगी अपनी ताकत के हिसाब से सौदेबाजी करने का मौका भी हाथ से नहीं जाने देते हैं।
कांग्रेस ने वाजपेयी को भेजा था संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग
इतिहास गवाह रहा है कि अगर प्रचंड बहुमत से लैस इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और नरेंद्र मोदी ने सत्ता में रहते बड़े और कड़े फैसले लिए तो गठबंधन सरकार चलाते हुए नरसिम्हा राव ने भी उदारीकरण जैसा फैसला लेने में जरा भी हिचक नहीं दिखाई। गठबंधन सरकार चलाते हुए ही अटल बिहारी वाजपेयी ने परमाणु परीक्षण का फैसला लिया था। मनमोहन सिंह ने गठबंधन सरकार में ही अमेरिका के साथ परमाणु करार पर दस्तखत किए थे। वो भी भारत के संसदीय लोकतंत्र का ही दौर था जब नरसिम्हा राव ने कश्मीर के मुद्दे पर भारत का पक्ष रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भेजे गए प्रतिनिधिमंडल में विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को शामिल किया था।
सत्ता और विपक्ष, दोनों को दूर करनी चाहिए मानसिक जकड़न
वो भी एक दौर था जब गंभीर मसलों पर पब्लिक के बीच जाने से पहले विपक्षी नेताओं से सलाह-मशवरा किया जाता था। लेकिन, पिछले कुछ वर्षों में लोकतंत्र को सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ने ही अपनी सहूलियत के हिसाब से परिभाषित किया है। आजादी की 77वीं वर्षगांठ से पहले इस बात पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं को गंभीरता से सोचना चाहिए कि ऐसा कौन का रास्ता निकाला जाए जिससे एक-दूसरे पर तीखे कटाक्ष और मतभेद को मनभेद में बदलने वाली मानसिक जकड़न से आजादी मिले। संसद और विधानसभाओं के बीच जनता से जुड़े मुद्दों पर खुलकर बहस हो। एक-दूसरे को जड़ से मिटाने की जगह लोगों की बेहतरी के लिए दमदार भूमिका निभाने वाली सोच को बढ़ावा मिले।
देखिए पूरा शो...
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