नई दिल्ली : स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में घटित चौरी चौरा की घटना को देश कभी नहीं भूल सकता। देश की आजादी के घटनाक्रम में चौरी चौरा कांड अहम है। आज से ठीक 100 साल पहले 4 फरवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा की घटना हुई थी। जिसने पूरे देश हो हिला कर रख दिया था। इसी घटना के बाद महात्मा गांधी ने अपने असहयोग आंदोलन को खत्म कर दिया था। चौरी चौरा घटना के 100 साल पूरे होने के मौके पर उत्तर प्रदेश में योगी सरकार शताब्दी समारोह मना रही है। इस समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी हिस्सा लिया। आज से शुरू हो रहे इस समारोह को अगले एक साल तक मनाया जाएगा।
दरअसल 1921 में महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू करने की घोषणा की। उन्हीं दिनों प्रिंस ऑफ वेल्स भारत आए, जिनका हर जगह हड़ताल से स्वागत हुआ। सरकार गांधी जी से समझौता करना चाहती थी, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। इस प्रकार आजादी के आंदोलन के इतिहास में यह पहला मौका था जब सभी भारतीय अंग्रेज सरकार का विरोध कर रहे थे। जनता का आंदोलन बन गया था। गांधीजी ने वायसराय को चेतावनी दी कि यदि उन्होंने सात दिनों के अंदर अपनी दमनकारी नीति में परिवर्तन नहीं किया तो 'कर न दो' आंदोलन शुरू किया जाएगा।
इसी बीच 4 फरवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा में कुछ सत्याग्रही आंदोलन कर रहे थे, इस दौरान अंग्रेज सिपाही ने एक आंदोलनकारी की गांधी टोपी को पांवों तले रौंद दिया। इससे नाराज सत्याग्रही आक्रोशित हो गए और उन्होंने पुलिसवालों को दौड़ा दिया। पुलिसवाले भागकर थाने में छिप गए, लेकिन सत्याग्रहियों ने थाने को घेर लिया। इसके बाद पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी, जिसमें 3 सत्याग्रही मौके पर शहीद हो गए और 50 से ज्यादा घायल गए। गुस्साए क्रांतिकारियों ने पुलिस चौकी में आग लगा दी, जिसमें थानेदार समेत 23 पुलिसकर्मियों की मौत हो गई।
इस घटना के बाद महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। इससे तमाम आंदोलनकारियों में नाराजगी बढ़ गई। मोतीलाल नेहरू, चितरंजन दास, लाला लाजपत राय, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और अली बंधुओं ने इसे जल्दबाजी में उठाया गया कदम बताया। परिणाम यह हुआ कि 1922 में कांग्रेस के गया अधिवेशन में चितरंजन दास ने स्वराज पार्टी की नींव रख दी। वहीं अंग्रेजी हुकूमत ने इलाके के लोगों पर कहर ढाना शुरू कर दिया। गोरखपुर कोर्ट में केस दर्ज किया गया। जांच के बाद 4 फरवरी 1923 को अंग्रेजी सरकार ने 114 क्रांतिकारियों को मौत और दर्जनों लोगों को काले पानी की सजा सुनाई। इसके बाद पूर्वांचल के गांधी कहे जाने वाले संत बाबा राघव दास ने 11 फरवरी 1923 को इस फैसले के विरोध में चौरीचौरा में सभा की और मदन मोहन मालवीय से कोर्ट में क्रांतिकारियों का पक्ष रखने की अपील की।
बाबा राघव दास की अपील पर मदन मोहन मालवीय ने कोर्ट में क्रांतिकारियों का पक्ष रखा और 114 लोगों में से 95 लोगों की मौत की सजा माफ कराई, लेकिन 19 क्रांतिकारियों की फांसी की सजा बरकरार रही। इसके बाद इन क्रांतिकारियों ने दया याचिका दायर की, लेकिन 1 जुलाई 1923 को उनकी याचिका अस्वीकार हो गई। इसके बाद 2 जुलाई 1923 को घटना के आरोप में देश की अलग-अलग जेलों में बंद 19 क्रांतिकारियों को फांसी दी गई। चौरी-चौरा कांड में दोषी मानते हुए अब्दुल्ला, भगवान, विक्रम, दुदही, काली चरण, लाल मोहम्मद, लौटी, मादेव, मेघू अली, नजर अली, रघुवीर, रामलगन, रामरूप, रूदाली, सहदेव, संपत पुत्र मोहन, संपत, श्याम सुंदर और सीताराम को फांसी दी गई थी।
इसके बाद गांधीजी पर राजद्रोह का मुकदमा भी चला था और उन्हें मार्च 1922 में गिरफ़्तार कर लिया गया था। असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 4 सितंबर 1920 को पारित हुआ था। गांधीजी का मानना था कि अगर असहयोग के सिद्धांतों का सही से पालन किया गया तो एक साल के अंदर अंग्रेज़ भारत छोड़कर चले जाएंगे। इसके तहत उन्होंने उन सभी वस्तुओं, संस्थाओं और व्यवस्थाओं का बहिष्कार करने का फैसला किया था जिसके तहत अंग्रेज़ भारतीयों पर शासन कर रहे थे। उन्होंने विदेशी वस्तुओं, अंग्रेज़ी क़ानून, शिक्षा और प्रतिनिधि सभाओं के बहिष्कार की बात कही। खिलाफत आंदोलन के साथ मिलकर असहयोग आंदोलन बहुत हद तक कामयाब भी रहा था।
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