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अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने से लेकर मंदिर निर्माण तक की कहानी…

Bharat Ek Soch: दो बड़ी घटनाओं से 1990 के दशक की शुरुआत हुई। जिसने भारत की बड़ी आबादी को प्रभावित करना शुरू कर दिया।

भारत एक सोच
Bharat Ek Soch: अयोध्या में बने भव्य मंदिर में रामलला विराजमान हो चुके हैं। सोमवार को प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम का पूरी दुनिया को इंतजार है। पूरे देश में जिस तरह का माहौल है उसे कोई अध्यात्म और आस्था के चश्मे से देख रहा है। कोई राजनीतिक नफा-नुकसान के एंगल से विश्लेषण में जुटा है, तो कोई भविष्य में अयोध्या की तरक्की का हिसाब लगा रहा है, लेकिन एक बड़ा सत्य ये है कि आज की तारीख में अयोध्या में जो कुछ हो रहा है, उसका असर भारत की सामाजिक व्यवस्था पर बहुत लंबे समय तक दिखाई पड़ना तय है। जरा सोचिए 40 साल पहले जब अयोध्या में मंदिर के लिए आंदोलन ने जोर पकड़ना शुरू किया, तब क्या किसी ने इतने भव्य-दिव्य राम मंदिर की कल्पना की थी? अयोध्या अध्याय की अब तक की यात्रा में हम आपको बता चुके हैं कि मंदिर के लिए आंदोलन और आक्रोश को किस तरह से हवा मिल रही थी। लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा ने किस तरह से देशभर की बड़ी आबादी को राम और मंदिर के नाम पर हिंदुत्व की नई धारा के साथ जोड़ दिया था। एक ओर मंडल-कमंडल, कम्युनल-सेक्यूलर के खांचे में बंटता समाज, तो दूसरी ओर कारसेवकों का सुनामी की लहरों की तरह उफान मारता जोश, अब 6 दिसंबर 1992 और उसके आगे की कहानी। 1990 के दशक की शुरुआत दो बड़ी घटनाओं से हुई। जिसने विशालकाय भारत की बड़ी आबादी को प्रभावित किया। एक मंडल-कमंडल की राजनीति और दूसरा आर्थिक उदारीकरण। दोनों ही तब परिस्थितियों की पैदाइश थी। एक के लिए तो बहुत हद तक राजनीति जिम्मेदार थी। वहीं दूसरी के लिए आर्थिक दुनिया में तेजी से होते बदलाव। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल समेत दूसरे हिंदुत्ववादी संगठन अयोध्या में मंदिर आंदोलन को चरम तक ले गए। देश की राजनीति हिंदू-मुस्लिम वोटबैंक की परिक्रमा करने लगी। मुलायम सिंह ने पहली बार बतौर मुख्यमंत्री शपथ तो बीजेपी के समर्थन से ली थी। लेकिन, अयोध्या में गोलीकांड के बाद मुलायम सिंह मुस्लिमों के नए नायक और कारसेवकों के खलनायक बन गए। अक्टूबर, 1992 में उन्होंने समाजवादी पार्टी नाम से अलग छतरी तानी, तो बीजेपी के नेता नारा लगा रहे थे- वो जात-पात से तोड़ेंगे, हम धर्म-संस्कृति से जोड़ेंगे। देखते ही देखते 5 दिसंबर, 1992 की तारीख आ गई। अयोध्या में लाखों की संख्या में कारसेवक मौजूद थे। वहां से करीब 140 किलोमीटर की दूरी पर लखनऊ में एक बड़ी रैली हुई। जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी ने जमीन समतल करने की बात की, तो आडवाणी ने संकल्प पूरा करने के लिए बलिदान देने की बात की। वीएचपी नेता अशोक सिंघल ने कहा कि कारसेवा सिर्फ भजन-कीर्तन के लिए नहीं है, बल्कि मंदिर का निर्माण कार्य शुरू करने के लिए है। अयोध्या में मौजूद कारसेवकों का जोश सुनामी में बदल चुका था। अयोध्या में पुलिस अफसरों को सूबे की सरकार ने सख्त हिदायत दी थी कि किसी कीमत पर गोली नहीं चलानी है। यूपी पुलिस के जवान तमाशबीन बने रहे। केंद्र सरकार भी सिर्फ अयोध्या की पल-पल की जानकारी लेती रही, लेकिन कुछ कर नहीं पाई। बाद में चाहे दलील जो भी दी जाती रही हो, लेकिन हकीकत यही है कि बाबरी ढांचे के एक-एक कर तीनों गुंबद कारसेवकों ने गिरा दिए। उस दिन अयोध्या में पूरी तरह से कारसेवकों का राज था। अगले दिन यानी 7 दिसंबर को CRPF और रैपिड एक्शन फोर्स एक्शन ने उस जगह को अपने कब्जे में ले लिया। तब तक वहां एक अस्थायी मंदिर बन चुका था। सवाल सिर्फ कल्याण सिंह सरकार पर ही नहीं, केंद्र में बैठी नरसिम्हा राव सरकार की भूमिका पर भी उठ रहे थे। बाबरी ढांचा गिरने के बाद केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियां थीं। पहली, विवादित स्थल के पास यथास्थिति बहाल रखना। दूसरी, ये तय करना कि क्या मस्जिद से पहले वहां कोई मंदिर था? यूपी में राष्ट्रपति शासन लगा हुआ था। ऐसे में सारी जिम्मेदारी केंद्र सरकार की थी। राव सरकार ने एक अध्यादेश के जरिए रामलला की सुरक्षा के नाम पर आसपास की करीब 67.7 एकड़ जमीन Acquire यानि