पंकज त्रिपाठीः पश्चिम बंगाल में 2021के चुनावी अभियानों में ज़िले से लेकर वार्ड स्तर तक हिंसक टकराव और हत्याएं हो रही हैं। बीजेपी अध्यक्ष नड्डा के लंबे-चौड़े काफिले को घेरकर हमला किया गया, जिससे एक बार फिर इस बात की पुष्टि हो गई कि बंगाल में जिसकी सरकार होती है, सबसे ज़्यादा हमले उसी की ओर से होते हैं।
पश्चिम बंगाल का विचित्र राजनीतिक इतिहास रक्त चरित्र वाली राजनीति से प्रेरित नज़र आता है, जिसकी सरकार होती है सबसे ज़्यादा हिंसक हमले उसी पार्टी के लोग करते हैं। टीएमसी और बीजेपी के बीच करीब तीन साल से जारी टकराव अब पहले से ज़्यादा हिंसक और ख़ूनी हो गई है। लेकिन, हमेशा से ऐसा नहीं था, पहले हिंसक हमले लेफ्ट की ओर से होते थे। 1980 से 1990 तक टीएमसी और बीजेपी दोनों का जनाधार कमज़ोर था।
इसलिए, 1980 से 1990 तक लेफ्ट और कांग्रेस के बीच हिंसा होती थी, क्योंकि, वामदल सत्ता में आ चुके थे और कांग्रेस अपना खोया जनाधार पाने की कोशिश में वर्चस्व स्थापित करने की लड़ाई लड़ रही थी। लेकिन, कांग्रेस हर मोर्चे पर पिछड़ती गई और लेफ्ट ने सामुदायिक क्लब से लेकर वार्ड स्तर तक अपने संगठन को ना केवल मजबूत किया, बल्कि उसे दबंग भी बनाया। शायद इसी रणनीति ने 34 साल तक बंगाल में वामदलों की सत्ता बनाए रखने में मदद की। इसके बाद 2005 से टीएमसी लगातार राज्य में मज़बूत होने की कोशिश करने लगी।
टीएमसी का वर्चस्व बढ़ा तो लेफ्ट के हमले बढ़े
2007 में सिंगूर आंदोलन और 2008 में नंदीग्राम आंदोलन की भूमिका बनी। टीएमसी ने सिंगूर और नंदीग्राम आंदोलन से अपना संगठन और वोट बैंक दोनों मज़बूत किया। इन दोनों आंदोलन की वजह से टीएमसी ने वार्ड स्तर से लेकर ज़िला स्तर तक अपने समर्थक तेज़ी से बनाए। टीएमसी के बढ़ते वर्चस्व को देखते हुए उनके कार्यकर्ताओं पर वाम मोर्चा की ओर से हमले होने लगे। एक-दूसरे के पार्टी दफ्तर कब्ज़ाने से लेकर सामुदायिक क्लब वाली राजनीति में दबदबा बनाने के लिए लेफ्ट और टीएमसी के बीच दर्ज़नों हिंसक घटनाएं हुईं। इसके बाद 2011 में टीएमसी सत्ता में आ गई।
सत्ता संभालने के कुछ महीने बाद से ही वाम मोर्चा पर टीएमसी के हमले बढ़ने लगे। वामदलों के कई पार्टी दफ्तरों पर टीएमसी के लोगों ने जबरन कब्ज़ा कर लिया। लेफ्ट के चुनावी क्षेत्रों में जीतने के बाद उनके वर्चस्व को ख़त्म करने के लिए बैनर-पोस्टर की लड़ाई में भी जगह-जगह हिंसा होने लगी। टीएमसी के राजनीतिक वर्चस्व वाले क्षेत्रों में उनके कार्यकर्ता लेफ्ट को झंडे तक नहीं लगाने देते थे। यहां तक कि चुनाव प्रचार से भी रोकते थे। इसके बाद टीएमसी के लिए चुनौतियां बदलने लगीं।
2014 के बाद से टीएमसी के निशाने पर बीजेपी
2014 के लोकसभा चुनावों में कुल 16 राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुईं। इसकी बड़ी वजह ये थी कि बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में अपने दम पर टीएमसी से सीधी चुनावी लड़ाई लड़ी। हालांकि, 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को सिर्फ़ 2 सीटें मिली, लेकिन उसने पूरी ताक़त के साथ बंगाल में चुनावी एंट्री की। एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक 2014 के लोकसभा चुनाव में 44% हिंसा की घटनाएं सिर्फ़ बंगाल में हुईं।
2016 में बीजेपी ने अपना वोटबैंक मज़बूत किया, जिसके बाद बीजेपी पर टीएमसी के हमले बढ़ने लगे। इसी टकराव में 2018 के पंचायत चुनाव में करीब 50 राजनीतिक लोगों की हत्याएं हुईं। 2019 लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 42 में से 18 सीटें जीत लीं। बीजेपी का जनाधार बढ़ने लगा, तो उसे कमज़ोर करने के लिए टीएमसी की ओर से चौतरफ़ा हमले तेज़ होने लगे। बंगाल में वार्ड स्तर की सियासत बहुत अहम है। यहां वार्ड स्तर के कार्यकर्ता ही चुनाव में सबसे अहम भूमिका निभाते हैं।
घर-घर चुनाव प्रचार से लेकर अपने-अपने वार्ड में अपनी पार्टी के समर्थन में वोट डलवाने की ज़िम्मेदारी इन्हीं की होती है। जैसे ही वार्ड स्तर के कार्यकर्ता अपना राजनीतिक पाला बदलते हैं, तो वो अपने इलाके के वोटबैंक को भी उसी राजनीतिक दल का साथ देने का दबाव बनाते हैं। इसलिए वार्ड स्तर पर हिंसक टकराव भी ज़्यादा होते हैं। टीएमसी हो या लेफ्ट या कांग्रेस पश्चिम बंगाल का राजनीतिक इतिहास गवाह है कि अब तक जिसकी भी सत्ता रहती है, वही पार्टी कानून व्यवस्था को चुनौती देने का काम करती है।
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