नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल आज ही के दिन अयोध्या विवाद में अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। कुछ लोगों ने आरोप लगाया था कि सुप्रीम कोर्ट ने रामलला विराजमान के पक्ष में अपना फैसला सुनाया था। कोर्ट के फैसले के बाद वहाँ राम मंदिर का निर्माण तेजी से चल रहा है। विश्व हिंदू परिषद और भारतीय जनता पार्टी के लोग इसका श्रेय लेते हैं। लेकिन यह एक तथ्य है कि सुप्रीम कोर्ट में हिन्दू पक्ष की जीत की भूमिका कांग्रेस ने सुनिश्चित की थी। अयोध्या मामले में अगर रामलला विराजमान पक्षकार नहीं बनाये गए होते तो यह फैसला कुछ और भी हो सकता था। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने रामलला विराजमान के पक्ष में ही फैसला सुनाया था।
न्यूज़ 24 चैनल के सुप्रीम कोर्ट संवाददाता (रिपोर्टर) प्रभाकर कुमार मिश्र ने अपनी पुस्तक 'एक रुका हुआ फैसला, अयोध्या विवाद के आख़िरी चालीस दिन' में लिखा है कि अयोध्या ज़मीन विवाद में रामलला विराजमान के नाम से याचिका दाखिल किया जाना एक बहुत बड़ा सोचा- समझा कानूनी दाँव था। अगर रामलला को इस मामले में पक्षकार नहीं बनाया गया होता तो फैसला अलग हो सकता था। रामलला को पक्षकार बनाने के पीछे तत्कालीन राजीव गांधी सरकार में गृहमंत्री बूटा सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
1950 में फैजाबाद के सिविल जज के सामने गोपाल सिंह विशारद ने राम जन्मभूमि में पूजा की अनुमति मांगी थी। 1961 में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने विवादित क्षेत्र का मालिकाना हक मस्जिद के पक्ष में मांगा था। इससे पहले निर्मोही अखाड़े ने 1959 में मंदिर का प्रबंधन अपने हाथ में लेने को लेकर केस दाखिल किया था। यानी हिंदू पक्ष की ओर से जो भी केस दायर हुआ था, उसमें कहीं भी जमीन के मालिकाना हक की मांग नहीं थी, बल्कि सिर्फ पूजा-पाठ और प्रबंधन को लेकर केस दाखिल हुए थे।
जब राम मंदिर का आंदोलन तेजी पकड़ने लगा और तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने ताला खुलवाया, तब सरकार के गृह मंत्री बूटा सिंह ने कांग्रेस की वरिष्ठ नेता दिवंगत शीला दीक्षित के जरिए विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल को संदेश भेजा था कि हिंदू पक्ष की ओर से दाखिल किसी केस में जमीन का मालिकाना हक नहीं मांगा गया है और ऐसे में उनका केस हारना लाजिमी है। बूटा सिंह की इस भविष्यवाणी के पीछे कानूनी तर्क था।
मुस्लिम पक्ष का दावा था कि सदियों से विवादित ज़मीन उनके कब्जे में है ऐसे में लॉ ऑफ लिमिटेशन यानी परिसीमन कानून के तहत इतना लंबा समय गुजर जाने के बाद हिंदू पक्षकार इस पर दावा नहीं जता सकते। लॉ ऑफ लिमिटेशन किसी विवाद में पीड़ित पक्ष के दावा जताने की समय सीमा तय करता है।
इस कानूनी अड़चन से निपटने के लिए बूटा सिंह ने राम मंदिर आंदोलन से जुड़े लोगों को प्रसिद्ध वकील और देश के पूर्व अटॉर्नी जनरल लाल नारायण सिन्हा से कानूनी मदद लेने की सलाह दी। आंदोलन से जुड़े नेता देवकीनंदन अग्रवाल और कुछ लोगों को पटना भेजा गया। लाल नारायण सिन्हा ने हिंदू पक्षकारों को समझाया कि अगर वो अपने मुकदमे में भगवान को भी पार्टी बनाते हैं, तो उससे उनकी राह की कानूनी अड़चनें दूर होंगी।
पटना में ही लाल नारायण सिन्हा की सलाह पर रामलला विराजमान और स्थान श्री रामजन्मभूमि को कानूनी अस्तित्व देने का फैसला हुआ। क्योंकि लाल नारायण सिन्हा को पता था कि भारतीय कानून के अनुसार, हिंदू देवता मुकदमा दायर भी कर सकते हैं और उनके ख़िलाफ़ मुकदमा भी चल सकता है। उन्हें एक 'न्यायिक व्यक्ति' माना जा सकता है। अयोध्या के भगवान राम को शिशु रूप में माना जाता है जो कानून के तहत नाबालिग हैं।
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान रामलला विराजमान के वकील सीएस वैद्यनाथन ने अपनी दलील में कहा था कि 'अयोध्या के भगवान रामलला नाबालिग हैं। नाबालिग की संपत्ति को न तो बेची जा सकती है और न ही छीनी जा सकती है। जब संपत्ति भगवान में निहित होती है तो कोई भी उस संपत्ति को ले नहीं सकता। उस संपत्ति से ईश्वर का हक नहीं छीना जा सकता। ऐसी संपत्ति पर एडवर्स पोजेशन(प्रतिकूल कब्जा) का कानून लागू नहीं होगा।' यह वही दलील थी जिसके लिए भगवान को पक्षकार बनाया गया था।
कोई भी व्यक्ति यदि किसी भूमि या अचल संपत्ति पर काबिज है अर्थात अपना आधिपत्य रखता है तो उसे एडवर्स पोजेशन यानी प्रतिकूल कब्जा के नियम के तहत यह कानूनी अधिकार प्राप्त है कि कोई भी उस व्यक्ति कोसे उस संपत्ति के कब्जे से बिना किसी कानूनी प्रक्रिया से प्राप्त आदेश के बिना बेदखल नहीं कर सकता। इस विवाद में भगवान राम 'अपने सबसे करीबी दोस्त' देवकी नंदन अग्रवाल के माध्यम से एक पक्षकार के तौर पर शामिल हो गए। इसके बाद से इस मुकदमे को परिसीमन कानून के हर बंधन से आने वाले समय में असीमित समय के लिए छूट मिल गई।
प्रभाकर कुमार मिश्र की पुस्तक, 'एक रुका हुआ फैसला' (पेंगुइन प्रकाशन) का अंश
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