मुकेश कुमार, नई दिल्लीः दिन बदला, महीना बदला, साल भी बदल गयाए लेकिन दिल्ली के दरवाजे पर डटे किसानों के आंदोलन का हल नहीं निकला। पेड़ों की परछाइयों से वक़्त मापने वाले किसान खेत खलिहान भूल कंक्रीट की सड़कों पर अब भी पूरी शिद्दत के साथ डटे हैं।
हाड़ कंपाती ठंड में भी धरती को बिस्तर और आसमान को ओढ़ना बनाए बैठे हैं, लेकिन ये अन्नदाता एक ऐसी मांग पर अड़े हैं, जो हुकूमत और उसके हिस्सेदारों को नाकाबिल ए कबूल लग रहा है। सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों की टोली से गाहे बगाहे ऐसे बयान भी आ रहे हैं, जो उनके ज़ख़्म पर नमक छिड़क रहे हैं, लेकिन न तो किसानों का संयम टूटा है। ना ही हौसला। संघर्ष की नई इबारत लिख रहे इन किसानों को उम्मीद है कि एक दिन वो सुबह जरूर आएगी, जो उनके वजूद पर छाये अंधेरे का नाम.ओ.निशान मिटा देंगे।
बीतें 37 दिन के आंदोलन में चार किसानों ने खुदकुशी कर ली तो तीस से ज्यादा किसान ठंड के आगोश में कभी न उठने वाली नींद में सो गए। लेकिन जिन कानूनों की वापसी कराने किसानों का कारवां दिल्ली की जानिब निकला था, वो अब भी उनके सिर पर पहाड़ की तरह लदा है। उनके वजूद को ललकार रहा है, किसान बार बार सरकार को अपनी आशंकाएं गिना रहे हैं, लेकिन सत्ता अपने ही राग गाने में मशगूल है। पूरी मशीनरी किसानों की आशंकाओं को झुठलाने में जुटी है।
मंत्री से सचिव तक सरकार के तमाम हिस्सेदार बार बार आंदोलनकारी किसानों को भ्रमित बता रहे हैं और जो कोई भी इस इनके समर्थन में खड़ा हो रहा है, उसपर किसानों को गुमराह करने का इल्ज़ाम लगा रहे हैं, तोता रंटत की तरह सत्ताधारी पार्टी के बड़े से छोटे नेता इन कानूनों को किसानों के हित में बता रहे हैं।
सुबह से शाम तक यही दावा कर रहे हैं कि इन तीन नए कृषि कानूनों से किसानों को कोई नुकसान नहीं होगा, लेकिन दिलचस्प बात ये है कि सैकड़ों प्रेस कॉन्फ्रेंस के बावजूद किसी ने अब तक ये नहीं बताया कि आखिर इन तीनों कानूनों से किसानों को फायदा क्या हैघ् किसानों की मर्जी के बगैर उनपर ये कानून थोपे ही क्यों गए?
