केजे श्रीवत्सन, जयपुर: राजस्थान में हुए पंचायत चुनावों में सत्तारूढ़ कांग्रेस को तगड़ा झटका लगा है। एक दशक में यह पहला मौका है, जब सत्तारूढ़ दल को पंचायत चुनावों में इस कदर हार मिली है। चुनाव नतीजों की बात करें तो 21 में से 14 जिलों में बीजेपी को सफलता मिली है, जबकि कांग्रेस को महज 5 जिलों में ही संतोष करना पड़ा है। यहां तक की कांग्रेस के दिग्गज मंत्री भी अपने गढ़ को नहीं बचा पाए।
राजस्थान के 21 जिलों में पंचायत समितियों और जिला परिषदों के चुनाव हुए थे, जिसमें से 4371 पंचायत समितियों में से 1835 पर बीजेपी और 1718 में कांग्रेस को जीत मिली। वहीं जिला परिषद् के चुनावों के 580 सीटों के नतीजों में बीजेपी को 312 और कांग्रेस को महज 239 सीटों पर ही जीत मिली।
जाहिर है कि सत्ता में रहने वाली कांग्रेस को इस कदर जोरदार पटखनी देने की ख़ुशी हर बीजेपी कार्यकर्ता के चेहरे पर नज़र आ रही थी। वह भी उस समय जब राजस्थान की सरकार ने किसानों के कृषि कानून का विरोध करते हुए विधानसभा में विधेयक पास कर अपने आप को किसानों का बड़ा हितैषी बताने की कोशिश की थी।
नतीजे चौंकाने वाले इसलिए भी रहे, क्योंकि सचिन पायलेट, पीसीसी अध्यक्ष गोविन्द सिंह डोटासरा, केबिनेट मंत्री रघु शर्मा, उदयलाल अंजाना, सुखराम विश्नोई, हरीश चौधरी, अशोक चंदना जैसे दिग्गज मंत्री भी अपने इलाके में कांग्रेस को जीत नहीं दिलवा पाए। जैसलमेर, बाढ़मेर और बीकानेर जिला परिषद् को छोड़कर किसी भी जगह पर कांग्रेस बहुमत के आंकड़े को छू तक नहीं सकी। 10 में से केवल 4 मंत्री ही अपने जिलों में पार्टी की प्रतिष्ठा को इस चुनावों में बचा सके और इनके परिजनों को भी चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। ऐसे में बीजेपी कार्यकताओ ने इस जीत को अपनी बड़ी जीत और सरकार के खिलाफ असंतोष करार दिया।
सत्तारूढ़ कांग्रेस की बात करें तो उसके लिए सत्ता में होने के बाद भी हार का इन चुनावों से मिथक टूट गया है। राजस्थान में पीसीसी अध्यक्ष तो हैं, लेकिन उनकी कार्यकारणी अभी बनी ही नहीं। ऐसे में संगठन की गैर-मौजूदगी के साथ-साथ, विधायकों के भरोसे चुनाव मैदान में उतारने, टिकट बटवारे में परिवारवाद और अपनी ही पार्टी की सरकार की गावों और किसानों के लिए बनायी गयी योजनाओं को सही तरीके तक जनता तक नहीं पहुंचाने को हार की बड़ी वजह माना जा रहा है। कांग्रेस के नेता हार को तो स्वीकार कर रहे हैं, लेकिन उनका यह कह रहे हैं कि बीजेपी को इस जीत पर घमंड नहीं करना चाहिए।
जाहिर है कि सत्ता में रहने के बावजूद भी यह कांग्रेस की बड़ी हार है और अगले साल होने वाले विधानसभा के उपचुनावों में यह पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल को भी कमजोर कर सकती है। इसके अलावा पार्टी में बने असंतोष और आने वाले दिनों में मंत्रिमंडल विस्तार और राजनितिक नियुक्तियों पर भी इसका असर देखने को मिलेगा। फिलहाल तो इसे सत्तारूढ़ कांग्रेस के लिए खतरे की एक बड़ी घंटी मना जा रहा है, जिसका फायदा बीजेपी आगे भी उठाने की कोशिश करेगी।
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