विजय शंकर, डिप्टी एग्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर : इन दिनों दिल्ली में सूरज ढलने के बाद सर्द हवा गोली की तरह बेंधने लगती है । कुछ देर खुले में रहने पर लगता है कि ठंड खून जमा देगी। इस प्रचंड ठंड में भी लाखों की तादाद में किसान पिछले 26 दिनों से दिल्ली बॉर्डर पर डटे हुए हैं । किसानों की एक ही मांग है, मोदी सरकार नए कृषि कानूनों को रद्दी की टोकरी में डाल दें। आंदोलनकारी किसानों का बड़ा वर्ग पंजाब और हरियाणा से हैं। लेकिन, ऐसा क्या है कि पंजाब के किसान नए कानूनों का इतना मुखर विरोध कर रहे हैं? क्या पंजाब की किसानी देश के दूसरे हिस्सों से अलहदा है? क्या पंजाब के सभी किसान संपन्न हैं?
पंजाब में किसानी
पंजाब में करीब 39.67 लाख हेक्टेयर जमीन है, जिस पर 12 लाख किसान अपना खून-पसीना बहाते हैं । करीब 6 लाख किसान ऐसे भी हैं, जो ठेके पर जमीन लेकर खेती करते हैं। इस तरह से देखा जाए तो पंजाब में किसानों की तादाद 18 लाख तर पहुंच जाती है । आंकड़ों के मुताबिक, पंजाब में हर तीसरा किसान गरीबी रेखा के नीचे जिंदगी बसर करने को मजबूर है। पांच एकड़ से कम जोत वाले किसानों की तादाद 10 लाख से अधिक है ।
भारत के भौगोलिग क्षेत्र में पंजाब की हिस्सेदारी सिर्फ 1.53% है । लेकिन, देश के गेहूं उत्पादन में पंजाब की हिस्सेदारी 11.9 फीसदी और चावल की 12.5 फीसदी है। पंजाब देश के सालाना बफर स्टॉक में एक-तिहाई से ज्यादा का योगदान देता है। मतलब, देश की खाद्य सुरक्षा में पंजाब अहम किरदार निभा रहा है।
पंजाब में मंडी सिस्टम
देश की छह हजार एपीएमसी मंडियों में से दो हजार से अधिक पंजाब में ही हैं । पंजाब में मंडियों का नेटवर्क इतना मजबूत है कि किसानों को गेहूं और चावल को बेचने के लिए इधर-उधर नहीं जाना पड़ता । मंडियों से जुड़े लोग और किसानों के बीच बहुत मजबूत रिश्ता बना हुआ है, इसमें सरकारी तंत्र भी शामिल है। मजबूत मंडी सिस्टम की वजह से किसानों को गेहूं और चावल के दाम बिहार, मध्य प्रदेश और दूसरे कई राज्यों की तुलना में अधिक मिल जाते हैं। मजबूत मंडी सिस्टम की वजह से पंजाब और हरियाणा के किसान आसानी से सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य का पूरा फायदा उठाते हैं ।
पंजाब और हरियाणा कृषि उत्पादों के कारोबार पर सबसे ज्यादा टैक्स वसूलने वालों राज्यों में हैं। फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया और दूसरी एजेंसियां जब इन मंडियों से जो अनाज खरीदती हैं, उस पर पंजाब सरकार एमएसपी का कुल 8.5 % टैक्स के तौर पर वसूलती है। मार्केट फीस के तौर पर 3%, ग्रामीण विकास सेस 3% और 2.5% आढ़तियों का कमीशन शामिल होता है। मतलब, मंडियों से पंजाब और हरियाणा सरकार मोटी कमाई करती रही है। मोदी सरकार के नए कृषि कानून मंडी व्यवस्था तो खत्म नहीं करते, पर किसानों को फसल बेचने के लिए नए विकल्प जरुर देते हैं । लेकिन, पंजाब के किसान नए कृषि कानूनों के विरोध में सड़कों पर डटे हुए हैं और शायद सरकार अपनी बात प्रदर्शनकारी किसानों को समझा नहीं पा रही है ।
पंजाब के किसानों का संघर्ष
पंजाब के किसान कभी संघर्ष से पीछे नहीं हटे, उन्होंने हर मुश्किल का सामना अपने हिमालय जैसे हौसले के साथ किया है। 1947 में जब देश का बंटवारा हुआ, तब भी पंजाब की किसानी के चरित्र में बड़ा बदलाव हुआ। हिंदू और सिख शरणार्थी पश्चिम पंजाब में 27 लाख हेक्टेयर जमीन छोड़कर आए थे। लेकिन, पूर्वी पंजाब में मुसलमानों ने 19 लाख हेक्टेयर जमीन ही छोड़ी थी। पाकिस्तान से सिर्फ तन पर कपड़ा और नई जिंदगी की आस लेकर पंजाब आए हिंदू और सिख शरणार्थियों की बस इतनी सी ख्वाहिश थी कि उन्हें कुछ जमीन मिल जाए, जिस पर वो खेती कर अपनी नई जिंदगी शुरू कर सकें ।