साल के आखिर में एक बैठक ऐसी जरूर हुईए जिसमें किसानों के तेवर की तल्खी घटी, नए साल में समाधान की उम्मीदें भी बलवती हो गई। समाचारों की सुर्खियां बनीं कि सरकार ने किसानों की चार में से दो मांगे मान ली है। पहला पराली जलाने पर जुर्माने की आशंका खत्म हो गई, तो वहीं किसानों के बिजली बिल बढ़ने की टेंशन भी खत्म हो गई, लेकिन 26 दिसंबर को सरकार के बातचीत के प्रस्ताव के जवाब में संयुक्त किसान मोर्चा ने जिन्हें बातचीत के 2 शुरुआती मुद्दे बताए थे, उन्हें छुआ तक नहीं गया।
न तो तीनों कृषि कानूनों वापसी का भरोसा मिला ना ही न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का कोई प्रस्ताव आया। शायद किसान जिस न्यूनतम की मांग पर अड़े हैं, सत्ता के शब्दकोश में उसका आकार अधिकतम से भी बड़ा लिख दिया गया है। दिल्ली बॉर्डर पर डटे किसानों को भी इस बात का एहसास हो चला है कि उनकी लड़ाई लंबी हैण्ण्और रफ्ता रफ्ता उन्होंने खुद को इसके लिए तैयार भी कर लिया है, खून पसीने की खाने की आदत हैण् सो डिवाइडर पर ही सब्जियां उगा रहे हैं। रेत पर हरियाली का अनूठा अनुष्ठान कर रहे हैं। कहते हैं।
ज़मीन गांव में छोड़ कर आना पड़ाए ज़मीर को कहां छोड़ आता। लेकिन जिस ज़मीन और ज़मीर को वो खोना नहीं चाहते, वही आज दांव पर लगा है। ज़मीन पर बड़े साहूकारों की नज़र है। तो ज़मीर उस सिस्टम को हज़म नहीं हो रहा। जो हमेशा अवाम को भेड़ बकरियों की तरह हांकने का आदी रहा है। यही वजह है कि चौथे खंभे का बड़ा हिस्सा भी किसानों को ही जिद्दी बता रहा है। ये सवाल भी पूछे जा रहे हैं कि सिर्फ पंजाब और हरियाणा के किसान ही आंदोलन क्यों कर रहे हैं, जबकि सच ये है कि पश्चिमी यूपी के हजारों किसान गाज़ीपुर बॉर्डर पर तनकर खड़े हो गए हैं। दूसरे राज्यों के किसान भी आए दिन दिल्ली कूच कर रहे हैं, लेकिन सत्ता तंत्र उनकी राह में रोड़े अटका रही हैण् लाठियां भी चलवा रही है।
ये सच है कि जितनी बड़ी तादाद में पंजाब और हरियाणा के किसान दिल्ली की सीमाओं पर मौजूद हैंए उतनी बड़ी तादाद दूसरे राज्यों के किसानों की नहीं है। वजह ये है कि सरकार किसानों से जो अनाज खरीदती है उसका 90 फीसदी सिर्फ पंजाब और हरियाणा से होता है। आढ़ती के जरिए सरकारी खरीद के इस सिस्टम से हजारों लोगों की रोजी रोटी भी जुड़ी है।
इन किसानों को इस बात का डर सता रहा है कि अगर बड़े पैमाने निजी उद्योगपति इसमें दाखिल होंगे तो एक दिन सरकारी खरीद का पूरा ढांचा ही ढह जाएगा। अब अगर पूरे देश की बात करें तो महज 6 फीसदी किसानों को ही न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलता है। यानि 94 फीसदी किसान तो पहले ही बाजार के चंगुल में फंस चुके हैंण् और वो 1800 रुपये क्विंटल एमएसपी वाले धान को 1200 रुपये क्विंटल में बेचने को अभिशप्त हैं।
साफ है कि अगर इन 94 फीसदी किसानों को भी एमएसपी पर फसल खरीद की उम्मीद बंध जाए तो वो आंदोलन में शरीक हो सकते हैंण् पंजाब और हरियाणा के किसानों के जोश ने देश के किसानों की उम्मीद बढ़ा दी है और उसका असर भी किसानों का कारवां देखकर सहज ही लगाया जा सकता है।
यही वजह है कि सरकार अब बातचीत को लेकर अति सक्रिय हो गई है, लेकिन किसानों को सचेत रहना होगा, क्योंकि उनकी टोली में भी बिन पेंदी के लोटे हो सकते हैं या शामिल कराये जा सकते हैं। अचानक उन्हें बड़ा बनाया जा सकता है और उन्हीं के श्रीमुख से किसानों के संतुष्ट होने का ऐलान भी कराया जा सकता है।
(लेखक न्यूज 24 के प्रोड्यूसर हैं और ये उनके निजी विचार हैं)
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