नई दिल्ली : हिंदू पंचांग के अनुसार होली फाल्गुन महीने की पूर्णिमा को मनाई जाती है। इस बार देश और दुनिया भर में रंग वाली होली 29 मार्च 2021 को खेली जाएगी। आनंद और खुशियों का पर्व होली पूरे भारतवर्ष में बहुत ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है, लेकिन होली की असली धूम भगवान श्रीकृष्ण के पावन नगरी बरसाने में देखने की मिलती है।
होली का त्योहार हर किसी के जीवन में खुशियों की सौगात लेकर आता है। वही बसंत पंचमी के दिन से खेले जाने वाली होली का उत्सव भगवान श्रीकृष्ण और राधारानी की नगरी मथुरा, वृंदावन, ब्रज और बरसाने में देखने को मिलता है। बरसाने की लट्ठमार होली अपने अनूठे तरीके के लिए विश्वप्रसिद्ध है। तो चलिए जानते हैं क्यों खास होती है ब्रजमंडल की लट्ठमार होली।
रंगों का यह त्योहार जहां लोगो की ज़िन्दगी को रंगमय कर देता है, वहीं राधा के जन्म स्थान बरसाना के लोगों के लिए बेहद खास होता है। विश्वप्रसिद्ध बरसाने की लट्ठमार होली फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाई जाती है। यहाँ की होली का नजारा ही अलग होता है जिससे देखने लोग देशभर से आते हैं और नवमी के दिन यहां का दृश्य देखने लायक होता है। उत्साह और उमंग के पर्व होली में बरसाने के लोग रंगों, फूलों के साथ डंडों से होली खेलने की परंपरा निभाते आए हैं।
होली के रंग हम सभी को आपस में जोड़ता है और रिश्तों में प्रेम और अपनापन भर देता है। इसलिए इस दिन नंदगाँव के ग्वाल भी होली खेलने के लिए राधा रानी के गाँव बरसाने जाते हैं और एक दूसरे को गले लगाकर अपने जीवन को रंगमय कर देते है। विभिन्न मंदिरों में पूजा-अर्चना के बाद नंदगांव के पुरुष बरसाने की लड़कियों और महिलाओं के संग बड़े धूमधाम से लट्ठमार होली खेलते है।
भगवान श्री कृष्ण के समय से चली आ रही है लट्ठमार होली की परंपरा। इसी तरह मथुरा और वृन्दावन में होली का पर्व 15 दिनों तक मानते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान कृष्ण अपने ग्वालों संग होली खेलने नंदगांव से बरसाना जाते हैं।
बरसाना पहुंचकर वे राधारानी और उनकी सखियों संग होली खेलते हैं और होली खेलने के साथ-साथ वहां का लोकगीत 'होरी' गाया जाता है। इस दौरान कान्हा अपनी राधा संग ठिठोली करते है जिसके बाद वहां की सारी गोपियां उन पर डंडे बरसाती है। तभी से लट्ठमार होली विश्वभर में प्रसिद्ध है।
जब नाचते-गाते हुए लोग नंदगाव से बरसाना पहुंचते हैं तो औरतें हाथ में ली हुई लाठियों से उन्हें पीटना शुरू कर देती हैं और पुरुष खुद को बचाते हुए भागते हैं। सबसे खास बात यह है कि यह सब मारना-पीटना हंसी-खुशी के वातावरण में होता है। लोग एक दूसरे के साथ हसी-ठिठोली करते है।
गोपियों के डंडे की मार से बचने के लिए नंदगांव के ग्वाले लाठी और ढ़ालों का सहारा लेते हैं। उसी का परिणाम है कि आज भी इस परंपरा का निर्वहन उसी रूप में किया जाता है। पुरुषों को हुरियारे और महिलाओं को हुरियारन कहा जाता है। इसके बाद सभी एक दूसरे को रंग लगाकर होली का उत्सव मनाते है।
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