भारत सरकार ने पंजाब में हर शरणार्थी को शुरुआती दौर में 4-4 हेक्टेयर जमीन दी, खेती के लिए बीज और औजार खरीदने के लिए कर्ज का भी इंतजाम करवाया गया । बाद में जमीन के बंटवारे की जिम्मेदारी आईसीएस सरदार तरलोचन सिंह को सैंपी गयी । लंदन स्कूल और इकॉनोमिक्स से ग्रेजुएट तरलोचन सिंह पुनर्वास कार्यक्रम के निदेशक थे। उन्होंने जमीनों के बंटवारे के लिए स्टैंडर्ड एकड़ और ग्रेडेड कट फॉमूला अपनाया। इस फॉर्मूले के आधार पर करीब ढाई लाख लोगों को जमीन दी गयी ।
बंटवारे के दौरान उजड़े किसानों ने अपनी जमीन के छोटे से हिस्से पर ज्यादा पैदावार हासिल करने के लिए हाड़तोड़ मेहनत की। बंटवारे के दौरान उजड़ने के दर्द और शून्य से जिंदगी शुरू करने की ललक के बीच उनमें सामूहिकता और सहयोग का गजब भाव था। दिनभर खेतों में मेहनत और शाम में साथ बैठ कर हंसी-ठहाका के साथ खाने-खिलाने की संस्कृति उनके रग-रग में घुलने लगी। लेकिन, देश की भूख मिटाने के लिए और अनाज की जरुरत थी ।
हरित क्रांति से बदली किसानी
हरित क्रांति की सबसे चटक छाप पंजाब और हरियाणा पर दिखी। आधुनिक खेती के तौर-तरीकों को तेजी से पंजाब और हरियाणा के किसानों ने अपनाया । जल्द ही वहां के किसानों की मेहनत ने रंग दिखाया और दोनों राज्य फूड बाउल ऑफ इंडिया’ कहे जाने लगे।
पंजाब के खेतों में ज्यादा गेहूं और चावल की पैदावार के लिए किसान जमकर रसायनिक खादों का इस्तेमाल करने लगे तो चावल की खेती के लिए धरती से बेहिसाब पानी निकालने का भी सिलसिला धड़ल्ले जारी था। 1993-94 में धान की एक नई प्रजाति आई, जिसे नाम दिया गया गोविंदा । ये पंजाब के किसानों के लिए एक चमत्कार से कम नहीं थी। क्योंकि, इससे किसान एक सीजन में धान की दो बार फसल काट लेते थे। धान का उत्पादन बढ़ा तो किसानों की आमदनी बढ़ी । लेकिन, साथ ही साथ पंजाब की मिट्टी में रासायनिक खाद भी एक सीजन में डबल पड़ने लगे, भू-जल भी पहले की तुलना में डबल खींचा जाने लगा। एक आंकड़े के मुताबिक, पंजाब में प्रति हेक्टेयर 184 किलोग्राम की दर से खाद इस्तेमाल होती है ।
आधुनिक तकनीक, जहरीले रसायनों और प्राकृतिक संसाधनों के बेहिसाब दोहन की बदौलत भले ही पंजाब के किसानों की औसत आमदनी बिहार के किसानों की तुलना में छह गुना ज्यादा है । लेकिन, पंजाब के किसान एक बड़े संकट की ओर बढ़ रहे हैं।
काफी हद तक ये मुमकिन है कि आज की तारीख में चल रहे किसान आंदोलन का रास्ता अगले कुछ दिनों में निकल आए । आंदोलनकारी किसान वापस अपने खेतों की ओर लौट जाएं और खुद को किसानों का खैरख्वाह साबित करने में जुटे नेता भी दूसरे एजेंडे में लग जाए। लेकिन, किसानी के मौजूदा संकट के बीच पंजाब के जीवट किसानों के सामने दो तरह की चुनौतियां हैं । पहली, अपनी मेहनत और पैदावार की सही कीमत हासिल करने की। दूसरी, तेजी से बिगड़ती धरती मां यानी जमीन की सेहत की रक्षा की।
पंजाब की जमीन अब थोड़ा आराम मांग रही है, जहरीले रासायनों से छुटकारा मांग रही है। भूजल के बेहिसाब दोहन से छुटकारा चाहती है। ऐसे में किसानों को अपने भविष्य के बारे में गंभीरता से सोचने की जरुरत है। दुनिया के उन देशों से सीख लेने की जरुरत है, जो बगैर धरती की सेहत को नुकसान पहुंचाए उनकी तुलना में कई गुना ज्यादा कमाई करते हैं।
(ये लेखक के निजी विचार है)
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