(पूर्व केंद्रीय मंत्री राजीव शुक्ला की कलम से): एक साल में भारतीय राजनीति के दो ऐसे नेता विदा हो गए, जो अलग-अलग राजनीतिक दलों में थे, लेकिन दोनों की फितरत एक जैसी थी। पहले भाजपा नेता अरुण जेटली का निधन हो गया और अब कांग्रेस नेता अहमद पटेल चले गए। दोनों नेता अपने-अपने दलों में न केवल अहम पदों पर थे, बल्कि बहुत कद्दावर माने जाते थे। दोनों आपस में बहुत अच्छे मित्र भी थे। दोनों के दिल बहुत बड़े थे और दोनों के दूसरे दलों के नेताओं से बहुत अच्छे रिश्ते थे। दोनों अपनी-अपनी पार्टी के वफादार थे, लेकिन राष्ट्रीय मसलों पर कोई न कोई हल देशहित में निकलवा लेते थे। एक जो सबसे बड़ी बात दोनों में थी कि वे समस्याओं का समाधान निकालने में उस्ताद थे। कितनी भी बड़ी समस्या या संकट हो, दोनों में उसको सुलझाने का कला थी। लोगों की मदद करना दोनों की आदत में शुमार था। कोई भी व्यक्ति यदि उनके पास परेशानी लेकर जाता था तो वह हर हालत में उसकी सहायता करते थे या कम से कम करने का प्रयास जरूर करते थे। दोनों को उनके अपने-अपने पार्टी नेतृत्व का भी भरपूर विश्वास प्राप्त था। दोनों के रिश्ते भी एक छोटे से व्यक्ति से लेकर बड़े-बड़े ओहदों पर बैठे व्यक्तियों, उद्योगपतियों, आला अधिकारियों सभी से थे।
अहमद पटेल का निधन हाल ही में कोरोना की वजह से हो गया। वह कांग्रेस पार्टी के काम के लिए रात-दिन लगे रहते थे। ऐसा कोई दिन नहीं होगा, जब वह चार बजे सुबह से पहले सोते हों। चार बजे सुबह तक वह लोगों से मिलते रहते थे। अकसर अपनी पार्टी के बड़े-बड़े नेताओं को वह रात दो बजे फोन करके बुला लेते थे या फोन पर जगा देते थे और उनसे जरूरी काम करवाते थे। संसद में कोई गुत्थी उलझ जाए तो उन्हें ही हल निकालने के लिए बुलाया जाता था। उन्होंने कभी कोई सरकारी पद नहीं लिया, सिर्फ एक बार राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने अहमद पटेल को अपना संसदीय सचिव बनाया। उसके बाद उन्होंने कोई भी सरकारी पद लेने से मना कर दिया।
वह हमेशा संसद सदस्य ही रहे। उन्होंने पार्टी के ही पद लिए चाहे वह कांग्रेस अध्यक्ष के राजनीतिक सचिव का हो, चाहे महासचिव का हो या कोषाध्यक्ष का हो। मनमोहन सिंह सरकार के दस साल के कार्यकाल में दर्जनों लोगों को अहमद पटेल ने सरकार में मंत्री बनवा दिया, लेकिन खुद कभी भी मंत्री नहीं बने। देश का प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति बनवाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी, लेकिन वह खुद कोई भी पद नहीं लेते थे। उनके घर पर हमेशा मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, राज्यपालों, सांसदों, अधिकारियों का जमावड़ा लगा रहता था, लेकिन उनके चेहरे पर कभी इस महत्व का अहंकार नहीं दिखता था। वह हमेशा हर एक से वैसे ही प्यार से मिलते थे, बेहद सादगी से रहते थे, बिना किसी तामझाम के एक साधारण सी कार में अकेले चलते थे।
2004 से 2014 तक बेहद महत्वपूर्ण रहते हुए भी उन्होंने कभी अपनी सुरक्षा में एक सिपाही तक नहीं लिया, जबकि दूसरों को वह अक्सर जेड प्लस सुरक्षा दिलवाते थे। खुद हमेशा टाइप-7 घर में रहते थे जबकि उनके एक फोन पर लोगों को टाइप-8 की बड़ी-बड़ी कोठियां मिलती थी। कोई भी उनके पास अहमद भाई कहकर पहुंच जाता था। कहते हैं कि गुजरात के नाते नरेन्द्र मोदी जी उन्हें हमेशा “बाबू भाई” कहते थे। हर दल के नेताओं से उनके सीधे और व्यक्तिगत संबंध होते थे। किसी से भी कभी भी फोन उठाकर बात कर लेते थे और उतने ही सहज रहते थे। जब कोई समस्या बेहद उलझ जाती थी तो अहमद पटेल को कहा जाता था और वह सबसे बात करते उसका हल निकाल देते थे। पार्टी में यदि कोई दुखी है तो वह भी अपना दुखड़ा रोने उनके पास जाता था और यदि कोई खुश है तो उसके लिए उन्हें धन्यवाद देने जाता था। लेकिन वह उसकी खुशी और उसे कुछ मिलने का श्रेय सोनिया गांधी जी को देते थे और हर एक की नाराजगी अपने सिर पर ले लेते थे। इसलिए कई बार कई लोग कुछ न मिलने का गुस्सा उनपर उतारते थे, लेकिन वह सबकुछ सहन कर लेते थे।
