नई दिल्ली: बिहार में चुनाव हो और जात-पात की पॉलिटिक्स की बात ना हो, ऐसा भला कैसे हो सकता है? लालू परिवार के ऊपर पर तो ऐसे सैकड़ों आरोपों का लेबल चस्पा है, मगर इस बार ऐसा नहीं हुआ। लालू के सामाजिक न्याय के नारे को उनके बेटे तेजस्वी ने आर्थिक न्याय में तो तब्दील किया ही। साथ ही खुद को लालू परिवार की छवि से भी एक हद तक आजाद कर लिया।
बिहार के चुनावी रण में मोदी, योगी और नीतीश की करिश्माई त्रिमूर्ति एक साथ मैदान में उतरी। चुनाव का पासा अपने पक्ष में पलटने में माहिर इन महारथियों ने विरोधियों के खेमे को पुर्जा-पुर्जा करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। बावजूद इसके इनसे अकेले लोहा ले रहे तेजस्वी ने आखिर तक इस लड़ाई को एकतरफा होने नहीं दिया। इस चुनाव में एक नेता के तौर पर तेजस्वी की यही सबसे बड़ी कमाई है।
इस चुनाव में तेजस्वी लालू की छाया से बाहर निकलकर अलग राजनीति की राह पकड़ी। तेजस्वी ने बार-बार रोजगार का मुद्दा उठाया। खासकर सरकारी नौकरी की बात का तो इतना गहरा असर हुआ कि करीब 15 साल तक बिहार की सत्ता में रही एनडीए को उसका काट तैयार करना मुश्किल पड़ गया।
तेजस्वी ने सिर्फ लालू के सामाजिक न्याय को आर्थिक न्याय में ही नहीं बदला बल्कि इस चुनाव के दौरान उनकी रणनीति उन्हें नौसिखिया की बजाय माहिर खिलाड़ी का तमगा देती है। उन्होंने नीतीश सरकार के खिलाफ जनता के असंतोष को जमकर हवा दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सीधे टकराने से बचे और बिहार के लोगों को ये साफ-साफ संदेश दिया कि ये चुनाव पाकिस्तान, कश्मीर या अयोध्या पर नहीं बल्कि सीधे-सीधे बिहार के मुद्दे पर होना चाहिए।
डोर टू डोर और वोटर टू वोटर तक पहुंचने वाले लालू मार्का चुनावी फार्मूले को भी तेजस्वी ने बखूबी इस्तेमाल किया। अपने साथियों और विरोधियों दोनों के मुकाबले तेजस्वी ने सबसे ज्यादा जनसभाएं की।
तेजस्वी ने कुल 247 चुनावी सभा या रैली की यानि औसतन हर दिन 10 से 12 चुनावी सभा में तेजस्वी पहुंचे। एक दिन तो उन्होंने रिकॉर्ड 19 जनसभा को संबोधित किया। इन रैलियों में उन्होंने 10 मिनट से 30 मिनट तक का वक्त दिया। इससे भी खास बात ये कि इन चुनावी सभाओं में तेजस्वी को भरपूर समर्थन मिला। तेजस्वी जनता के बीच अपनी मौजूदगी दर्ज कराते और फिर तेजी से समर्थकों के सैलाब के बीच से गुजरते हुए दूसरे जनसभा की तरफ बढ़ जाते।
बड़ी-बड़ी भीड़, बड़े-बड़े नेताओं की रैलियों में भी दिखी मगर उनकी तादाद तेजस्वी के आंकड़ों से काफी कम है। तेजस्वी के ताबड़तोड़ 247 रैलियों के जवाब में नीतीश कुमार ने 160 से अधिक जनसभाएं की। इस दौरान उन्होंने 6 बार पीएम मोदी के साथ मंच शेयर किया जबकि प्रधानमंत्री मोदी करीब 12 जनसभाओं के जरिए एनडीए के लिए वोट मांगा।
रैलियों की तादाद कभी भी सत्ता के राजतिलक का आधार नहीं बन सकती, मगर इनसे जनता के नब्ज को समझने में मदद तो मिलती ही है। इस सियासी बहस से अलग इस मोड़ पर ये बात तो कही ही जा सकती है कि इस चुनाव ने तेजस्वी को एक नहीं पहचान दी है। ये सीधे-सीधे तेजस्वी की उस तार्किक रणनीति की विजय है, जिसकी वजह से इस चुनाव में सत्ता के बजाए विपक्ष ने चुनावी एजेंडा तय किया।
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