अधिग्रहीत की। यह अध्यादेश संसद ने 7 जनवरी, 1993 को एक कानून के जरिए पारित किया। इसी दौर में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा ने संविधान की धारा 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट को एक सवाल रेफर किया। सवाल था- क्या जिस स्थान पर ढांचा खड़ा था, वहां बाबरी मस्जिद के निर्माण से पहले कोई हिन्दू मंदिर या हिन्दू धार्मिक इमारत थी? अगर सियासत के लिहाज से यूपी की तस्वीर को देखा जाए तो अयोध्या में विवादित ढांचा गिरने के बाद मुलायम सिंह की राजनीति को नया वोट बैंक मिला। बीएसपी के साथ उनकी पार्टी का गठबंधन हुआ। चुनावी मंचों से नारा लगने लगाने लगा कि मिले मुलायम-कांशीराम, हवा हो गए जय श्रीराम। यूपी में गठबंधन सरकारों और जात-पात के वोट बैंक की राजनीति को मजबूती मिली। सत्ता के लिए नए समीकरण बनने और बिगड़ने लगे। जिसमें गठबंधन का आधार या कन्युनल फोर्सेज को रोकना बताया जाने लगा या हिंदुत्व के राष्ट्रवादी संस्करण को आगे बढ़ाया जाने लगा। अयोध्या राजनीति और अदालती चर्चा में तो लगातार रही, लेकिन श्रीराम की नगरी विकास और बदलाव की बयार से दूर...बहुत दूर रही। https://youtube.com/live/kdow-g22duQ?feature=sharep बात अप्रैल 2002 की है। अयोध्या केस में इलाहाबाद हाईकोर्ट में तीन जजों की स्पेशल बेंच ने सुनवाई शुरू की। सवाल वही- विवादित स्थल पर किसका अधिकार है। इस पेचीदा मसले को सुलझाने के लिए एक ओर अदालत में दांव-पेंच चल रहा था। दूसरी ओर सियासी तौर पर भी कोशिशें जारी थीं। इस विवाद को सुलझाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पीएमओ में एक अयोध्या डेस्क का गठन कर दिया। अयोध्या विवाद से जुड़े दोनों पक्षों से बातचीत की जिम्मेदारी सीनियर अफसर शत्रुघ्न सिंह को दी गई, लेकिन इसमें कोई खास कामयाबी नहीं मिली। इसी दौर में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सच्चाई का पता लगाने के लिए Archaeological Survey of India यानी ASI को खुदाई करने का निर्देश दिया। ASI की खुदाई में पारदर्शिता और दोनों समुदाय की मौजूदगी का पूरा ध्यान रखने का भी आदेश दिया। अयोध्या केस से जुड़े तीनों पक्ष यानी निर्मोही अखाड़ा, सुन्नी वक्फ बोर्ड और रामलला विराजमान ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को मानने से इनकार कर दिया। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ वे सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। देश की सबसे बड़ी अदालत ने जमीन बंटवारे पर रोक लगा दी। यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया। वक्त तेजी से आगे बढ़ रहा, लेकिन अयोध्या की गुत्थी सुलझ नहीं पा रही थी। न सुप्रीम कोर्ट के कहने पर मध्यस्थता से, न सियासी पहल से, न संत-समाज से। दिल्ली में सत्ता का मिजाज बदला। प्रचंड बहुमत से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे नरेंद्र दामोदर दास मोदी। हिंदुत्व के सबसे चमकदार पोस्टर ब्वॉय। विश्व हिंदू परिषद समेत दूसरे हिंदूवादी संगठनों ने नए सिरे से रामधुन तेज कर दी। अयोध्या फिर से सुर्खियों में आ गई। सुप्रीम कोर्ट ने भी अयोध्या केस में तेज सुनवाई का फैसला किया, 40 दिनों तक इस केस से जुड़े पक्षों ने अपनी दलील रखी। 9 नवंबर, 2019 के देश की सबसे बड़ी अदालत ने अयोध्या केस में फैसला सुना दिया। भारत की सबसे बड़ी अदालत ने देश के सबसे विवादित और पुराने झगड़े को सुलझा दिया। अयोध्या केस में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कई तीखी टिप्पणी भी की। कोर्ट ने साफ कहा कि 1949 में विवादित ढांचे के अंदर रामलला की मूर्ति रखा जाना गलत और अपवित्र काम था। इसी तरह, 1992 में बाबरी ढांचे का ढहाया जाना सीधे-सीधे कानून का उल्लंघन था। सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या में श्रीराम मंदिर के लिए ट्रस्ट बनाने का आदेश दिया, तो मुस्लिम पक्ष को मस्जिद के लिए पांच एकड़ जमीन देने का फैसला हुआ। मोदी सरकार ने अदालत की ओर से तय डेडलाइन के हिसाब से ट्रस्ट का भी गठन कर दिया और फिर शुरू हो गया अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण का काम, जिसका एक भव्य रूप दुनिया के सामने है। देश के करोड़ों लोगों का राम मंदिर का सपना तो पूरा हुआ अब उन्हें सपनों के रामराज्य का इंतजार है।


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