कई बार कई दलों के लोग कहते थे कि यदि कभी गठबंधन की सरकार हो औऱ सर्वसम्मति से राष्ट्रपति बनाना हो तो अहमद पटेल से बढ़ियां कोई व्यक्ति नहीं होगा। उनको कई दल स्वीकर कर लेंगे, लेकिन अहमद भाई इस तरह की बातों को हमेशा हंसकर मना कर देते थे। प्रणव मुखर्जी से उनके बेहतरीन रिश्ते थे और प्रणव बाबू हमेशा उनसे राष्ट्रपति बनने के बाद भी सलाह लेते रहते थे।
जहां तक अरुण जेटली का प्रश्न है, वह भी बहुत नीचे से उठकर ऊपर आए थे। छात्र राजनीति से शुरुआत करके उन्होंने अपने आप को देश के सबसे बड़े वकीलों की पंक्ति में खड़ा किया। उनके पिता महाराज कृष्ण जेटली जिला अदालतों के नामी गिरामी वकील थे और वह खुद सर्वोच्च न्यायालय के श्रेष्ठतम वकीलों में रहे। उन्हें 1977 में जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में रखा गया और उसके बाद पार्टी की अंदरूनी राजनीति के चलते 20 साल तक कुछ नहीं मिला, लेकिन उन्होंने धैर्य नहीं खोया और चुपचाप पार्टी का काम करते रहे। सन 2000 में उन्हें राज्यसभा में लाया गया और उससे पहले ही अटल जी की सरकार में वह मंत्री भी बन गए। पहले वह राज्यमंत्री बने, लेकिन काबिलियत देखकर अटल जी ने उन्हें कैबिनेट मंत्री बना दिया। मैं और जेटली जी एक साथ 2000 में राज्यसभा में आए थे और तब से 18 साल तक मैंने सदन में उनकी कार्यशैली और भाषणशैली देखी। 10 साल तक वह नेता विपक्ष भी रहे और मैं संसदीय कार्य मंत्री के रूप में उनसे तालमेल रखता था। वह हर समस्या का मिनटों में हल निकालते थे। हल निकालते वक्त सिर्फ विपक्ष की बात पर ही नहीं अड़ते थे बल्कि सरकार की मजबूरियां भी समझकर उसकी बात भी मान लेते थे। उनके सहयोग से राज्यसभा में मैनें तमाम विधेयक पारित करवाए और अन्ना हजारे का आंदोलन समाप्त करवाया। नरेन्द्र मोदी जी को 2001 में मुख्यमंत्री बनवाने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और 2014 में प्रधानमंत्री पद का भाजपा का उम्मीदवार बनाने के लिए सबसे पहले पहल की।
मोदी जी ने उन्हें प्रधानमंत्री बनते ही वित्त और रक्षा दो बड़े मंत्रालय दिए और उनके आखिरी वक्त तक उन्हें भरपूर महत्व दिया। वह मोदी जी के लिए हमेशा उतने ही महत्वपूर्ण रहे जितना सोनिया जी और मनमोहन सिंह के लिए अहमद पटेल 10 साल की सरकार के दौरान थे। जेटली जी को उनके भाषणों के लिए श्रेष्ठ सांसद का भी सम्मान मिला। संसद में उनके दफ्तर में हर दल के नेताओं का जमावड़ा रहता था। सबसे दोस्ती रखते थे औऱ सबकी समस्याओं का हल निकालते थे। हर सत्र में अपने दफ्तर में मित्र सांसदों को बुलाकर भोज देते थे, जिसमें विपक्षी सांसद ज्यादा रहते थे। उन्होंने भी अहमद पटेल की तरह दर्जनों लोगों को मंत्री, मुख्यमंत्री, संसद सदस्य और राज्यपाल बनवा दिया और स्वयं स्वास्थ्य की वजह से 2019 में दोबारा मंत्री बनने से मना कर दिया।
अरुण जेटली और अहमद पटेल का स्वभाव, नजरिया, काम करने की शैली और रिश्ते निभाने की कला कमोवेश एक जैसी थी। आज वे दोनों भारत के राजनीतिक पटल पर नहीं हैं जिससे देश का बहुत बड़ा नुकसान हुआ। उनको जानने वाले हमेशा उनकी कमी महसूस करेंगे।
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